देश के सबसे बड़े सूबे यानी उत्तरप्रदेश का सियासी संग्राम कल यानी गुरुवार से शुरु हो रहा है,जो ये तय करेगा कि सूबे की गद्दी पर दोबारा एक संन्यासी ही बैठेगा या फिर प्रदेश की जनता किसी और की ताजपोशी करने का मन बनाये बैठी है.सियासी दंगल में एक-दूसरे को कांटे की टक्कर दे रही बीजेपी और समाजवादी पार्टी ने वोटिंग से ठीक पहले लोगों को वादों की जो रेवड़ियां बांटी है,उसे देखकर तो ऐसा लगता है कि अगर वाकई ऐसा हो जाये,तो यूपी में न तो गरीबी रहेगी, न ही बेरोजगारी और यूपी का हर परिवार अगले पांच साल के लिए खुशहाल जिंदगी ही बसर करेगा.लेकिन ये सियासत के वो वादे हैं,जिनके पूरा न होने पर एक आम इंसान अपने हुक्मरान से ये पूछने की हिमाकत नहीं कर सकता कि आखिर ऐसा क्यों नहीं हुआ.


इस चुनाव का पहला इम्तिहान पश्चिमी यूपी के 11 जिलों में आने वाली उन 58 सीटों से हो रहा है,जिसे 'जाटलैंड' कहा जाता है.ये इलाका जितना बीजेपी के लिए महत्वपूर्ण है,उससे भी ज्यादा अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की जोड़ी के लिए इसलिये भी अहम है कि उन्हें इसी क्षेत्र से सबसे ज्यादा सीटें पाने की आस है.इन सीटों को लेकर बीजेपी जहां थोड़ी बेचैन दिख रही है,तो वहीं इन दो लड़कों की जोड़ी को लग रहा है कि वे पहले चरण की बाजी जीत ही जाएंगे.


हालांकि बीजेपी के लिए राहत की बात ये है कि सूबे के सबसे मुश्किल इलाके का चुनाव पहले चरण में ही निपट जाएगा और बाकी के छह चरणों में बची 345 सीटों पर वह फ्री स्टाइल कुश्ती लड़ने के मूड में आ जायेगी.लेकिन कहते हैं कि राजनीति में रखा पहला कदम और चुनाव का पहला चरण ही आगे की दशा-दिशा तय करने में बेहद मायने रखता है.ये सही है कि इस बार किसानों की इस जमीन से पिछले चुनाव की तरह सीटें हासिल करना बीजेपी के लिए अंगारों पर चलने से कम नहीं होगा लेकिन सियासी तस्वीर का दूसरा रुख ये भी है कि मुस्लिम वोटरों के लिए तो दावे से हर कोई कह देगा कि वे इन लड़कों के गठबंधन का ही साथ देंगे.लेकिन वेस्ट यूपी के 17 फीसदी जाटों का सौ फीसदी समर्थन इस जोड़ी को मिल ही जायेगा,ये कहना इसलिये मुश्किल है कि मोदी सरकार द्वारा लाये गए तीन कृषि कानूनों को वापस लेने के फैसले के बाद यहां का जाट कंफ्यूज तो है ही लेकिन वह बंटा हुआ भी नज़र आ रहा है.लिहाज़ा चुनाव से पहले हुए तमाम ओपिनियन सर्वे को अगर यहां की जनता झुठला दे,तो इसमें किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए.वैसे भी साल 2013 के मुजफ्फरनगर में हुए साम्प्रदायिक दंगों के बाद से ही वेस्ट यूपी को बीजेपी ने ध्रुवीकरण के सहारे अपना सबसे मजबूत गढ़ बना रखा है.


वेस्ट यूपी में विधानसभा की कुल 136 सीटें हैं और पिछले चुनाव में बीजेपी को यहां से 108 सीटें मिली थीं, जो उसकी उम्मीद से भी बहुत ज्यादा थीं. अगर पहले चरण में होने वाले मतदान की इन 58 सीटों की बात करें,तो साल 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने इनमें से 53 सीटों पर भगवा लहराकर तमाम चुनावी समीकरणों और आकलनों को ध्वस्त कर दिया था.तब समाजवादी पार्टी को सिर्फ 2 सीट मिली थी.मायावती की बीएसपी भी सिर्फ दो से आगे नहीं बढ़ पाई थी.लेकिन सबसे अधिक हैरान किया था आरएलडी यानी राष्ट्रीय लोकदल ने जिसके मुखिया अब चौधरी चरण सिंह के पोते और कई मर्तबा केंद्रीय मंत्री  रह चुके दिवंगत अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी हैं.तब आरएलडी के हिस्से सिर्फ एक सीट आई थी, जबकि इस इलाके में उस पार्टी को जाटों की पहली पसंद समझा जाता था.हालांकि कांग्रेस का तो तब भी यहां खाता तक नहीं खुला था.


लेकिन इन पांच सालों में बहुत पानी बह चुका है और जो जाट 2014 से लेकर 2019 तक बीजेपी के झंडाबरदार बने हुए थे,उनमें से अधिकांश अब उससे खफ़ा नजर आ रहे हैं.शायद इसीलिये अमित शाह से लेकर बीजेपी के तमाम दिग्गज़ नेताओं को उस इलाके में जाकर न सिर्फ पूरी ताकत झोंकनी पड़ी बल्कि 2013 के दंगों और कैराना से हिंदू परिवारों के पलायन की बार-बार याद भी दिलानी पड़ी.            दरअसल,तब उन दंगों ने जाटों व मुस्लिमों के बीच नफरत की दीवार खड़ी कर दी थी और जाटों को भी लगा कि आरएलडी से ज्यादा बड़ा वजूद बीजेपी का है और वही उनकी रक्षा करने का माद्दा भी रखती है.नतीजा ये हुआ कि अगले साल हुए लोकसभा चुनाव में और उसके बाद साल 2017 के विधानसभा चुनावों में इन्हीं जाटों ने बीजेपी की झोली सीटों से भरने में कोई कंजूसी नहीं बरती.हालांकि दोनों समुदायों के बीच खड़ी हुई उस दीवार को गिराना आज भी उतना आसान नहीं होता, अगर किसान आंदोलन न हुआ होता.उस आंदोलन ने ही इस खाई को पाट दिया और वे फिर से घुलने-मिलने लगे.


अखिलेश-जयंत की जोड़ी का गठबंधन भी इसी स्वार्थ पर ही बना है कि बीजेपी के प्रति किसानों के इस गुस्से को कैसे अपने पक्ष में ज्यादा से ज्यादा भुनाया जाए.चूंकि मुस्लिम तो सपा का परंपरागत वोट बैंक रहा ही है लेकिन अखिलेश को पता है कि जाट वोटों के बगैर यहां की कोई भी सीट हासिल करना बेहद मुश्किल है.लिहाज़ा,उन्होंने जाटों के बीच बरसों से अपना प्रभाव रखने वाली आरएलडी के जयंत चौधरी के साथ मिलकर बीजेपी के इस मजबूत किले में सेंध लगाने की सियासी रणनीति को अंजाम दिया. वैसे इस जोड़ी की रणनीति कितनी कामयाब होती है,ये तो फिलहाल कोई नहीं जानता लेकिन मायावती ने वेस्ट यूपी की इस सियासी फ़िल्म में एक बड़ा सस्पेंस ला दिया है, जिसे लेकर दोनों युवा नेता परेशान-हैरान हैं. लेकिन मायावती के इस फैसले से बीजेपी इसलिये खुश है कि जो काम वो चाहकर भी नहीं कर सकती थी,वही मायावती ने कर दिखाया.


दरअसल, बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने इस जोड़ी का खेल बिगाड़ने का काम कर दिया है.उन्होंने वेस्ट यूपी में सबसे अधिक 44 (यानी 31 प्रतिशत) मुस्लिम उम्मीदवार उतारकर जो कार्ड खेला है,उससे मुस्लिम वोटों का विभाजन होना तय है और राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इसका फायदा बीजेपी को ही मिलेगा.हालांकि  सपा-रालोद गठबंधन ने भी 34 मुस्लिमों को टिकट बांटे हैं.उसी तरह कांग्रेस ने भी इस इलाके में 34 मुस्लिम मैदान में उतारे हैं. लेकिन बीजेपी ने किसी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया है.लेकिन गौर करने वाली बात ये है कि 'जाटलैंड' में 28 ऐसी सीट हैं, जहां सपा, बसपा और कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवार आमने-सामने चुनाव लड़ रहे हैं. हैं.जाहिर है कि इससे इन सीटों पर मुस्लिम वोटों का बंटवारा होना निश्चित है और यही बीजेपी के लिए खुश होने की वजह बन गई है.इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि जिन सीटों परअखिलेश-जयंत की जोड़ी ने मुस्लिमों को टिकट नहीं दिया, वहां बीएसपी ने खासतौर पर मुसलमान उम्मीदवारों को मैदान में लाकर सारा समीकरण बदल दिया है. हालांकि कुछ सीटों पर कांग्रेस ने भी कमोबेश यही रणनीति अपनाई है. इसलिये बड़ा सवाल ये है कि इस जोड़ी को लखनऊ पहुंचने से रोकने के लिए क्या मायावती 'स्पीड ब्रेकर' बनने में कामयाब होंगी?


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