यूपी चुनाव: संन्यासी योगी और बाहुबलियों के बीच आखिर किसकी होगी जीत?
देश के सबसे बड़े सूबे उत्तरप्रदेश को सियासी लिहाज़ से थोड़ा अलग इसलिये भी माना जाता है क्योंकि पिछले तीन दशक से कुछ पहले ही यहां की सत्ता में काबिज होने के लिए नेताओं ने बाहुबलियों का सहारा लेने की शुरुआत की थी. लेकिन बाद के सालों में इन बाहुबलियों को ये अहसास हो गया कि जब उनके दम-खम पर ही कोई नेता चुनाव जीतकर विधायक, सांसद या मंत्री और यहां तक कि मुख्यमंत्री भी बन सकता है, तो क्यों न खुद ही राजनीतिक अखाड़े में कूदकर अपनी किस्मत आजमाई जाए. तब भी उनकी सोच यही थी कि अगर चुनाव हार भी गए, तब भी 'पावर पॉलिटिक्स' के इस गेम के खिलाड़ी तो बन ही जायेंगे. बस, वहीं से प्रदेश में राजनीति का अपराधीकरण होने की ऐसी शुरुआत हुई जो अब भी थमने का नाम नहीं ले रही है. पिछले तीन दशक में हुए तकरीबन हर विधानसभा चुनाव में इन बाहुबलियों ने राजनीति में अपनी ताकत का ऐसा इस्तेमाल किया कि उनमें से कई विधायक भी चुने गए और कुछ तो ऐसे भी रहे जो मंत्रीपद पाने में भी कामयाब हुए. उन्हें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ा कि सूबे में किस पार्टी की सरकार है.
लेकिन लगता तो यही है कि इस बार एक संन्यासी मुख्यमंत्री ऐसे किसी भी बाहुबली को लखनऊ तक पहुंचने से रोकने के लिए पीर मछंदरनाथ की सारी क्रियाओं का उपयोग करने से नहीं बचेगा. हालांकि इस बार भी यहां से कुछ ऐसे बाहुबली चुनावी-मैदान में हैं जिनका पुराना आपराधिक इतिहास रहा है लेकिन उन्हें किसी केस में अभी तक कोर्ट ने कोई सजा नहीं सुनाई है. वैसे तो राजनीति से जुर्म का साया खत्म करने की पहल करने के लिए हमें तो अपने सुप्रीम कोर्ट का ही शुक्रगुजार होना चाहिए जिसने करीब नौ साल पहले अपना ऐतिहासिक फैसला देकर राजनीति में अपराध के बढ़ते हुए वर्चस्व को ख़त्म किया. दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई 2013 को लिली थामस बनाम भारत सरकार के मामले की सुनवाई करते हुए यह फैसला दिया था कि अगर कोई विधायक, सांसद या फिर विधान परिषद का सदस्य किसी भी अपराध में दोषी पाया जाता है और यदि उसे कम से कम दो साल की सजा सुनाई जाती है तो ऐसी परिस्थिति में वह तुरंत ही न तो जन प्रतिनिधि रहेगा और न ही कोई अगला चुनाव लड़ने के योग्य समझा जाएगा.
अगर देखा जाए तो उसी फैसले का ये असर है कि किसी अपराध में दो साल या उससे अधिक की सजा झेलने वाले कई बाहुबली इस बार यूपी के चुनावी मैदान में नहीं हैं. लेकिन आपराधिक पृष्ठभूमि का रिकॉर्ड रखने वाले दागी उम्मीदवार तकरीबन सभी पार्टी में हैं लेकिन इसमें भी सपा अव्वल नंबर पर है. यूपी के बाहुबलियों में सबसे बड़ा नाम मुख्तार अंसारी का है, जो मऊ विधानसभा सीट से पिछली पांच बार से विधायक हैं और इनमें से तीन चुनाव तो उसने जेल के भीतर रहते हुए ही जीते हैं. वह पिछले करीब 17 सालों से जेल में ही बंद है. हत्या, अपहरण और फिरौती वसूलने जैसी दर्जनों संगीन वारदातों के आरोप में मुखतार अंसारी के खिलाफ 40 से ज़्यादा मुकदमें दर्ज हैं. फिर भी दबंगई इतनी है कि जेल में रहते हुए भी न सिर्फ चुनाव जीतते हैं बल्कि अंदर से ही उनके हर हुक्म को अंजाम भी दिया जाता है.
साल 2005 में मुख्तार अंसारी पर मऊ में साम्प्रदायिक दंगा भड़काने के आरोप लगे थे. साथ ही जेल में रहते हुए बीजेपी नेता कृष्णानंद राय और उनके सात साथियों की हत्या का आरोप भी अंसारी पर है. मुख्तार साल 2005 से ही जेल में है और पिछला विधानसभा चुनाव भी सलाखों के पीछे रहते हुए ही लड़ा और जीता भी. मुख्तार की जिंदगी 2005 मऊ दंगे के बाद से ही जेल में कट रही है. लेकिन इस बार बाहुबली विधायक मुख्तार अंसारी का ये मंसूबा पूरा नहीं हो पाया. लिहाज़ा मुख्तार के बेटे अब्बास अंसारी ने समाजवादी पार्टी गठबंधन के सहयोगी दल सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (SBSP) के उम्मीदवार के तौर पर मऊ सदर विधानसभा सीट से सोमवार को अपना नामांकन पत्र दाखिल किया है.
पर्चा भरने के बाद अब्बास अंसारी ने कहा, ‘‘प्रशासन मेरे पिताजी (मुख्तार अंसारी) के नामांकन में अड़चनें पैदा कर रहा है जिस वजह से मुझे पर्चा भरना पड़ा.’’ अब्बास अंसारी ने दावा किया, ‘‘मेरे पिता को असंवैधानिक तरीके से जेल में रखा गया है और नामांकन पत्र दाखिल करने में अड़चन पैदा की जा रही है. इसलिए मैंने सुभासपा के चुनाव चिह्न पर दो सेट में अपना नामांकन भरा है.’’
हालांकि मऊ विधानसभा सीट पर वोटिंग सबसे आखिरी चरण में यानी 7 मार्च को होगी लेकिन सबकी निगाहें इस सीट पर इसलिये लगी हैं कि सूबे का नामी बाहुबली जेल में रहते ही यहां से चुनाव जीतता आया है तो क्या बेटा इस विरासत को आगे ले जाने में कामयाब हो पायेगा? वैसे सुभासपा ने इस सीट से पहले मुख्तार अंसारी को ही अपना उम्मीदवार घोषित किया था. वह मऊ जनपद की सदर विधानसभा सीट से साल 1996 से ही लगातार पांच बार विधायक निर्वाचित हुए हैं. ये बता दें कि अब्बास अंसारी साल 2017 का विधानसभा चुनाव घोसी विधानसभा सीट से लड़े थे लेकिन बीजेपी के फागू चौहान ने उन्हें हराया था. यूपी के चुनावी मैदान में दूसरा बड़ा नाम आजम खान का है, जो रामपुर सीट से लगातार दसवीं बार अपनी किस्मत आजमा रहे हैं और जहां सोमवार को ही वोटिंग हुई है. वह भी जेल के भीतर से ही सपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं. बेशक इस सीट पर आजम खां ने 1980 से लेकर 2017 तक कभी हार का सामना नहीं किया. लेकिन कहते हैं कि सियासत में लोगों का मिज़ाज़ बदलने में भला कितनी देर लगती है.
लेकिन इस बार यूपी की इस चुनावी लड़ाई को इसलिये भी याद रखा जाएगा कि मुख्तार अंसारी की तरह ही आजम खां के बेटे अब्दुल्ला आजम खां भी मैदान में हैं. वे 2017 में विधायक बने थे लेकिन गलत उम्र बताने पर उनकी विधायकी कोर्ट ने रद्द कर दी और उन्हें जेल भी जाना पड़ा. दो साल जेल में बिताने के बाद वे पिछले दिनों ही जमानत पर बाहर आये है. अब वह भी सपा के टिकट पर ही स्वार सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. उनके सामने बीजेपी गठबंधन की तरफ से भी एक मुस्लिम को ही उम्मीवार बनाकर उनकी राहों में कांटे बिछा दिए गए हैं. एक और बाहुबली नेता का नाम पिछले कुछ सालों में यूपी की सियासत में सुर्खियों में रहा है और वह है, अखिलेश यादव की सरकार में खनन मंत्री रहे गायत्री प्रजापति का. सपा सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे गायत्री प्रसाद प्रजापति को गैंगरेप के मामले में पिछले साल 10 नवंबर को ही उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी. लिहाजा,वह चुनाव लड़ने के काबिल ही नहीं रहे.
लेकिन यूपी की राजनीति में एक नाम ऐसा भी रहा है जिसकी हर पार्टी की सरकार में तूती बोला करती थी और जेल के भीतर रहकर चुनाव भी जीता है. लेकिन आज वो भी आजीवन कारावास की सजा सलाखों के पीछे ही भुगत रहा है. उसका नाम है, अमरमणि त्रिपाठी. राजनीति की ताकत किस तरीके से एक महिला को अपने यौन-शोषण का औजार बना लेती है और फिर उसका क्या अंजाम होता है ये उसका सबसे जीवंत और वीभत्स उदाहरण है.
यूपी के लोगों को शायद याद होगा कि करीब दो दशक पहले मधुमिता शुक्ला ने अपनी वीर रस की कविताएं सुनाकर वहां ऐसी धूम मचा दी थी कि बेहद कम उम्र में ही उनका नाम प्रदेश की प्रमुख कवियित्रियों में शुमार हो गया था. लेकिन लगातार 6 बार विधायक रहे अमरमणि से मिलने के बाद उनकी तकदीर क्या बदली कि उन्हें आगे की जिंदगी ही नसीब नहीं हो पाई. बता दें कि 9 मई 2003 को लखनऊ की पेपरमिल कॉलोनी में कवियत्री मधुमिता शुक्ला की हत्या कर दी गई थी. हत्या के वक्त मधुमिता प्रेग्नेंट थीं और डीएनए रिपोर्ट में सामने आया था कि उनके पेट में पल रहा बच्चा अमरमणि का ही था.
मधुमिता शुक्ला की हत्या के मामले में कोर्ट ने 24 अक्टूबर 2007 को अमरमणि त्रिपाठी और मधुमणि त्रिपाठी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, जिसके बाद से दोनों जेल में हैं. ऐसे बाहुबलियों के और भी बहुत सारे नाम हैं लेकिन उनमें से बहुतेरे योगी सरकार आने के बाद या तो सूबा ही छोड़ गए या फिर अपने दड़बों में बंद रहने में ही अपनी खैरियत समझ रहे हैं. तो क्या ये समझा जाए कि इस बार यूपी की विधानसभा में कोई बाहुबली नहीं होगा?
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