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कानून का रखवाला ही क्यों बन जाता है हवस मिटाने का अपराधी ?

Lalitpur Rape Case: साल 1993 में सनी देओल और मीनाक्षी शेषाद्रि की एक फिल्म आई थी-‘दामिनी’ जिसका निर्देशन राजकुमार संतोषी ने किया था. ये फिल्म थी तो एक क्राइम ड्रामा लेकिन उसमें समाज, पुलिस के बर्ताव और इंसाफ मिलने में होने वाली देरी के सच को बखूबी पेश किया गया था. उस फिल्म में मीनाक्षी का एक बेहतरीन संवाद था. वे अपनी नौकरानी के साथ हुए बलात्कार के लिए समाज और पुलिस सभी को दोषी बताते हुए कहती है, "ये जिंदा इंसान को नोंच खाते हैं. मंदिर में देवी को कपड़े पहनाते हैं और मंदिर के बाहर महिलाओं को नंगा किया जाता है."

कानून के रखवाले ने नाबालिग को बनाया हवस का शिकार
अब करीब 29 साल बाद उस फिल्म के इस संवाद को यूपी की पुलिस ने सच कर दिखाया है. पुलिस थाने को कानून का मंदिर कहा जाता है, जबकि अदालतों को इंसाफ का मंदिर माना जाता है. इस घटना में कानून के मंदिर के बाहर नहीं बल्कि उसके अंदर ही एक नाबालिग व मजबूर लड़की की आबरू लूटी गई है. कानून का रखवाला ही जब अपनी हवस बुझाने के लिये शैतानियत पर उतर आये, तो जरा सोचिए कि उस प्रदेश में महिलाएं कितनी सुरक्षित होंगी? यूपी पुलिस की खाकी को दागदार करने का ये ताजा मामला ललितपुर का है, जहां एसएचओ ने एक नाबालिग को थाने में ही अपनी हवस का शिकार बनाया. कड़ी मशक्कत के बाद पुलिस ने हालांकि इस थानाध्यक्ष तिलकधारी सरोज को गिरफ्तार कर लिया है. लेकिन इस घटना ने ख़ाकी वर्दी में छुपे हैवानियत के चेहरे को उजागर किया है. साथ ही इस बहाने प्रदेश में कानून-व्यवस्था की बदतर होती हालत का वह सच भी सामने आ गया जो बुलडोज़र के शोर में शायद कहीं दबकर रह गया था.

वैसे योगी सरकार के दूसरे कार्यकाल में इस तरह की ये पहली घटना है, लेकिन इसे ज्यादा खतरनाक इसलिए कहा जायेगा कि 13 साल की लड़की के साथ हैवानियत की ये शर्मनाक घटना थाने के भीतर हुई है. इसे अंजाम देने वाला भी कोई आम अपराधी नहीं बल्कि एक वर्दीधारी है, जिसके कंधों पर कानून के साथ ही आम लोगों की रक्षा की जिम्मेदारी है. ज्यादा हैरानी की बात तो ये है कि वो नाबालिग लड़की पहले ही सामूहिक दुष्कर्म का शिकार हुई थी और उसकी शिकायत दर्ज कराने के लिए ही थाने पहुंची थी. लेकिन थानाध्यक्ष ने उसे अपने कमरे में ले जाकर दुष्कर्म किया और थाने का पूरा स्टाफ तमाशबीन बना रहा.

पुलिस के बर्ताव से लोग नहीं रहते खुश
ये पूरा मामला पुलिस की निष्ठुरता और नृशंसता की ऐसी शर्मनाक तस्वीर पेश करता है, जो एक आम इंसान के मन में खाकी वर्दी के लिए नफरत, खौफ और अपमान का भाव पैदा करता है. यही वजह है कि आईपीएस अफसरों को अगर छोड़ दें, तो देश में अधिकांश सभ्य लोग आज भी किसी पुलिस वाले को सम्मान की नजर से नहीं देख पाते और न ही उनसे मित्रता करने की सोचते हैं. देश की राजधानी को यदि छोड़ दें, तो अधिकांश राज्यों की पुलिस की मानसिकता और थाने में अपनी शिकायत लेकर पहुंचने वाले लोगों के प्रति उनके बर्ताव को आप अच्छा नहीं कह सकते.

ललितपुर के इस मामले में अदालत तो जुर्म की संगीनता को देखते हुए अपने फैसले के जरिये उस नाबालिग़ को इंसाफ देगी ही. लेकिन उससे पहले योगी सरकार को पुलिस सुधार को लेकर कुछ ऐसे सख्त फैसले लेने होंगे, जिसका संदेश निचले स्तर तक जाए और कोई खाकीधारी दोबारा ऐसा करने की ज़ुर्रत न कर पाए. महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को लेकर हर सरकार जीरो टॉलरेन्स नीति अपनाने का दावा करती है. लेकिन ऐसी एक भी घटना उस दावे की पोल खोलकर रख दे, तो इसे सिस्टम की बड़ी खामी नहीं, तो और क्या कहेंगे?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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