यूपी के सीएम योगी ने 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का फैसला लिया है। ज़ाहिर है सीएम योगी को उम्मीद होगी कि केंद्र में भी प्रचंड बहुमत वाली उन्हीं की पार्टी की मोदी सरकार है और सबकुछ उनकी मंशा के मुताबिक होगा लेकिन देश किसी इंसान या पार्टी की मंशा से नहीं संविधान से चलता है। योगी की ही पार्टी के केंद्रीय मंत्री ने सभी संसद में सीएम य़ोगी के फैसले को अमान्य करार दिया।
आरक्षण को लेकर यूपी में ऐसी ही कवायद राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्री रहने के वक्त से चल रही है। इसके बाद मुलायम सिंह यादव, मायावती और अखिलेश यादव भी अपने-अपने मुख्यमंत्री रहते हुए इस दांव को चल चुके हैं और हर दौर में आरक्षण का ये दांव नाकाम साबित हुआ। तो क्या सीएम योगी को नहीं पता था कि उनका आरक्षण का दांव संविधान विरोधी है या फिर सिर्फ सियासत के लिए प्रचंड बहुमत वाली योगी सरकार भी 'खेल' कर रही है ?
दरअसल, अगर ये हक की बात है तो संविधान के मुताबिक क्यों नहीं है ?, अलग-अलग दौर के मुख्यमंत्रियों ने संविधान के मुताबिक काम क्यों नहीं किया और अगर ये सियासत है तो संविधान को ताक पर रखकर ऐसी सियासत करने के बारे में शीर्ष नेता कैसे सोच पाते हैं।
आज राज्यसभा में भाजपा के तेज़तर्रार केंद्रीय मंत्री ने ही भाजपा के तेज़तर्रार मुख्यमंत्री के दांव को चित कर दिया। अति पिछड़ों को आरक्षण के दांव में भाजपा अपने ही अखाड़े में, अपनों के ही दांव-पेच में उलझ गई है। सीएम योगी ने दो दिन पहले ही यूपी की 17 अति पिछड़ी जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग से निकालकर अनुसूचित जाति में डालने का एलान किया और केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत ने भरी संसद में दो टूक योगी के फैसले को असंवैधानिक करार दे दिया।
योगी सरकार के इस फैसले पर विपक्ष पहले ही हमलावर है। जिस वोटबैंक में सीएम योगी सेंधमारी करना चाहते हैं, उसकी नुमाइंदगी का दम भरने वाली बसपा अध्यक्ष मायावती ने योगी के कदम को भाजपा की धोखेबाज़ी करार दिया है। अति पिछड़ों के आरक्षण के पीछे उनकी भलाई कितनी है ये तो नेता और सियासी दल बखूबी जानते हैं लेकिन इस पर सियासत का पूरा खेल यूपी में लंबे समय से चल रहा है। ये जानते हुए कि ऐसा करना राज्य सरकार के बूते के बाहर है। ये हक सिर्फ संसद को है।
वैसे इस मामले की इसकी शुरुआत हुई भाजपा के ही दौर में ही, सबसे पहले साल 2001 में तत्कालीन यूपी के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने सोशल जस्टिस कमिटी बनाई, फिर हुकुम सिंह की अध्यक्षता में जातियों की तीन श्रेणियां बनाई गईं, लेकिन अमल से पहले ही राजनाथ सिंह की सरकार चली गई।
इसके बाद फिर 2005 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम यादव ने 17 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का आदेश जारी किया। मुलायम के इस फैसले पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी। बाद में मुलायम सरकार भी बदल गई। मुलायम के बाद मायावती सरकार ने अनुसूचित जाति का कोटा बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार को खत लिखा और मामला ठंडे बस्ते में चला गया। मायावती के बाद अखिलेश यादव सरकार ने फिर पिता मुलायम की तर्ज पर बात आगे बढ़ाई, जो एक बार फिर हाईकोर्ट में जाकर अटक गई और अब योगी सरकार ने इस मामले पर फैसला लिया है।
आरक्षण पर ऐसा होना हैरानी की बात भी नहीं ये बात हर मुख्यमंत्री जानता था, इसके बावजूद एक बार फिर सीएम योगी ने ऐसी की कोशिश की। जिसे उनकी ही पार्टी के प्रचंड बहुमत वाली सरकार के मंत्री ने अमान्य बता दिया।
दरअसल, पिछड़ों की भलाई से ज्यादा शीर्ष नेताओं को उनके वोटबैंक अपने राजनीतिक दलों की भलाई की ज्यादा फिक्र रहती है। इसीलिए कई बार उनके फैसले संविधान के दायरे तोड़ने लगते हैं। दलगत फायदों से उठकर अगर सिर्फ जनता की भलाई की बात हो तो ना ही विरोधी असहमत होंगे, ना ही फैसले संविधान का दायरा तोड़ेंगे। अगर अनुसूचित जातियों को आरक्षण का माकूल फायदा नहीं मिल पा रहा है तो पहले इसकी व्यापक समीक्षा की जरूरत है। ऐसे फैसले करते वक्त अगर सियासी पार्टियां अपनी फिक्र छोड़ कर सच में जातियों का हित देखें तो बेहतर है। ताकि ना ही संविधान का कोई कायदा टूटे और ना ही अदालतों में फैसले खारिज किए जा सकें।