उत्तर प्रदेश शहरी निकाय चुनावों में बीजेपी का दबदबा रहा. बीजेपी ने यूपी के सभी नगर निगम में मेयर की सीटें जीत ली. बाकी नगर पालिका और नगर पंचायत में भी बीजेपी का जलवा रहा. ये एक तरह से दिखाता है कि यहां के लोगों में योगी आदित्यनाथ का प्रभाव सीएम बनने के 6 साल बाद भी बना हुआ है. हालांकि इन सबके बीच ये भी सवाल है कि क्या निकाय चुनावों को दलीय आधार पर ज्यादा महत्व देना कितना सही है.
निकाय चुनावों के आधार पर दलों को आंकना ग़लत
यूपी के निकाय चुनाव के बारे में एक बात जो लगातार अनदेखी रह जाती है, वह ये है कि लड़े भले ही ये दलीय आधार पर गए हों, लेकिन इनमें हमने देखा है कि निर्दलीय भी भारी संख्या में जीत कर आए हैं. दलीय राजनीति की वजह से सभी दल अपने हिसाब से इसका आकलन भी करते हैं और अपने हिसाब से इसका ढोल भी बजाते हैं, लेकिन यह चुनाव मुख्यतः शहर के ढांचे और सुविधाओं पर ही केंद्रित होता है. जैसे, नाले की हालत क्या है, खड़ंजा कैसा है, सड़कें कैसी हैं वगैरह के मुद्दे ही इनमें हावी रहते हैं.
दलीय आधार पर जब चुनाव होने लगे तो ही प्रादेशिक और राष्ट्रीय मुद्दे इसमें उभरने लगे. बीजेपी तब भी मेयर का चुनाव जीतती थी, जब वह नंबर तीन की पार्टी होती थी. चाहे वह लखनऊ, बरेली या आगरा की हो. बड़ी बात है कि निर्दलीयों की जो बड़ी संख्या में जीत हुई है, उसको कैसे देखा जाए? दरअसल, निकाय चुनाव को दलीय आधार से नहीं जोड़ने की जरूरत है. नाली और खड़ंजे का दलीय राजनीति से क्या संबंध है, कोई संबंध नहीं होता है. वह तो स्थानीय लोगों और वहां के नेतृत्व की बात है. हालांकि, बीजेपी के लिए यह दावा करना अब आसान होगा कि वह सबसे बड़ी पार्टी है और उसने सारी सीटें जो मेयर की हैं, उन्हें जीत ली हैं. इसका लेकिन कोई खास मतलब नहीं है. स्थानीय स्तर पर ही इन चुनावों को देखना चाहिए.
बीजेपी की ये खूबी है कि वह हरेक चुनाव को पूरी गंभीरता से लड़ती है. वह चाहे शहरी निकाय का चुनाव हो, पंचायत का चुनाव हो, प्रदेश का चुनाव हो या फिर देश का चुनाव हो. सबसे बड़ी बात है कि सपा-बसपा ने इसको गंभीरता से लिया ही नहीं. यूपी में निकाय चुनाव हो रहे थे और अखिलेश-मायावती कर्नाटक घूम रहे थे, जबकि उनका तो वहां कोई स्टेक भी नहीं है. बीएसपी ने तो वहां 135 उम्मीदवार खड़े कर दिए थे. दिलचस्प होगा देखना कि उनको कितनी सीटें या क्या मत मिले? जहां आपकी जमीन है यानी उत्तर प्रदेश में औऱ वहां चुनाव है, आपका स्टेक है तो उसको उसी गंभीरता से लेना भी चाहिए.
नगर पंचायतों में स्थानीय मुद्दे रहते हैं हावी
नगर पंचायत, अध्यक्ष के साथ वार्डों के जो चुनाव होते हैं, वहां बीजेपी को ठीक-ठाक नुकसान हो जाता है. इसलिए नुकसान होता है कि वहां राम-मंदिर, अनुच्छेद 370 और हिंदू-मुस्लिम टाइप के मुद्दे काम नहीं करते. वहां तो लड़ाई सड़क और नाली की है, खड़ंजे की है. कोई रिक्शा वाला नगर पंचायत में टोकन के लिए जाएगा, तो वह अपना आदमी खोजेगा, उसी टाइप का. वह समस्या योगीजी से हल नहीं होगी, बल्कि स्थानीय पार्षद या प्रधान से हल होगी. स्थानीय मुद्दे और मसले वहां हावी होते हैं और इसलिए नतीजे भी वैसे ही आते हैं. अब आप सोचिए कि अगर 158 निर्दलीय नगर पंचायत के अध्यक्ष जीतकर आ रहे हैं और 180 से ज्यादा बीजेपी के जीत रहे हैं, तो आप समझ सकते हैं कि क्या स्थिति है? यहां स्थानीय मुद्दे हावी रहे और जो बड़े शहर है, वहां हो सकता है कि कुछ और प्रादेशिक या फिर राष्ट्रीय मुद्दे हावी हो गए हों. एक कारण यह भी हो सकता है कि बीजेपी के उम्मीदवार दूसरों के मुकाबले अच्छे हों.
AAP और AIMIM की नहीं, प्रत्याशियों की है जीत
जिन इलाकों में आम आदमी पार्टी या ओवैसी की पार्टी जीती है, वह इन दलों से अधिक प्रत्याशियों की व्यक्तिगत जीत है. वे निर्दलीय रहे होते, तब भी जीतते. यह पार्टी के ब्रैंड की जीत नहीं है, उम्मीदवारों के ब्रैंड की विजय है. निकाय चुनाव में जीत से प्रदेश की राजनीति बदल जाएगी, ऐसा कुछ नहीं है. जहां तक AAP का सवाल है, तो उसने कर्नाटक में भी 209 उम्मीदवार खड़े किए थे. उन्होंने यूपी निकाय चुनाव में बेहतर उम्मीदवारों को पकड़ा होगा, तो उनमें से कुछ जीत गए. राज्य और देश की राजनीति निकाय और पंचायत की चुनावी राजनीति से अलग होती है. इसको उसी संदर्भ में देखना चाहिए. एक और बात समझनी चाहिए. दक्षिण और उत्तर भारत की राजनीति में एक जो मुख्य अंतर है, वह ये है कि वहां जमीनी मुद्दों पर राजनीति अधिक होती है. कर्नाटक का जो बीजेपी का स्थानीय नेतृत्व था, उन्होंने हिजाब या बजरंग दल वगैरह वाली बात नहीं की. अमित शाह जब वहां पहुंचे, तो ये मुद्दा बना. बोम्मई ने भी इसका मसला नहीं उठाया, न येदियुरप्पा ने उठाया, न किसी स्थानीय नेता ने. वहां सांप्रदायिक मुद्दे इसीलिए नहीं चले.
यूपी में सांप्रदायिक मुद्दे चलेंगे और ओवैसी की पार्टी की एंट्री को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए. गौर करने की बात यह होगी कि 2024 तक राजनीति बदलती है या ऐसी ही रहती है. अभी करीब साल भर का समय है और दोनों ही सरकारों के प्रदर्शन पर भी निर्भर करेगा. कर्नाटक का चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण है कि वहां नफरत की राजनीति को नकारा गया है और वहां जनता की समस्याओं की बात हुई है. रोजी-रोजगार और मकान के मसले हिंदू-मुस्लिम करने से हल नहीं होते हैं.
कर्नाटक की हार के बाद बीजेपी अपनी अंदरूनी राजनीति में कुछ फेरबदल कर सकती है. चुनाव से एक दिन पहले प्रधानमंत्री ने जो अपील जारी की थी, उसमें उन्होंने खुद के लिए आशीर्वाद मांगा था. फिर भी, बीजेपी हारी और ऐसा-वैसा नहीं हारी. कांग्रेस ने ढाई गुना सीटें जीतीं, 1989 के बाद किसी पार्टी को इतनी सीटें पहली बार मिली हैं. राष्ट्रीय राजनीति में उसका संकेत तो जाएगा. अंदरूनी संघर्ष भी देखने को मिल सकता है. अगले चुनाव की तैयारी में योगी आदित्यनाथ का क्या रोल रहेगा, उनको लोकसभा चुनाव में फ्री हैंड मिलेगा या नहीं, ये सब कुछ देखना पड़ेगा. ब्रैंड योगी तो फिलहाल सुरक्षित है और प्रधानमंत्री का जो कर्नाटक से शुरू हुआ है, वह कहां तक जाता है, ये भी देखने की बात होगी.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)