नीतिशास्त्र के सबसे बड़े विद्वान आचार्य चाणक्य ने कहा था- "आप राजनीति में हैं और ज्यादा समय तक सत्ता में बने रहने का सपना देख रहे हैं तो आपको लोगों के पुराने घावों को ताज़ा करते हुए ये अहसास दिलाना होगा कि उसे खत्म करने की औषधि सिर्फ आप ही दे सकते हैं." उत्तरप्रदेश के चुनावी दंगल में चाणक्य की उसी नीति पर चलते हुए फिलहाल तो बीजेपी बाजी मारते हुए ही लग रही है. क्या इसे महज़ संयोग मानेंगे या एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा कि एक ही दिन में बीजेपी के तीन दिग्गज़ नेता उस पश्चिमी उत्तरप्रदेश की जमीन पर प्रचार करने के लिए पहुंच जाएं, जहां किसान आंदोलन से लगी आग की तपिश आज भी उतनी गरमाहट लिए हुए है. लेकिन बीजेपी जानती है कि किसानों की दुखती रग को छेड़े बगैर उस मुद्दे को फिर से जिंदा किया जाए,जिसके दम पर उसने पांच साल पहले देश के सबसे बड़े सूबे की सत्ता हासिल की थी.


वैसे मीडिया चाहे जितने तमगे देता रहे कि बीजेपी में रणनीतिकार दो-तीन दिग्गज़ नेता ही हैं, लेकिन आरएसएस की विचारधारा से जुड़े और उसे निस्वार्थ भाव से आगे बढ़ाने वाले लोग ये बखूबी जानते हैं कि देश में होने वाले किसी भी चुनाव के वक़्त संघ ही सबसे पहले बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को ये जमीनी हकीकत बताता है कि उस चुनांवी राज्य में आपकी सबसे कमजोर नब्ज़ वाला इलाका कौन-सा है, जिसे फतह किये बगैर सत्ता में आना मुश्किल है.जाहिर है कि पार्टी नेतृत्व भी संघ से मिले 'फीड बैक' के आधार पर ही अपनी आगे की रणनीति तय करता है. वैसे भी बीजेपी की स्थापना होने के बाद से इन 42 सालों में पार्टी के किसी भी कद्दावर नेता की ये जुर्रत नहीं हुई कि वो संघ के सुझावों-निर्देशों को ठुकरा सके.


गृह मंत्री अमित शाह, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का एक ही दिन में यूपी के 'जाट लैंड' में उतरना संयोग नहीं, बल्कि संघ के स्वयंसेवकों के जरिये धरातल से मिली उन रिपोर्ट का ही नतीजा है कि अगर पश्चिमी यूपी को नहीं साध सके,तो समझो कि इस बार यूपी की सत्ता से गए.जाट और मुस्लिम बहुल आबादी वाला ये वो इलाका है, जहां विधानसभा की 136 सीटें हैं और पिछली बार यानी 2017 के चुनाव में सारे राजनीतिक समीकरणों को ध्वस्त करते हुए बीजेपी ने यहां से सबसे बड़ी कामयाबी हासिल की थी. उसकी वजह भी थी क्योंकि साल 2014 के लोकसभा चुनाव से तकरीबन आठ महीने पहले मुजफ्फरनगर में साम्प्रदायिक दंगों की ज्वाला भड़क उठी थी. उसका नतीजा ये हुआ कि सालों से साथ रहते आये जाटों व मुस्लिमों के बीच जानी दुश्मन का रिश्ता बन गया. उसी जिले के कैराना कस्बे से हिंदुओं को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा.


जैसा बताया जाता है कि तब उनकी आवाज़ सुनने को कोई तैयार नही था क्योंकि यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार थी और केंद्र की सत्ता में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार काबिज़ थी. ऐसे में बीजेपी के स्थानीय नेताओं ने इसके खिलाफ संघर्ष करते हुए लोगों के बीच अपनी जगह बनाई.नतीजा ये हुआ कि पहले लोकसभा और बाद में,2017 के विधानसभा चुनावों में जाटों ने खुलकर बीजेपी का न सिर्फ साथ दिया बल्कि उम्मीद से भी ज्यादा सीटों से उसकी झोली भर दी. जबकि जाट समुदाय उससे पहले तक चौधरी चरण सिंह और बाद में उनके बेटे अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल का ही साथ देता आया था. लिहाज़ा,वह उपलब्धि बीजेपी के लिए अभूतपूर्व थी और उसके नेताओं को भी समझ आ गया कि यूपी का किला फतह करने के लिए सिर्फ पूर्वांचल ही नहीं,बल्कि वेस्ट यूपी में भी अपना झंडा गाड़ना जरुरी है.


लेकिन पिछले साल भर में हुआ किसान आंदोलन ही अब बीजेपी के लिए सबसे बड़ी दुखती रग बन चुका है और हक़ीक़त ये है कि पार्टी के नेता यहां के जाट समुदाय को समझाने-शांत कर पाने में अभी भी उस हद तक सफल नहीं हो पा रहे हैं.जो खबरें मिल रही हैं, उसके मुताबिक बीजेपी के नेता अभी भी इतने डरे हुए हैं कि वे वेस्ट यूपी के बहुत सारे गांवों में जाकर प्रचार करने की हिम्मत तक नहीं जुटा पा रहे हैं. इस बार बीजेपी को खतरा ये भी सता रहा है कि दिवंगत अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी ने अपनी पार्टी आरएलडी का अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर लिया है. किसान नेता राकेश टिकैत भले ही खुलकर न बताएं लेकिन ये तय है कि वे आरएलडी के उम्मीदवारों को जिताने के लिए अपनी मदद करने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे.


ऐसा हो नही सकता कि बीजेपी के रणनीतिकार इस हक़ीक़त से वाकिफ़ न हों. शायद यही वजह थी कि शनिवार को घर-घर जाकर पार्टी का प्रचार करने सबसे संवेदनशील सीट यानी कैराना में पहुंचे अमित शाह ने किसानों के मुद्दे को दरकिनार करते हुए पलायन के उन पुराने जख्मों को ही हरा किया.उन्होंने अपने भाषण में इस बात पर ही जोर दिया कि "जो लोग कुछ साल पहले तक हिन्दू परिवारों को पलायन के लिए मजबूर करते थे,योगी जी के राज में वे खुद पलायन करने पर मजबूर हो गए हैं."


लोग शायद भूल गए हों लेकिन साल 2017 के चुनाव में भी यही पश्चिमी यूपी बीजेपी के लिए 'हिंदुत्व' की सबसे बड़ी प्रयोगशाला बना था और पार्टी को इसमें कामयाबी भी मिली थी.अमित शाह की कैराना में कही बातों और सीएम योगी आदित्यनाथ के अलीगढ़ व बुलंदशहर में दिए गए ओजस्वी भाषण पर अगर गौर करेंगे,तो कोई भी समझ जाएगा कि बीजेपी ने अपनी पुरानी प्रयोगशाला से ही किसानों के गुस्से का तोड़ निकाल लिया है.लेकिन खतरा ये है कि इस बार 'जाट लैंड' में ये प्रयोग कहीं उल्टा न पड़ जाये?



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