देश में मोदी सरकार आने के बाद संघ व बीजेपी के वर्षों पुराने दो एजेंडे तो पूरे हो गए हैं. अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाया जाना, लेकिन तीसरा एजेंडा पूरा होना अभी बाकी है. वह है-यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता को लागू करना. ये मुद्दा इसलिए गरमा गया है कि उत्तराखंड देश का पहला ऐसा राज्य है, जिसने इसे लागू करने का फैसला लेते हुए विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाने का ऐलान कर दिया है. उसके बाद से ही मुस्लिम समाज में हलचल मच गई है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखी है कि ये एक गंभीर मसला है, लिहाजा इसे किसी भी राज्य या देश में लागू करने से पहले इस पर समाज के सभी वर्गों के साथ गंभीरता से चर्चा होनी चाहिए.


इसमें कोई शक नहीं कि ये एक बेहद नाजुक विषय है, जिसमें सिर्फ मुस्लिम नहीं बल्कि देश की बहुत बड़ी आदिवासी आबादी के भी सदियों पुराने रीति-रिवाज औऱ उनके प्रथागत कानून जुड़े हुए हैं, जिन्हें एक झटके में खत्म नहीं किया जा सकता. दरअसल, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तरह आरएसएस भी नहीं चाहता कि इसे जल्दबाजी में लागू करके देश में धार्मिक तनाव का कोई माहौल बने. उत्तराखंड की धामी सरकार की घोषणा के बाद ही संघ के वरिष्ठ पदाधिकारियों ने कहा था कि "कोई भी समान नागरिक संहिता (यूसीसी) "सभी समुदायों के लिए फायदेमंद" और "सुविचारित हो,ये जल्दबाजी में नहीं" होना चाहिए."


बीते 24 मार्च को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी कैबिनेट की पहली बैठक में ही यूनिफॉर्म सिविल कोड बनाने के प्रस्ताव को सर्वसम्मति से मंजूरी दे दी गई थी. अब इसे लागू करने के लिए एक्सपर्ट की एक कमेटी बनाई जाएगी, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज भी शामिल होंगे. हालांकि संघ भी चाहता है कि समान नागरिक संहिता देश में जल्द लागू हो, लेकिन वह इसके लिए विभिन्न समुदायों के बीच "पूर्ण सहमति" की आवश्यकता पर भी जोर देता है. संघ के एक पदाधिकारी के अनुसार “समुदायों के बीच कई प्रथागत कानून हैं. उन सभी का सम्मान किया जाना चाहिए और केवल अनुचित प्रथाओं को ही यूसीसी के माध्यम से समाप्त किया जाना चाहिए. ”


दरअसल, समान नागरिक संहिता लागू करने के मुद्दे पर संघ को मुस्लिमों से ज्यादा फिक्र उस आदिवासी समुदाय की है, जहां संघ की गहरी पैठ है कि इसके लिए उन्हें आखिर कैसे मनाया जाएगा. आदिवासियों के बीच काम कर चुके एक संघ नेता के मुताबिक “आदिवासी समुदायों के अपने व्यक्तिगत कानून हैं, जिन्हें वे छोड़ना नहीं चाहते. यदि सरकार यूसीसी लाती है तो उनके शादी, जायदाद, विरासत आदि से जुड़ी सभी पुरानी प्रथाओं को निरस्त कर दिया जाएगा. उन्हें लगता है कि यूसीसी के माध्यम से उन्हें हिंदू के रूप में ब्रांडेड किया जाएगा जो कि वे खुद को नहीं मानते हैं."


वे कहते हैं कि  'हम एक समान नागरिक संहिता चाहते हैं, लेकिन हम आम सहमति भी चाहते हैं. समुदायों के बीच बहुत सारी जटिल प्रथाएं हैं. उनके अपने-अपने पर्सनल लॉ के तहत बहुत पारंपरिक नियम हैं, इसलिए उन्हें पहले वे सब छोड़ने के लिए मनाना होगा. हम स्थिति का आकलन करने और सरकार को इससे अवगत कराने के लिए जमीन पर काम कर रहे हैं."


गौरतलब है मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ऑफ इंडिया इस मुद्दे पर पीएम मोदी को पत्र लिखा है, जिसकी कॉपी उत्तर प्रदेश औक उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को भी भेजी गई है. बोर्ड के राष्ट्रीय महासचिव मोइन अहमद खान की तरफ से लिखी गई इस चिट्ठी में सिविल कोड न लागू करने की अपील करते हुए इस गम्भीर विषय पर चर्चा व संवाद करने पर जोर दिया गया है. बोर्ड ने कहा कि यूनिफार्म सिविल कोड पर चल रही बहस संविधान सम्मत नहीं है, सरकारों का काम समस्याओं के समाधान का है न कि धार्मिक मसले उतपन्न करना. पत्र में ये भी कहा है कि सिविल कोड से मुस्लिम समुदाय के निकाह तलाक विवाह के मसले प्रभावित होंगे, लिहाजा इसे लागू करने से पहले मुस्लिम समुदाय से गंभीर चर्चा की जाए.


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