उत्तरप्रदेश की रामपुर और आजमगढ़ लोकसभा सीटों पर होने वाले उप चुनाव को लेकर समाजवादी पार्टी ने अपना पुराना मुस्लिम-यादव दांव खेला है. दोनों सीटों पर सपा का कब्जा रहा है लेकिन इस बार रामपुर में बीजेपी से सीधा मुकाबला होने के चलते इस सीट को बचाये रखना सपा के लिए एक बड़ी चुनौती बनती दिख रही है. रामपुर को सपा नेता आजम खान का मजबूत गढ़ माना जाता है जबकि आजमगढ़ में मुलायम परिवार का कब्जा रहा है. रामपुर सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला जिला है.
1952 से लेकर अब तक पिछले 70 साल का चुनाव रिकॉर्ड देखें तो कुल 17 बार लोकसभा का चुनाव हुआ, जिसमें सबसे ज्यादा 11 बार मुस्लिम उम्मीदवार की जीत हुई. कांग्रेस ने 8 बार और बीजेपी-एसपी ने 3-3 बार यहां का लोकसभा का चुनाव जीता है. रामपुर में बीएसपी एक बार भी नहीं जीती. साल 1999 के बाद से कांग्रेस भी यहां कोई चुनाव नहीं जीत पाई है. इस बार भी बीएसपी और कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारे हैं. इसलिये सपा और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला है.
बीजेपी इन दोनों ही सीटों पर हर हाल में 'कमल खिलाने' की कवायद में है. वहीं, सपा किसी भी सूरत में अपने हाथों से इसे निकलने देना नहीं चाहती है. इसलिए समाजवादी पार्टी ने आजमगढ़ में 'यादव' कार्ड तो रामपुर में मुस्लिम दांव खेला है. अखिलेश यादव दोनों ही संसदीय सीट पर अपने वर्चस्व को बनाए रखना चाहते हैं इसलिए उन्होंने यादव-मुस्लिम समीकरण का दांव चला है. लेकिन क्या वो 2019 जैसा नतीजा दोहरा पाएंगे ? बीएसपी ने शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को आजमगढ़ के चुनावी मैदान में उतारा है. अब देखना है कि अखिलेश यादव आजमगढ़ और रामपुर में अपनी सियासी दावेदारी कैसे पेश करते हैं.
रामपुर में सबसे पहले 1991 में बीजेपी के टिकट पर राजेन्द्र कुमार शर्मा ने जीत का खाता खोला था. फिर 1998 में बीजेपी ने मुस्लिम चेहरे मुख्तार अब्बास नकवी को मैदान में उतारा और वो जीत गए. साल 2014 में बीजेपी के टिकट पर नेपाल सिंह ने जीत हासिल की. एसपी भी 3 बार ये सीट जीत चुकी है. पहली बार 2004 में जया प्रदा ने एसपी को जीत दिलाई थी. दूसरी बार भी 2009 में जयाप्रदा की जीत हुई. फिर 2019 में आजम खान एसपी के टिकट पर सांसद बने थे.
वहीं 1952 के बाद से सबसे ज्यादा 8 बार रामपुर लोकसभा सीट जीतने वाली कांग्रेस ने 1999 के बाद यहां से जीत का स्वाद नहीं चखा. रामपुर लोकसभा सीट की जीत और कांग्रेस के बीच एक और रोचक पहलू ये भी है कि यहां से कांग्रेस का आठों बार विजयी उम्मीदवार कोई न कोई मुस्लिम चेहरा ही रहा है.
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में रामपुर से आजम खान 52% वोट पाकर भले ही जीत गए थे, लेकिन बीजेपी उम्मीदवार जया प्रदा ने तगड़ी टक्कर दी थी. उन्हें 42% वोट मिले थे. 2014 में बीजेपी के टिकट पर डॉक्टर नेपाल सिंह 37% वोट पाकर जीते थे, लेकिन एसपी के नसीर अहमद खान ने 35% वोटों के साथ कड़ी चुनौती दी थी.
पुराने रिकॉर्ड और बीएसपी का घटता जनाधार 'मायावती के रामपुर से चुनाव न लड़ने' के फैसले का समर्थन करते हैं, लेकिन क्या वजह इतनी भर है या फिर इसके पीछे कोई हिडन एजेंडा भी है.राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि रामपुर से बीएसपी के चुनाव न लड़ने से बीजेपी को फायदा मिलना लगभग तय है.
गौरतलब है कि यूपी विधानसभा चुनाव में बीएसपी पर बीजेपी की 'बी' टीम होने का आरोप लगा था. कई सर्वे में भी ये बात सामने आई थी कि मायावती का कोर वोटर कहा जाने वाला जाटव समुदाय बीजेपी की तरफ शिफ्ट हुआ है. बीजेपी की सीट और वोट प्रतिशत बढ़ने में जाटव वोटर की बड़ी भूमिका रही. रामपुर में 13% एससी समुदाय के लोग हैं. अगर विधानसभा वाला ट्रेंड लोकसभा उपचुनाव में भी रिपीट हुआ तो मायावती के चुनाव न लड़ने से रामपुर सीट पर सीधा फायदा बीजेपी को हो सकता है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)