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UP Election: छोटी पार्टियों की ताकत ही तय करेगी किसकी बनेगी सरकार?

उत्तर प्रदेश के चुनावी संग्राम के आखिरी चरण का प्रचार खत्म होने से पहले आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत सभी पार्टियों के दिग्गज नेताओं ने अपनी पूरी ताकत झोंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अंतिम चरण की 54 सीटों पर 7 मार्च को होने वाली वोटिंग इस लिहाज से भी अहम है कि ये बड़े दलों के साथ पूर्वांचल की छोटी पार्टियों की ताकत और किस्मत का भी फैसला करेंगी.

यूपी चुनाव के छठे और सातवें चरण को ही निर्णायक माना जा रहा है. छठे चरण की 57 सीटों पर 3 मार्च को मतदान संपन्न हो चुका है. हालांकि पिछले चुनाव-नतीजों पर गौर करें, तो बीजेपी यहां सबसे मजबूत स्थिति में है क्योंकि बीजेपी गठबंधन ने 2017 के विधानसभा चुनाव में इस पूरे इलाके पर एकतरफा जीत हासिल की थी. उसे यहां की कुल 111 में से 84 सीटें मिली थीं जबकि सपा गठबंधन को 14 और बीएसपी के खाते में 11 सीटें आई थीं.

हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि पिछले चुनाव में बीजेपी को सीटें भले ही ज़्यादा मिली थी लेकिन वोट प्रतिशत और जीत का अंतर प्रदेश के दूसरे हिस्से के मुकाबले पूर्वांचल में कम था. इसलिए, माना जा रहा है कि इस बार सपा को बीजेपी पर बढ़त पाने के लिए बहुत ज्यादा वोट स्विंग की जरूरत नहीं होगी. यानी आधा प्रतिशत वोट ही पासा पलट सकता है.

दरअसल, छोटे दलों की ताकत पूर्वांचल में पिछले चुनावों में ही उभरकर सामने आई थी और दोनों बड़ी पार्टियों बीजेपी और सपा को अहसास हो गया था कि इनसे गठबंन्धन किये बगैर सत्ता तक पहुंचना मुश्किल है. तब बीजेपी ने तीनों प्रमुख क्षेत्रीय दलों -अपना दल, निषाद पार्टी और ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और पूर्वांचल के किला फतह कर लिया. सातवें चरण की जिन 54 सीटों पर चुनाव होने हैं उनमें इस वक़्त अपना दल के पास चार, सुभासपा के पास तीन, और निषाद पार्टी के पास एक सीट है. लेकिन बीजेपी को नुकसान होने की आशंका इसलिये है क्योंकि इस बार राजभर उसका साथ छोड़कर सपा के साथ मिलकर चुनावी मैदान में है. जानकार मानते हैं कि राजभर के जनाधार का सपा को फायदा मिलेगा और उसकी सीटों में इजाफा होना भी तय है.

वैसे यूपी के छठे और सातवें चरण का चुनाव धार्मिक ध्रुवीकरण से बाहर निकलकर पूरी तरह से जातीय समीकरण पर आ टिका है क्योंकि पूर्वांचल के इन इलाकों में पिछड़ी जातियों का बोलबाला है और वे ही निर्णायक भूमिका में हैं. यही वजह रही कि पिछड़ी जातियों को अपने पाले में करने के लिए बीजेपी और सपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी. बीजेपी ने पिछड़ी जातियों की नाराजगी से बचने के लिए गठबंधन दलों के साथ सीटें साझा करने में भी उदारता दिखाई क्योंकि उसे डर था कि अगर उनकी फरमाइश पूरी नहीं की गई, तो वे अखिलेश यादव की साइकिल पर सवार हो सकते हैं.

बीजेपी ने इस बार अपना दल को 17 और निषाद पार्टी को 16 सीटें पूर्वांचल में दी हैं. सर्वाधिक पिछड़ी जातियों में मौर्य, निषाद, राजभर, नोनिया आदि को काफी प्रभावी वोटर समझा जाता है, जो पूर्वांचल की कई सीटों पर पासा पलटने की ताकत रखते हैं. हालांकि बीजेपी के इस समीकरण की काट में  सपा ने भी ओमप्रकाश राजभर की सुभासपा को 18 सीटें और संजय चौहान की पार्टी जेसीपी को तीन देकर अपना खेमा मजबूत करने का दांव खेला है. इन छोटे दलों को खासकर राजभरों और नोनिया चौहानों प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां माना जाता है.

लेकिन देखना ये होगा कि छोटी पार्टियोन की ताकत इस बार भी लखनऊ के सिंहासन पर भगवा लहराती हैं या फिर वहां सायकिल ले जाती हैं?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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