जानें- तीन तलाक और यूनिफॉर्म सिविल कोड में क्या फर्क है
तीन तलाक और यूनिफॉर्म सिविल कोड. ये दोनों विषय आपस में इतने मिल गए हैं कि लोग भ्रम में नज़र आ रहे हैं. आज हम स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं.
यूनिफॉर्म सिविल कोड का मतलब है विवाह, तलाक, बच्चा गोद लेना और संपत्ति के बंटवारे जैसे विषयों में सभी नागरिकों के लिए एक जैसे नियम. दूसरे शब्दों में कहें तो परिवार के सदस्यों के आपसी संबंध और अधिकारों को लेकर समानता. जाति-धर्म-परंपरा के आधार पर कोई रियायत नहीं.
इस वक़्त देश में धर्म और परंपरा के आधार पर अलग-अलग नियमों को मानने की छूट है. जैसे- किसी समुदाय में बच्चा गोद लेने पर रोक है. किसी समुदाय में पुरुषों को कई शादी करने की इजाज़त है. कहीं-कहीं विवाहित महिलाओं को पिता की संपत्ति में हिस्सा न देने का नियम है. यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने पर किसी समुदाय विशेष के लिए अलग से नियम नहीं होंगे.
हालांकि, इसका ये मतलब कतई नहीं है कि इसकी वजह से विवाह मौलवी या पंडित नहीं करवाएंगे. ये परंपराएं बदस्तूर बनी रहेंगी. नागरिकों के खान-पान, पूजा-इबादत, वेश-भूषा पर इसका कोई असर नहीं होगा. ये अलग बात है कि धार्मिक कट्टरपंथी इसको सीधे धर्म पर हमले की तरह पेश करते रहे हैं.
क्या है समान नागरिक संहिता?
संविधान बनाते वक्त समान नागरिक संहिता पर काफी चर्चा हुई. लेकिन तब की परिस्थितियों में इसे लागू न करना ही बेहतर समझा गया. इसे अनुच्छेद 44 में नीति निदेशक तत्वों की श्रेणी में जगह दी गई. नीति निदेशक तत्व संविधान का वो हिस्सा है जिनके आधार पर काम करने की सरकार से उम्मीद की जाती है.
यूनिफॉर्म सिविल कोड पर चर्चा को विराम देने से पहले आखिरी बात. 1954-55 में भारी विरोध के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू हिन्दू कोड बिल लाए. इसके आधार पर हिन्दू विवाह कानून और उत्तराधिकार कानून बने. मतलब हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख समुदायों के लिए शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे नियम संसद ने तय कर दिए. मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदायों को अपने-अपने धार्मिक कानून यानी पर्सनल लॉ के आधार पर चलने की छूट दी गई. ऐसी छूट नगा समेत कई आदिवासी समुदायों को भी हासिल है. वो अपनी परंपरा के हिसाब से चलते हैं.
तीन तलाक का मुद्दा क्या है?
अब बात तीन तलाक की. तीन बार तलाक बोल कर शादी तोड़ने का अधिकार मुस्लिम पर्सनल लॉ में मर्दों को हासिल है. सुप्रीम कोर्ट इस समय मुस्लिम पर्सनल लॉ के कुछ प्रावधानों की समीक्षा कर रहा है. इनमें तीन तलाक, मर्दों को चार शादी की इजाज़त और निकाह हलाला शामिल हैं. निकाह हलाला तलाक के बाद पति-पत्नी की दोबारा शादी की व्यवस्था है. इसके तहत तलाक पा चुकी औरत को किसी और मर्द से शादी करनी होती है, संबंध बनाने होते हैं. इसके बाद नए पति से तलाक लेकर पहले पति से शादी की जा सकती है.
सुप्रीम कोर्ट क्या समीक्षा कर रहा है?
सुप्रीम कोर्ट इन प्रावधानों की समीक्षा इस आधार पर कर रहा कि कहीं इनसे मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा है. दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 में हर नागरिक को बराबरी का अधिकार दिया गया है और अनुच्छेद 21 में सम्मान के साथ जीने का अधिकार. सुप्रीम कोर्ट ये देखना चाहता है कि तीन तलाक, बहुविवाह और निकाह हलाला जैसे नियम महिलाओं के गैरबराबरी भरी या असम्मानजनक स्थिति में तो नहीं डालते.
सुप्रीम कोर्ट ने खुद इस मुद्दे पर संज्ञान लेकर सुनवाई शुरू की. बाद में छह मुस्लिम महिलाओं ने भी इन प्रावधानों के विरोध में याचिका दाखिल कर दी. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इन्हें धार्मिक नियम बताते हुए बदलाव का विरोध किया है.
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपने हलफनामे में कहा है, "पति छुटकारा पाने के लिए पत्नी का कत्ल कर दे, इससे बेहतर है उसे तलाक बोलने का हक दिया जाए." बोर्ड ने मर्दों को चार शादी की इजाज़त का भी बचाव किया है. उसके मुताबिक, "पत्नी के बीमार होने पर या किसी और वजह से पति उसे तलाक दे सकता है. अगर मर्द को दूसरी शादी की इजाज़त हो तो पहली पत्नी तलाक से बच जाती है."
केंद्र सरकार ने 7 अक्टूबर को दाखिल हलफनामे में इन प्रावधानों को संविधान के खिलाफ बताया है. केंद्र ने कहा है, "समानता और सम्मान से जीने का अधिकार हर नागरिक को मिलना चाहिए. इसमें धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता."
यूनिफार्म सिविल कोड और तीन तलाक के मसलों को अलग-अलग समझने के बाद अब दोनों को एक साथ देखते हैं. यूनिफॉर्म सिविल कोड एक व्यापक विषय है. इसमें पारिवारिक कानूनों में एकरूपता लाने की बात है. ये विषय अभी चर्चा के स्तर पर है. कानून के मामले पर सरकार को सिफारिश देने वाले लॉ कमीशन ने लोगों से इस मसले पर सुझाव मांगे हैं. यानी ऐसा नहीं है कि सरकार कल ही संसद में समान नागरिक संहिता का बिल पेश करने जा रही हो.
तीन तलाक का मसला एक छोटा विषय है. इसमें पर्सनल लॉ के कुछ प्रावधानों की समीक्षा की जा रही है. ये देखा जा रहा है कि ये प्रावधान संविधान की कसौटी पर खरे उतरते हैं या नहीं. अगर सुप्रीम कोर्ट इन्हें संविधान के मुताबिक नहीं पाता तो रद्द कर सकता है या इनमें कुछ ज़रूरी बदलाव को कह सकता है.
इन नियमों को लेकर मुस्लिम समुदाय भी बंटा हुआ है. मुस्लिम महिलाओं का एक बड़ा तबका और प्रगतिशील मुसलमान इनमें बदलाव को ज़रूरी मानते हैं. लेकिन ज़्यादातर मुसलमान यूनिफॉर्म सिविल कोड के हक में नहीं हैं. मुसलमानों में तीन तलाक जैसे नियमों पर विभाजन को देखते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और उलेमा यूनिफॉर्म सिविल कोड के मसले को प्रमुखता से उठा रहे हैं.
उनकी दलील संविधान के ही अनुच्छेद 25 और 26 पर आधारित है. इनमें धार्मिक स्वतंत्रता और परंपराओं के पालन की बात कही गई है. खास बात ये भी है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड का मसला अकेले मुसलमानों तक सीमित नहीं है. इससे ईसाई, पारसी और आदिवासी समुदाय भी प्रभावित होते हैं.
ज़ाहिर है, नागरिक कानूनों में समानता लाना इतना आसान नहीं है. लेकिन पर्सनल लॉ के कुछ प्रावधानों को संविधान के आधार पर परखना ज़्यादा आसान है. ज़्यादातर कानूनविद इस पर सहमत भी हैं. वैसे भी, अब तक ये स्थापित व्यवस्था रही है कि नागरिकों को संविधान से मिले मौलिक अधिकारों को परंपरागत नियमों से ज़्यादा महत्व दिया जाता है.