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यूपी चुनाव: आखिर केजरीवाल ने दोबारा क्यों जिंदा किया कब्रिस्तान और श्मशान का मुद्दा?

Uttar Pradesh Assembly Election 2022: उत्तर प्रदेश के चुनाव मैदान में पहली बार कूदने वाली आम आदमी पार्टी (AAP) अपनी सियासी जमीन तैयार करने के लिए सत्ताधारी बीजेपी समेत विपक्ष पर भी हमलावर मूड में आ गई है. हालांकि तमाम कोशिशों के बाद भी अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) से उसके गठजोड़ की बात नहीं पाई और अब वह अपने बूते पर ही मैदान में है. आप के संयोजक और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) ने आज बेहद चालाकी से कब्रिस्तान और श्मशान के पुराने मुद्दे का जिक्र छेड़कर लोगों को ये एहसास दिलाने की कोशिश की है कि बीजेपी (BJP) और सपा ने किस तरह से वोटों का ध्रुवीकरण करके यूपी की सत्ता पाई है. 

दरअसल केजरीवाल यूपी में भी तीसरा विकल्प बनने की कोशिश में हैं, लिहाज़ा वे दोनों प्रमुख दलों पर निशाना साधते हुए ये साबित करना चाहते हैं कि इनमें से दूध का धुला कोई नहीं है और सिर्फ आप ही साफ-सुथरी राजनीति करना जानती है. हालांकि यूपी चुनाव के चतुर्भुजी मुकाबले में आप की सियासी हैसियत पांचवे नंबर वाली ही है, लेकिन बड़ी पार्टियों के मजबूत वोट बैंक को अगर छोड़ दें तो केजरीवाल ऐसे वोटरों को अपने पक्ष में करने की राजनीति बखूबी जानते हैं, जो किसी भी दल को आंख मूंदकर अपना समर्थन नहीं देता. बेशक ऐसे वोटरों का प्रतिशत कम ही होता है, लेकिन उनके दो-तीन प्रतिशत वोट भी अगर किसी छोटी पार्टी को मिल जायें, तो उस सीट पर सारा चुनावी गणित ही गड़बड़ा जाता है और अक्सर जिस उम्मीदवार के जीतने की सबसे ज्यादा उम्मीद होती है उसे हार का मुंह देखना पड़ता है.

उस लिहाज से अगर गौर करें तो केजरीवाल "सबको देखा कई बार, हमें भी आजमाओ एक बार" वाली तर्ज़ पर ही अपनी राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं. उनके किये वादों का असर यदि दो-तीन प्रतिशत वोटरों पर भी पड़ गया और वे आम आदमी पार्टी के पक्ष में आ गए तो समझ लीजिए कि केजरीवाल सीट भले ही एक भी न जीत सकें, लेकिन कई सीटों पर वे उलटफेर करने की हैसियत में आ जाएंगे. हालांकि इसका नुकसान होने का खतरा बीजेपी और सपा दोनों को ही हो सकता है, लेकिन चूंकि इस समय बीजेपी के पास सबसे अधिक सीटें हैं. लिहाजा राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि आप को जितना भी वोट मिलेगा, वो एक तरह से बीजेपी से छिटककर ही उसके पास आयेगा. उस सूरत में कई सीटों पर हार-जीत का अंतर महज कुछ सौ वोटों के भीतर ही रहेगा. ये भी हो सकता है सिर्फ इस वजह से भी बीजेपी की कुछ सीटें सपा की झोली में चली जाएं. 

शायद इसीलिए सियासी गलियारों में ये सवाल भी उठ रहा है कि अखिलेश यादव और केजरीवाल के बीच ऐन वक्त पर गठबंधन न करने का फैसला लेने के पीछे कहीं दोनों की सोची-समझी रणनीति तो नहीं है? क्योंकि केजरीवाल भी राजनीति के कम चतुर खिलाड़ी नहीं हैं और उन्हें लगा हो कि गठबंधन करने के बाद उनका असर कम हो जायेगा और वे बीजेपी के वोट में उतनी सेंध नहीं लगा पाएंगे, जितना कि वे अकेले लड़कर अखिलेश की मदद कर सकते हैं. हालांकि ये सिर्फ कयास हैं, क्योंकि राजनीति में अक्सर जो होता है, वो दिखता नहीं है. सार्वजनिक मंचों से भाषण देने और पर्दे के पीछे पक रही सियासी खिचड़ी में बहुत फर्क होता है, जो आमतौर पर लोगों को नहीं दिखता.

केजरीवाल ने आज लखनऊ में खुद को स्वच्छ राजनीति करने का पैरोकार बताते हुए बीजेपी और सपा पर निशाना साधते हुए कहा कि "यूपी में पहले की सरकारों में एक ने कब्रिस्तान बनवाया तो दूसरे ने सिर्फ श्मशान बनवाए." उन्होंने लोगों से अपील करते हुए कहा कि हमें मौका दे दीजिए, हम स्कूल और अस्पताल बनवाएंगे.  केजरीवाल ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर निशाना साधते हुए ये भी कहा, "पिछले 5 साल में योगी सरकार ने उत्तर प्रदेश में सिर्फ श्मशान घाट बनवाएं और न केवल श्मशान घाट बनवाए, बल्कि बड़ी संख्या में लोगों को वहां पहुंचाया. कोरोना के दौरान सबसे खराब व्यवस्था उत्तर प्रदेश में हुई थी." लेकिन बड़ा सवाल ये है कि कब्रिस्तान और श्मशान के मुद्दे को दोबारा जिंदा करके यूपी में केजरीवाल क्या तीसरी ताकत बन पाएंगे ?

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