देश का सबसे बड़ा सूबा उत्तरप्रदेश इकलौता ऐसा प्रदेश है, जहां के ब्राह्मणों ने जिसे अपना आशीर्वाद दे दिया, समझो कि वो लखनऊ की कुर्सी पर बैठ ही गया.भले ही वे मुलायम सिंह यादव हों,मायावती हो,अखिलेश यादव हों या फिर गुरु गोरखनाथ की गद्दी संभालने वाले राजपूत योगी आदित्यनाथ ही क्यों न हो. लेकिन इस बार यूपी के ब्राह्मण समुदाय के तेवर देखें,तो वो भले ही कोई शाप देता न दिखे लेकिन अपने आशीर्वाद से बीजेपी की झोली उतनी सीटों से भरता भी नहीं दिखाई दे रहा है. शायद यही वजह है कि यूपी बीजेपी के ब्राह्मण नेताओं ने उनकी इस नाराजगी को भांपते हुए पार्टी आलाकमान तक ये संदेशा पहुंचवा दिया था कि इसे हल्के में लेने की गलती भारी भी पड़ सकती है.


बीजेपी नेतृत्व ने भी इस चेतावनी को गंभीरता से लिया और प्रदेश के ब्राह्मण नेताओं की शिकायतें-सुझाव सुनने की ड्यूटी लगाई गई केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान की,जो न तो यूपी की सियासत को बारीकी से समझते हैं और न ही वहां के जातिगत गणित को समझने के माहिर हैं क्योंकि उनका नाता ओडिसा से है और ये कहना गलत नहीं होगा कि वे उत्तर भारत के सियासी दांव-पेंच समझने के एक नये खिलाड़ी हैं. बहरहाल,रविवार को यूपी के प्रमुख ब्राह्मण नेताओं की मीटिंग प्रधान के दिल्ली वाले सरकारी आवास पर हुई जिसमें योगी सरकार के चुनिंदा ब्राह्मण मंत्री भी शामिल थे.


बताते हैं कि इस बैठक में अपने ही प्रदेश नेतृत्व के खिलाफ जमकर भड़ास निकाली गई और कहा गया कि केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय  मिश्र टेनी पर लगे आरोपों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए न तो प्रदेश नेतृत्व सामने आया और न ही सीएम योगी ने ही दमदार तरीके से अब तक उनका बचाव कोई बचाव किया है क्योंकि वे ब्राह्मण समुदाय से नाता रखते हैं. बैठक में मौजूद एक नेता की मानें,तो योगी सरकार के एक युवा ब्राह्मण मंत्री ने तो ये भी कह डाला कि प्रदेश के शीर्ष पर बैठे लोगों का अगर यही रवैया रहा, तो फिर हमसे उम्मीद मत रखियेगा कि पांच साल पहले की तरह ही इस बार भी ब्राह्मण वोट बीजेपी की झोली में क्यों नहीं आये.


बताया जाता है कि पार्टी के ब्राह्मण नेताओं की इतनी तल्ख़ी के बाद ही तय हुआ कि विधानसभा की 403 सीटों पर ब्राह्मणों तक पहुंचने के लिए एक कमेटी बनाई जाए.पहले इसे 11 सदस्यों तक ही रखने का निर्णय था लेकिन ब्राह्मण नेताओं की जिद को देखते हुए आखिरकार 16 सदस्यीय समिति बनाई गई. इसे भी बनाने से पहले आलाकमान की हरी झंडी ली गई. सूत्रों के मुताबिक बाकी नेताओं के दबाव के बाद ही इस समिति में अजय मिश्रा टेनी को भी शामिल किया गया. जबकि आलाकमान उन्हें इससे दूर इसलिये रखना चाहता था कि चुनावों में इससे फायदा कम और नुकसान ज्यादा होने की गुंजाइश है.लेकिन अपने ही ब्राह्मण नेताओं की नाराजगी को थामने के लिए आलाकमान को झुकना पड़ा और विवादों में फंसे अजय मिश्रा को इस समिति में रखकर उनका कद बढ़ाने पर मजबूर होना पड़ा.


वैसे मोटे तौर पर देखें,तो यूपी में ब्राह्मणों का वोट तकरीबन 12 से 14 फीसदी ही है लेकिन चुनावी इतिहास बताता है कि उन्होंने किसी भी पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में अपनी निर्णायक भूमिका निभाई है.राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यूपी की सियासत में ब्राह्मण एक ऐसा साइलेंट वोट बैंक है,जो चुनाव से पहले जिस भी पार्टी को अपना समर्थन देने का निर्णय लेता है, उसका वो संदेश समूचे राज्य के ब्राह्मणों तक न सिर्फ पहुंचता है,बल्कि वे उसके मुताबिक ही अपना वोट भी देते आये हैं.


हालांकि, यूपी को अब तक छह ब्राह्मण मुख्यमंत्री मिल चुके हैं लेकिन 1989 के बाद से वहां अब तक कोई ब्राह्मण सीएम नहीं बन पाया है.उत्तर प्रदेश की सियासत में लंबे समय तक सत्ता की कमान ब्राह्मण समुदाय के हाथों में रही है. नारायण दत्त तिवारी के बाद यूपी में कोई भी ब्राह्मण समुदाय से मुख्यमंत्री नहीं बन सका. कुछ हद तक ये भी सही है कि सूबे में पिछले तीन दशकों से राजनीतिक पार्टियों के लिए ब्राह्मण समुदाय महज एक वोटबैंक बनकर रह गया है.इसीलिये बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने इसी नब्ज़ को समझते हुए छह महीने पहले से ही सभी जिलों में ब्राह्मण सम्मेलन का आगाज करके बाकी दलों को बेचैन कर दिया था. यही वजह है कि बीएसपी की इस पहल के बाद के सपा से लेकर बीजेपी और कांग्रेस तक को ब्राह्मण समुदाय की सुध आई कि इन्हें साधे बगैर सत्ता की सीढ़ी चढ़ना मुश्किल है.


हर राजनीतिक दल का ब्राह्मणों पर इतना फोकस होने की वजह भी है क्योंकि पिछड़ा, दलित, मुस्लिम के बाद कम प्रतिशत का वोट बैंक होने के बावजूद वो अक्सर निर्णायक भूमिका निभाता आया है.इसलिये हर पार्टी उसे किसी भी कीमत पर अपने पाले में लाने की जद्दोजहद में जुटी हुई है.यह याद दिलाना जरुरी है कि साल 2007 में बीएसपी ने ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़कर ही सरकार बनाई थी. तब बीएसपी के रणनीतिकारों ने महसूस किया था कि ब्राह्मणों को अगर अपने पाले में खींचना है तो भगवान श्री राम और परशुराम की अग्रपूजा जरूरी है. बीएसपी ने 2007 में पहली बार सोशल इंजीनियरिंग का जो ताना-बाना बुना था और उसमें ब्राह्मणों को जोड़ने का पूरा फार्मूला पार्टी के ब्राह्मण नेता सतीश चंद्र मिश्रा ने ही तैयार किया था. वह फार्मूला हिट हुआ और मायावती सत्ता में भी आ गईं. लेकिन पांच साल के बाद ही मायावती सरकार से ब्राह्मणों का इतना मोहभंग हुआ कि उन्होंने इस सोशल इंजिनीरिंग के फार्मूले को तहस-नहस करते हुए साल 2012 में उसे सत्ता से बेदखल कर अखिलेश यादव को कुर्सी पर बैठा दिया.


यूपी की सियासी नब्ज़ समझने वाले मानते हैं कि केंद्र से लेकर राज्य तक सत्ता दिलाने में अब तक ब्राह्मणों की भूमिका अहम रही है. मायावती और अखिलेश के बाद साल 2014 में केंद्र में मोदी जी और 2017 में राज्य में योगी की सरकार बनवाने में उनकी भूमिका को कोई नज़रंदाज़ नहीं कर सकता. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि लखीमपुर खीरी हिंसा के मामले में आरोपों के कटघरे में खड़े और मीडिया के साथ सरेआम बदसलूकी करने वाले अजय मिश्रा का कद बढ़ाने से बीजेपी को सियासी फायदा होगा या योगी आदित्यनाथ को नुकसान?



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