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यूपी चुनाव: अपने विरोधियों को वॉक ओवर देने की मजबूरी में आखिर क्यों हैं मायावती?

इस देश के दलितों व कमजोर वर्ग को सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने के मकसद से ही कांशीराम ने साल 1984 में बहुजन समाज पार्टी बनाई थी और तब पंजाब उनका पहला लक्ष्य था लेकिन उनकी पार्टी को पहली व बड़ी कामयाबी मिली उत्तरप्रदेश में. दिल्ली के इंद्रपुरी इलाके से IAS अफसर बनने का सपना लेकर एक युवती जब कांशीराम से उनका मार्गदर्शन लेने पहुंची थी, तब कांशीराम ने उसे जवाब दिया था कि "मैं तुम्हें वह नहीं बनाना चाहता, जो सोच रही हो. मैं तुम्हें वह बनाना चाहता हूं कि अनेकों IAS अफसर एक दस्तखत लेने के लिए तुम्हारे आगे-पीछे घूमें." कांशीराम की वह बात सच साबित हुई और मायावती देश के सबसे बड़े सूबे यूपी की चार बार मुख्यमंत्री बनीं. हालांकि इनमें से एक बार ही उन्होंने पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा किया. 

ये कहना शायद गलत नहीं होगा कि वही मायावती पिछले तकरीबन पौने पांच साल से खुद ही तय किया गया एक तरह का राजनीतिक वनवास बिता रही हैं. इस दौरान गाहे-बगाहे ही वे मीडिया के सामने नमूदार हुईं और अपना नपा-तुला लिखित बयान पढ़कर रुखसत हो जाया करती थीं. मसला, महंगाई से जुड़ा हो, किसान आंदोलन का हो या फिर लखीमपुर खीरी की घटना से जुड़ा हो, मायावती ने अपनी हर प्रतिक्रिया आक्रामक विपक्षी पार्टी की मुखिया होने के नाते नहीं, बल्कि बेहद सोच-समझकर और चुने हुए ऐसे शब्दों के मार्फत दी है, मानो उसकी तपिश में उन्हें अपनी सियासी जिंदगी झुलसने का खतरा दिखाई दे रहा हो. हालांकि राजनीतिक विश्लेषक इसकी एक बड़ी वजह सीबीआई में दर्ज उन मामलों को ही मानते हैं, जिसकी तलवार उनके सबसे नजदीकी रिश्तेदारों पर आज भी लटक रही है और न मालूम कब तक ऐसे ही लटकती रहेगी. 

लेकिन, संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के बाद आज़ाद भारत में दलितों की सबसे मुखर आवाज़ बनने वाले कांशीराम से राजनीति के हर गुर सीखकर यूपी की सत्ता संभाल चुकी मायावती इतनी अनाड़ी नहीं हैं कि उन्हें ये अहसास ही न हो कि राजनीति में निष्क्रिय होने का मतलब अपना अस्तित्व ही ख़त्म करने के समान है. लिहाज़ा, यूपी के विधानसभा चुनावों से पहले कल लखनऊ में उन्होंने मीडिया से मुखातिब होते हुए अपनी दोनों प्रमुख विरोधी पार्टियों-बीजेपी और समाजवादी पार्टी पर खुलकर हमला बोलने की आखिरकार हिम्मत जुटा ही ली. उन्होंने पूरे आत्मविश्वास के साथ ये कहने में भी कोई गुरेज नहीं किया कि आज प्रदेश में जितने विकास-कार्यों को पूरा करने का श्रेय बीजेपी या सपा के नेता ले रहे हैं, उन सबकी शुरुआत तो वे अपने मुख्यमंत्री काल यानी 2007 से 2012 के बीच ही  करवा चुकी थीं. लिहाज़ा, इन दोनों दलों के दावे झूठे हैं और वे सूबे की जनता को इस हक़ीक़त से वाकिफ कराएंगी. 

अगर यूपी में बसपा की राजनीति के इतिहास पर गौर करें, तो उसने बेहद खामोशी से दलितों के अलावा भी अपना वोट बैंक बनाने में कामयाबी हासिल की थी लेकिन वो उसे आगे बरकरार रखने में अपनी गलतियों के चलते ही कामयाब नहीं हो पाई. यूपी की जनता शायद अब भी इस बात को नहीं भूली होगी कि मायावती के पहले-दूसरे राज में ब्राह्मण-बनियों या दूसरी ऊंची जातियों के  लोगों को परेशान करने के लिए एस सी-एस टी एक्ट का कितना बेजा इस्तेमाल हुआ था, जिसके कारण अनेकों बेगुनाह लोगों को जेलों की बैरकों में अपनी जिंदगी बिताने पर मजबूर होना पड़ा था. तब तक मायावती अपने हर भाषण में सवर्णों के खिलाफ जहर उगला करती थीं. 

लेकिन बाद में, कुछ समझदार सलाहकारों ने उन्हें समझाया कि अगर सत्ता की कमान लंबे वक्त तक अपने हाथ में रखनी है, तो इस जहरीली भाषा को भी छोड़ना होगा और सोशल इंजीनियरिंग का भी नया प्रयोग करना होगा. इसे मजबूरी कहें या अक्लमंदी लेकिन मायावती ने उस सलाह को हाथोंहाथ लिया और उस पर अमल भी किया. यही वजह थी कि साल 2007 के विधानसभा चुनावों के वक़्त मायावती ने अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह 'हाथी' को लेकर एक नया नारा दिया था, जो उन्हें सत्ता की कुर्सी तक ले गया था. तब बीएसपी का नारा था-" ये हाथी नहीं गणेश है-ब्रह्मा, विष्णु , महेश है. " अगड़ी जातियों के वोटरों को इस एक स्लोगन ने इतना लुभाया कि उन्होंने बीएसपी को सीटें दिलाने में कोई कंजूसी नहीं की और मायावती को पूर्ण बहुमत देकर पांच साल के लिए प्रदेश की कमान सौंप दी. 

लेकिन पिछले दो चुनावों से मायावती को ऐसी करारी हार का कड़वा स्वाद चखना पड़ा है, जो उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा. यूपी में 86 सीटें सुरक्षित हैं, यानी वहां से कोई दलित उम्मीदवार ही विधायक बनेगा. लिहाज़ा, मायावती का सारा फ़ोकस अब इन्हीं सीटों पर है. लेकिन कहना मुश्किल है कि वे किस तरह से इन तमाम सीटों पर दलितों के खोए हुए विश्वास को हासिल करने में कामयाब हो पायेंगी. क्योंकि अब दलित वर्ग का अधिकांश हिस्सा या तो बीजेपी के साथ  है या फिर वो सपा को अपना रहनुमा समझ रहा है. 

हालांकि इससे पहले बीएसपी महासचिव सतीश मिश्रा  कई जिलों में ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित करवाकर ये नब्ज़ पकड़ने की कोशिश कर चुके हैं कि वे इस बार मायावती का साथ देंगे कि नहीं. उनका फीडबैक मायूस करने वाला ही है. इसलिये बड़ा सवाल ये है कि कभी अपने विरोधियों को धूल चटा देने वाली मायावती क्या इस बार उन्हें वाक ओवर देने के लिए एक घायल खिलाड़ी के तौर पर ही चुनावी-मैदान में उतर रही हैं?

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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