ज्ञानवापी पर CM योगी आदित्यनाथ का बयान, विपक्ष का पलटवार और आस्था... जानें क्या है इसके सियासी मायने
वाराणसी के ज्ञानवापी मामले पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बड़ा बयान दिया. उन्होंने कहा कि त्रिशूल मस्जिद के अंदर क्या कर रहा है? ऐसे में अगर हम ज्ञानवापी को मस्जिद कहेंगे तो विवाद होगा ही. इतना ही नहीं, सीएम योगी ने आगे ये बात भी कही कि मुस्लिम पक्ष को इस मामले में आगे आकर ये कहना चाहिए कि ऐतिहासिक गलती हुई है और उसका समाधान हो. हालांकि, सीएम योगी के इन बयान के बाद ओवैसी से लेकर समाजवादी पार्टी सांसद शफीकुर्रहमान बर्क ने पलटवार किया. शफीकुर्रहमान ने तो यहां तक कहा कि कानूनी तौर पर ये मुसलमानों की मस्जिद है. लेकिन, सवाल उठ रहा है कि जब कोर्ट में इस मामले की सुनवाई हो रही है तो फिर इस तरह की बयानबाजी आखिर हो क्यों रही है?
दरअसल, समाज और लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी वक्तव्य का खासकर राजनीतिक बयानों का कोई एक जवाब देना ठीक नहीं होता है. क्योंकि किसी भी वक्तव्य की एक पृष्ठभूमि होती है. विशेषकर एक राजनीतिक व्यक्ति का अपना एक दलीय विचार होता है. व्यक्तिगत विचार भी होता है. और कई बार जिन चीजों का वे नेतृत्व करते हैं उन सभी चीजों को मिलाकर उनका एक दृष्टिकोण बनता है.
सीएम ने ऐसा क्यों बोला?
जहां तक ज्ञानवापी पर सीएम योगी के बयान का सवाल है तो ये उनकी राजनीतिक राय हो सकती है और एक लोकतांत्रिक परंपरा में उनको राजनीतिक विचार देने की स्वतंत्रता है. इसलिए उन्होंने ऐसा बयान दिया है. लेकिन, ये पूरा मसला क्योंकि न्यायिक प्रक्रिया के अधीन है, न्यायिक प्रक्रिया इस वक्त चल रही है, ऐसे में जैसे ही ये प्रक्रिया पूरी हो जाएगी, उसके हिसाब से जो कुछ भी निर्णय आएगा समाज में सभी लोगों को मान्य होगा.
ऐसे में सीएम योगी के बयान का बहुत विशेष रुप में अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए. ये एक राजनीतिक वक्तव्य या फिर जिस पृष्ठभूमि से हैं, वो उसे बताना चाहते हैं.इसलिए उनके इस बयान को उसी रूप में देखा जाना चाहिए, जैसा उन्होंने बयान दिया है और ये उनका मत भी है. ऐसे में ये विशेष बात नहीं लगती है. असल में हमारी राजनीति समाज का ही प्रतिबिंब करती है. राजनीति शून्यता में तो होती नहीं है. समाज में या फिर सामाजिक पृष्ठभूमि, समाज के इतिहास और उसकी परंपराओ में ही तो होती है. इसलिए कोई भी व्यक्ति अगर बयान दे रहा है, अगर उसमें विवाद है तो जाहिर है कि उसके दो पक्ष होंगे. दोनों पक्ष उस विवाद को अपनी तरफ मोड़ने की कोशिश करेंगे ही. इसीलिए न्यायालय और न्यायिक प्रक्रिया है. और इसलिए ये कहा जाता है कि न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए बल्कि न्याय होते हुए भी दिखना चाहिए.
ज्ञानवापी पर क्यों बयानबाजी?
ऐसे में ये जरूरी है कि न्यायिक प्रक्रिया के तहत पहले जिला अदालत में उसके बाद मसला सुप्रीम कोर्ट में आया. सुप्रीम कोर्ट ने सर्वे पर स्टे भी लगाया. स्टे के बाद मामला फिर से इलाहाबाद हाईकोर्ट में गया. इस स्थिति में जब न्यायिक प्रक्रिया पूरी हो जाएगी तो उसका जो भी निर्णय होगा, सभी लोगों को मान्य होगा. लेकिन, इस बीच में जब तक न्यायिक प्रक्रिया चल रही है, लोगों को अपने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है.
मुख्यमंत्री किसी एक राजनीतिक दल के नेता भी होते हैं. ये उनका मत है कि वे अपनी बातें कहें. जब उन्होंने अपनी बातें कहीं है तो उसके प्रत्युत्तर में विचार आया है. ये तो लोकतंत्र के लिए सुखद ही है कि लोग बेबाक होकर भी खुलकर अपनी बातें कहते हैं. चाहे सीएम की बात हो, सपा के सांसद शफीकुर्रहमान की बात हो या फिर ओवैसी की, सबने खुलकर अपनी बातें कही हैं. ये हमारी आस्था का भी प्रश्न है. इसलिए ये नहीं कहा जा सकता है कि ये वक्तव्य सही है या ये वक्तव्य गलत है. दोनों ने अपने-अपने वक्तव्य दिए हैं. जैसे ही मामले की प्रक्रिया पूरी होगी, उसका कोई निर्णय होगा. जैसा हमने विगत वर्षों में देखा है कि जो भी निर्णय आया है, उसको लोगों ने स्वीकार किया है.
फैसले पर बयानबाजी का कितना असर?
मुझे याद है कि संविधान सभा में जब न्यायिक व्यवस्था पर चर्चा हो रही थी उस वक्त कहा गया था कि जो न्याय का पद होता है वो ईश्वर का पद होता है. ऐसे में न्यायालय इन चीजों से बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं होता है. ऐसे बयानों से न्यायालय अगर प्रभावित होने लगे तो वो कंगारू कोर्ट हो जाएगा. इसलिए न्यायालय का स्थान ऊंचा हो जाता है. कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन उस अपवाद के आधार पर पूरी व्यवस्था को भ्रष्ट नहीं करार दे सकते हैं.
हमारी जो संसदीय व्यवस्था है, उसी के तहत पीएम या सीएम पद पर लोग आते हैं. ऐसे में जो दलीय या व्यक्तिगत जो उनका विचार है, या धार्मिक विचार है, उससे उनकी मुक्ति कैसे हो सकती है. समाज में तटस्थता बड़ी मुश्किल से हो पाता है. व्यक्ति है तो उसके मूल्य और अपनी आस्थाएं होंगी, अपनी पहचान होगी. उससे उसे हटाकर नहीं देख सकते हैं. हम अगर इस तरह से देखें कि व्यक्ति उस पद पर है तो सिर्फ पद का है, तो ऐसे नहीं हो सकता है.
कुछ ऐसे पद होते हैं, जिन पर ऐसी तटस्थता की अपेक्षा की जाती है. लेकिन, जहां तक सीएम का सवाल है, सीएम का पद संवैधानिक है ये ठीक है, लेकिन उसी संविधान में ये भी उल्लेख किया गया है कि जैसे स्पीकर तटस्थता का पद है, संविधान भी चाहता है कि तटस्थता का पद हो.
लेकिन जहां तक सीएम का सवाल है, ऐसे राजनीतिक पदों का सवाल है तो संविधान के अतर्गत ही जब प्रक्रिया निहित है तो उस प्रक्रिया के अंतर्गत ही दलीय व्यवस्था उस रूप में देखा जा सकता है, एक्सटेंशन के रुप में देखा जा सकता है. इसलिए, उससे आप कैसे व्यक्ति, मुख्यमंत्री या फिर मंत्री को अलग कर देख सकते हैं? कहीं न कहीं हमारी अपेक्षाएं उस रूप में नहीं है, जैसी होनी चाहिए. मुझे लगता है कि सीएम का बयान ज्ञानवापी पर देने में कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन अगर न्यायालय में मामला है, तो अंतिम फैसला कोर्ट को ही करना है.
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