UP Election 2022: लखीमपुर हिंसा की चार्जशीट से क्या बदल जायेगा सियासी माहौल?
Uttar Pradesh Assembly Elections 2022: पुरानी कहावत है कि सियासत भी शतरंज की बिसात से कम नहीं होती और जिसने इस खेल को समझ लिया,तो समझो की वो राजनीति की बाज़ी भी जीत गया लेकिन इसी बिसात के ऊपर कानून का भी एक डंडा होता है,जो अगर वक़्त पर चल गया,तो फिर उस बाज़ी को जीतने के लिए दिमाग के साथ शरीर की मशक्कत को भी दोगुना करना पड़ता है. चुनाव से ऐन पहले यूपी की राजनीति के कुछ ऐसे ही बदलते हुए रंग हमें देखने को मिल रहे हैं. यूपी की चुनावी सियासत में बदलाव लाने के लिए सोमवार का दिन बेहद अहम था. किसी के लिए बेहद मनहूस तो किसी के लिए खास लेकिन इसका फैसला तो आगामी मार्च में वहां की जनता की अदालत ही सुनाएगी कि उसके मन में आखिर क्या चल रहा था.
पिछले साल 3 अक्टूबर को लखीमपुर खीरी में किसानों को अपने वाहनों के जरिये कथित रुप से रौंद कर मार देने वाले जिस वीडियो को लोग शायद भुल चुके थे, उसे यूपी पुलिस की एसआईटी ने लोगों को फिर से याद दिला दिया है.सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में उस शर्मनाक हिंसा के मामले की जांच कर रही एसआईटी ने कानूनी प्रावधान के मुताबिक ठीक 90 दिन के भीतर कोर्ट में अपनी चार्ज शीट दाखिल करके ये जता दिया कि वो अपने फ़र्ज़ को निभाने में कोई कोताही नहीं बरत रही.हालांकि इसका अंतिम फैसला अदालत ही करेगी कि इस हिंसा के गुनहगार कौन और कितने लोग थे. लेकिन बड़ी बात ये है कि तथ्यों, सबूतों व गवाहों के बयान के आधार पर इस चार्जशीट में एसआईटी ने ये साबित करने की कोशिश की है उसने अपनी जांच पूरी निष्पक्षता से की है और इसकी परवाह बिल्कुल भी नहीं कि एक रसूखदार केंद्रीय गृह राज्य मंत्री का बेटा इस हत्याकांड का मुख्य अभियुक्त भला क्यों बन रहा है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई निगरानी कमेटी को एसआईटी ने ये भी अहसास कराने की कोशिश की है कि किसी भी राजनीतिक दबाव में आये बगैर उसने संविधान की उस शपथ का ईमानदारी से पालन किया है,जो उसने खाकी वर्दी पहनते वक़्त ली थी.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट एसआईटी द्वारा दी गई रिपोर्ट पर क्या संज्ञान लेगा और इस कानूनी लड़ाई का अंज़ाम क्या होगा, इस बारे में फिलहाल कोई भी कुछ कहने की हैसियत में नहीं है.लेकिन यूपी के चुनावी मौसम में ये चार्जशीट सियासी बम फटने से कम भी नहीं है.राजनीतिक विश्लेषकों की मानें, तो इसने बीजेपी को एक तरह से न सिर्फ बैक फुट पर ला दिया है,बल्कि ब्राह्मण समुदाय में योगी सरकार के प्रति बढ़ती हुई चिंगारी को और भी हवा दे दी है.
कहने को तो यूपी में ब्राह्मण वोट तकरीबन 14 फीसदी ही है लेकिन कम प्रतिशत में होने के बावजूद वह चुनावों में निर्णायक भूमिका अदा करता आया है क्योंकि उसे समाज में एक 'ओपिनियन मेकर' के रुप में देखा जाता है.हालांकि योगी सरकार की नीतियों से ख़फ़ा रहे ब्राह्मण समुदाय की नाराजगी को दूर करने के लिए बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने कोई कसर बाकी नहीं रखी.उसका ही नतीजा है कि पांच साल पहले चुनकर आये 46 ब्राह्मण विधायकों में से आज सरकार में आठ ब्राह्मण मंत्री हैं लेकिन फिर भी उनकी नाराजगी पूरी तरह से दूर नहीं हुई.इसकी वजह भी है,जिसे पार्टी नेतृत्व तो इसे एक तरह की गलतफहमी ही मानता है लेकिन उनका तर्क है कि उनकी अपनी ही सरकार के कार्यकाल में ब्राह्मणों को चुनकर निशाना बनाया गया है.हालांकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कई अवसरों पर ये साफ कर चुके हैं कि "कानून अपना काम करता है और वो किसी अपराधी का धर्म या जाति नहीं देखता."
लेकिन लखीमपुर खीरी की घटना में गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे आशीष मिश्रा का नाम सामने आने के बाद ब्राह्मण समुदाय को पूरी उम्मीद थी कि योगी सरकार उसे किसी तरह से बचा लेगी.चूंकि वो मामला ही इतना सनसनीखेज था कि चाहकर भी न तो योगी सरकार और न ही केंद्र सरकार इसमें किसी आरोपी को बचा सकती थी.ऊपर से पूरे मामले की जांच की निगरानी देश की शीर्ष अदालत ने अपने जिम्मे ले ली.ऐसी सूरत में सत्ता में बैठा भला ऐसा कौन सा शख्स होगा,जो जलती हुई आग में अपने हाथ आगे करे.
बताते हैं कि एसआईटी की चार्जशीट दाखिल होने से पहले ही यूपी बीजेपी के दिग्गज ब्राह्मण नेताओं को ये भनक लग चुकी थी कि उसमें आशीष मिश्र को मुख्य आरोपी बनाया जाने वाला है.शायद इसीलिए वे एकजुट हुए और पिछले हफ्ते दिल्ली आकर पार्टी नेतृत्व के आगे अपना दुखड़ा सुनाया कि अगर ऐसा होता है,तो बीजेपी के प्रति ब्राह्मणों की नाराजगी और ज्यादा बढ़ जाएगी,तब उसका मुकाबला कैसे करेंगे.लंबे विचार-विमर्श के बाद तय हुआ कि पार्टी के 16 ब्राह्मण नेताओं की समिति बनाई जाए,जो पूरे सूबे के ब्राह्मण समुदाय के बीच जाकर उन्हें ये समझाएंगे कि मोदी-योगी सरकार ने उनके लिए अब तक क्या-क्या किया और उनकी नाराजगी को दूर करेंगे.
लेकिन इसे पार्टी के भीतर ही दबाव की राजनीति समझा जाये या फिर नेतृत्व की मजबूरी कि न चाहते हुए भी इस समिति में गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा को भी रखना पड़ा. लिहाज़ा, सवाल उठता है कि अब वे ब्राह्मणों के बीच जाकर उन्हें क्या समझाएंगे.क्या यह कि उनकी अपनी ही सरकार की पुलिस ने उनके बेटे को इस मामले में गलत फंसाया है? या फिर ये कि उसने तो पार्टी लाइन का पालन करते हुए ही किसानों की आवाज़ को खामोश करने के लिए वह कदम उठाया था लेकिन पार्टी ने साथ नहीं दिया? इसके सिवा तीसरा तर्क और क्या देंगे जिसके आधार पर वे पहले की तरह ही अपनी पार्टी के लिए ब्राह्मणों का भरोसा हासिल कर सकें.
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