नगर निकाय चुनाव में जीत पार्टियों के लिए राजनीतिक और आर्थिक तौर से है कितना अहम, यूपी के समीकरणों से समझें
यूपी में नगर निकायों के चुनाव नतीजों में एक बार फिर बीजेपी का दबदबा रहा. स्थानीय निकायों के चुनावों का राजनीतिक मायने कुछ भी हो, एक अर्थशास्त्र भी इनके पीछे होता है. आखिर क्यों इन चुनावों को इतनी अहमियत दी जाती है और आखिर क्या बदल जाता है, किसी भी दल के इन चुनावों को जीतने के बाद? नगर निगमों में पैसे कहां से आते हैं, कैसे खर्च होते हैं और उन पर किसका अधिकार होता है, इन बातों को समझने के लिए इनकी कार्यप्रणाली को समझना जरूरी है.
नगर निकायों की व्यवस्था तीन स्तरीय
उत्तर प्रदेश में निकाय चुनावों के नतीजे पर चर्चा करने से पहले जरा इसके ढांचे को समझना चाहिए. उत्तर प्रदेश में तीन तरह की व्यवस्था है. एक तो नगर निगम है, जो बड़े शहरों में है. नगर पालिकाएं है जो छोटे शहरों औऱ कस्बों में है और फिर नगर पंचायत है. इसके नतीजों का असर देखना जरूरी होता है. इसलिए कि ये बताते हैं कि एकदम जमीनी स्तर पर जो व्यवस्थाएं हैं और सरकार के तौर-तरीकों को लेकर जनता के मन में क्या चल रहा है? राजनीतिक दल इन चुनावों के जरिए जमीनी स्तर पर अपने पार्टी संगठन की सक्रियता भी जांच कर लेते हैं. यूपी में नगर निकाय चुनाव को सेमीफाइनल इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि 2024 के आम चुनाव अब 12 महीने से भी कम समय बचा है. जनता का रुझान क्या बन रहा है, सत्ताधारी पार्टी को चुनौती कैसे मिल रही है और सांगठनिक सक्रियता की पहुंच नीचे तक कैसी है, इसको भी जांचने का जरिया स्थानीय निकाय के चुनाव होते हैं. इसका एक और पक्ष है. विपक्षी दल अक्सर आरोप लगाते हैं कि ईवीएम की जगह अगर बैलेट-पेपर से चुनाव हो, तो फर्क पड़ेगा. इस चुनाव में अगर नगर-निगम को छोड़ दें, तो नगर पंचायत और बाकी चुनाव बैलट पेपर पर ही होते हैं, तो ये भी एक फर्क पड़ेगा. अगर नतीजों में कुछ फर्क पड़ेगा, तो विपक्षी दल ईवीएम को लेकर और भी मुखर होंगे और वोकल होंगे.
यूपी नगर निकायों का अर्थशास्त्र
उत्तर प्रदेश की स्थिति थोड़ी अलग है. यह दिल्ली और मुंबई से अलग है. यहां पर मेयर या चेयरमैन के पास वो फाइनांशियल पावर नहीं होती हैं, जो दिल्ली या मुंबई जैसे शहर के मेयर के पास होती है. यहां पर नगर निगमों का जो एक्सक्यूटिव ऑफिसर यानी अधिशासी अधिकारी होता है, उसके पास अधिक शक्तियां होती हैं. ये अधिकारी नौकरशाही से आते हैं. पहले ये प्रोविंशियल सर्विसेज के अधिकारी होते थे, लेकिन आज कल आईएएस ऑफिसर भी इन जगहों पर भेजे जाते हैं. वहीं नगर पंचायतों में स्थानीय प्रशासन के कैडर के ही अधिकारी होते हैं. जब आईएएस ऑफिसर आते हैं, तो उनके पास वित्तीय ताकत भी होती है, तो मेयर अक्सर सजेस्टिव मोड में ही रहते हैं. नगर निगमों में आईएएस ऑफिसर या फिर बहुत सीनियर पीसीएस ऑफिसर होता है. लेकिन मेयर के पास एक कमिटी होती है, जिसे चीजों को ओवरव्यू करने की ताकत होती है, हालांकि प्रत्यक्ष वित्तीय ताकत नहीं होती है.
यह कहना कि किसी भी दल की वित्तीय ताकत में बहुत इजाफा होगा, ठीक नहीं होगा. यहां बहुतेरे बंधन हैं, नियंत्रण है. अगर कोई मेयर अधिकारी के साथ तालमेल बना ले गया, तो फिर मामला उसके फेवर में होता है, वरना विपक्षी दल का मेयर अगर बना तो दिक्कत ही होगी. संघर्ष ही चलता रहेगा. हालांकि यूपी में तो अभी तक देखा गया है कि मेयर की सीटों पर बीजेपी का ही दबदबा हमेशा रहा है. इस बार भी चुनाव उसी के पक्ष में गया है. फर्क जरूर ये पड़ता है कि पार्षदों या वार्ड मेंबर के पास निधि होती है, जैसे विधायक या सांसद निधि हुई. वैसे ही पार्षदों की निधि होती है, तो वह कितना काम करा पा रहा है, पार्टी उसका कितना प्रयोग कर पा रही है, इससे फर्क पड़ता है.
बीएमसी या एमसीडी से अलग हैं यूपी के नगर निगम
यूपी के नगर निगम और बीएमसी यानी बृहन्मुंबई महानगर पालिका या दिल्ली की एमसीडी में अंतर है. बीएमसी के बारे में तो कहा जाता है कि उसका बजट एक तरफ और सारे महाराष्ट्र का बजट एक तरफ. बात फर्क की है तो पहला फर्क तो यही है कि मेयर के पास वित्तीय ताकत नहीं है. दूसरा फर्क तो यही है कि मुंबई में लैंड फी लेने से लीज पर देने तक का पावर नगरपालिका को है. उत्तर प्रदेश में जहां कहीं भी नगर निगम है, वहां डेवलपमेंट अथॉरिटी भी है. विकास प्राधिकरण भी है. शहर का बड़ा हिस्सा इनके ही अंदर आता है. इनका पूरा जो बॉर्डर है, वह तकरीबन नगर निगम के बराबर आ गया है. अब यहां पर नक्शा पास करने की अथॉरिटी है, वह प्राधिकरण के पास है. यह सबसे बड़ा फर्क है. इसके होता यह है कि नगर निगम के हाथ बंध जाते हैं. नालों की उड़ाही, स्ट्रीट लाइट और गलियों के खड़ंजे बनाने के अलावा इनके पास सचमुच का काम कोई रह नहीं जाता. कुछ इनके मार्केट जरूर होते हैं, जिनके रेंट वगैरह इनके पास आते हैं.
एक बात है कि इनके पास लैंड बैंक बहुत बड़ा होता है. दिक्कत ये होती है कि इनमें से अधिकतर जमीनों पर अवैध कब्जा होता है. वह अवैध कब्जा भी राजनीतिक रूप से प्रभावशाली व्यक्तियों का या ऐसे समूह का होता है, जिन्हें खाली कराना बड़ा मुश्किल होता है, क्योंकि यहां 'रूल ऑफ लॉ' से पहले तो 'रूल ऑफ पॉलिटिक्स' आ जाती है. आप लखनऊ के एग्जीक्यूटिव ऑफिसर का वह बयान याद कीजिए जिसमें उन्होंने कहा था कि लगभग 2000 करोड़ रुपये मूल्य की जमीन अवैध कब्जे में फंसी है. इन वजहों से ही यहां के नगर निगम उतने प्रभावी नहीं होते, जितने एमसीडी या बीएमसी हैं.
तीन तरीके से निगम उगाहता है फंड
नगर निगमों को फंड तीन तरह से आते हैं. सबसे पहले उनकी खुद की प्रॉपर्टी से आय होती है, जो रेंट से जुड़ा है. गृह कर, वाटर टैक्स और तमाम तरह के टैक्स से राजस्व आता है. दूसरा हिस्सा राज्य सरकार अपने बजट से देती है. तीसरा हिस्सा आजकल केंद्र सरकार की तरफ से आ रहा है. जैसे, जोर-शोर से स्मार्ट सिटी का प्रोजेक्ट चल रहा है. इसमें केंद्र सरकार की तरफ से पैसा आता है. इसके अलावा होर्डिंग और विज्ञापन से पैसा आता है, जो सार्वजनिक जगहों पर लगता है. इनको खर्च करने के लिए यानी अप्रूवल देने के लिए मेयर और पार्षदों की कमेटी होती है. हालांकि, असली पावर या ताकत जो होती है, वह प्रशासन के पास ही होता है. जिसे हम एग्जीक्यूटिव ऑफिसर या अधिशासी अधिकारी कहते हैं, वही उसका जिम्मेदार होता है. मेयर और पार्षदों की भूमिका सलाहकार की तरह की होती है.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)