नीतिशास्त्र के मशहूर विद्ववान आचार्य चाणक्य ने लिखा है-"राजनीति दरअसल,शतरंज की वो बिसात है जिसका आखिरी मोहरा भी कभी बेकार नहीं होता,बल्कि वही अक्सर आपको विजयी भी बना देता है,इसलिये उसके महत्व को कम समझने की भूल करने वाला इंसान राजनीति में कभी सफल नहीं हो सकता." महज दो दिन के बाद इस देश के सबसे बड़े सूबे उत्तरप्रदेश की जनता ये तय करने वाली है कि अगले पांच साल के लिए वह अपनी 'भाग्यविधाता' किस पार्टी को बनाने वाली है. लेकिन महत्वपूर्ण बात ये है कि 10 फरवरी को इसका आगाज़ प्रदेश की उस जमीन से हो रहा है,जिसे हम 'जाटलैंड' यानी पश्चिमी यूपी कहते हैं,जहां किसान आंदोलन से लगी आग की तपिश आज भी इस इलाके में पूरी तरह से ठंडी नहीं हुई है, पिछले चुनाव में बीजेपी को सीटों की झोली भरकर देने वाले इस इलाके से हालांकि अब बीजेपी के बड़े नेता भी इतने आश्वस्त नहीं हैं कि ये साल 2017 का इतिहास दोहराएगा भी या नहीं.इसकी वजह भी है क्योंकि बीजेपी नेता जिन्हें दो लड़कों की जोड़ी कहते हैं,उन्हीं अखिलेश यादव और जयंत चौधरी ने किसानों के गुस्से को अपने पक्ष में करने के लिए भरपूर ताकत लगा दी है.हालांकि इस सच को तो कोई नहीं जानता कि मतदाता के दिमाग में क्या है और वह 10 तारीख को वोटिंग मशीन का कौन-सा बटन दबाएगा.
लेकिन वहां से जो लोग निष्पक्ष होकर अपनी बात बता रहे हैं,उनके मुताबिक इस बार मुकाबला बेहद कांटे का है.दो लड़कों की जोड़ी अगर यहां आगे निकल जाए, तो इसमें हैरानी इसलिये नहीं होनी चाहिए कि यहां कर किसान इस बार अपना गुस्सा निकालने के लिए ही वोट करेंगे. बीजेपी के नेता भले ही इसे खुलकर न स्वीकारें लेकिन वे वेस्ट यूपी में दौड़ रहे इस अंडर करंट से वाकिफ़ हैं कि पहले चरण में उन्हें शायद अपनी उम्मीदों से कम ही सीटें मिल पाएं. लेकिन बीजेपी को तो निर्वाचन आयोग का आभारी इसलिये भी होना चाहिए कि उसने पहले चरण में ही एक साथ इन 58 सीटों पर चुनाव करवाकर किसान आंदोलन से उपजे गुस्से का सारा क्लेश एक ही दिन में खत्म करने का मौका दे दिया. वह इसलिये कि बाकी के छह चरणों में होने वाले मतदान के प्रचार अभियान में बीजेपी के नेता किसानों की नहीं, बल्कि योगी सरकार के विकास-कार्यों की चर्चा ही करेंगे.प्रदेश को दंगामुक्त बनाने और अपराध के चंगुल से निकालने के लिए योगी सरकार के किये कामों के जरिये ही वे अपनी पार्टी के पक्ष में हवा बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखने वाले.
पर,एक बड़ा सवाल ये है कि बीजेपी वेस्ट यूपी के अपने सबसे मजबूत गढ़ को क्या यूं ही अपने हाथ से जाने देगी.राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि साल 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए दंगों के बाद बीजेपी ने इस इलाके को हिंदुत्व की ऐसी प्रयोगशाला बनाया कि उसके बाद हुए हर चुनाव में उसे इतना फायदा मिला,जिसकी उम्मीद उसे भी नहीं थी. उनके मुताबिक "गृह मंत्री अमित शाह का कैराना जाना और फिर उसके बाद आसपास के जिलों में हुई चुनावी-सभाओं में दिए गए उनके भाषणों की भाषा से जाहिर होता है कि बीजेपी इस बार भी 2017 की प्रयोगशाला को ही दोहराना चाहती है.लेकिन ये दावा करना बेहद मुश्किल है कि अब भी वह प्रयोग उतना ही कामयाब हो जाएगा."
वैसे हक़ीक़त तो ये है कि पिछले न जाने कितने बरसों से पश्चिमी यूपी में बसे शहरों को गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल के रूप में देखा-माना जाता रहा है.उसकी वजह ये है कि यहां अपना वर्चस्व रखने वाले जाट और मुस्लिम हमेशा से घुलमिल कर रहते आये हैं और उनके बीच कभी मज़हब की दीवार नहीं खड़ी हुई.लेकिन नौ बरस पहले हुए मुजफ्फरनगर के दंगों के बाद उनके बीच नफ़रत की ऐसी खाई बन गई, जिसे पाटना लगभग नामुमकिन ही था.लेकिन केंद्र के लाये तीन कृषि कानूनों के खिलाफ शुरु हुए किसान आंदोलन ने इसे मुमकिन कर दिखाया.किसानों के मुखर नेता राकेश टिकैत ने जब दिल्ली की गाजीपुर बॉर्डर पर आकर धरना देने का अपना तम्बू गाड़ा था,तब उन्हीं के खतौली-सिसौली गांव के प्रमुख मुस्लिम नेताओं ने वहां आकर उनका साथ दिया था.
तभी से दोनों समुदायों के बीच नफ़रत की वो दीवार ढहना शुरु हो गई थी.
दरअसल, उसी नब्ज़ को समझते हुए अखिलेश-जयंत ने आपस में गठबंधन करके यूपी के चुनावी-मैदान में एक साथ कूदने की तैयारी की.सपा की तो मुस्लिम वोटरों में पहले से ही पैठ रही है लेकिन वेस्ट यूपी के जाट वोटरों का साथ पाने के लिए उन्हें आरएलडी के मुखिया जयंत चौधरी का साथ भी चाहिए था.जयंत इस देश के इकलौते जाट प्रधानमंत्री रह चुके चौधरी चरणसिंह के पोते और कई सरकारों में केंद्रीय मंत्री रह चुके दिवंगत अजित सिंह के बेटे हैं.लिहाज़ा,इन दोनों ने मिलकर पश्चिमी यूपी में MJ यानी मुस्लिम-जाट को एकजुट करके यूपी की सत्ता तक पहुंचने का रास्ता तो तलाशा है लेकिन ये कोई नहीं जानता कि इसमें उन्हें कितनी कामयाबी मिलेगी.
दरअसल, वेस्ट यूपी की कुल 144 सीटें हर पार्टी के लिए महत्वपूर्ण हैं और पिछले चुनाव में बीजेपी ने यहां से 108 सीटें जीतकर 'जाटलैंड' को अपना सबसे मजबूत गढ़ बना लिया था.बीजेपी ने तो अपने गढ़ को बचाने के लिए पूरी ताकत लगा ही दी है लेकिन अखिलेश -जयंत की जोड़ी किसानों की नाराजगी का फायदा उठाते हुए बीजेपी के इस गढ़ को तोड़ने में काफी हद तक कामयाब हो भी सकती है.
लेकिन बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने उनकी इस राह में कुछ ऐसे कांटे बिछा दिए हैं कि वे चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते.मायावती ने यहां सबसे अधिक 44 (यानी 31 प्रतिशत) मुस्लिम उम्मीदवार उतारकर जो कार्ड खेला है,उससे मुस्लिम वोटों का विभाजन होना तय है,जिसका फायदा बीजेपी को ही मिलेगा. हालांकि सपा-रालोद ने भी 34 मुस्लिमों को टिकट बांटे हैं. कांग्रेस ने भी इस इलाके में 34 मुस्लिम मैदान में उतारे हैं. लेकिन बीजेपी ने किसी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया है. इस तरह 'जाटलैंड' में 28 ऐसी सीट हैं, जहां सपा, बसपा और कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवार आमने-सामने हैं.जाहिर है कि इससे इन सीटों पर वोटों के बंटने की संभावना बढ़ गई है और यही बीजेपी के लिए खुश होने की वजह बन गई है.दिलचस्प बात ये भी है कि जिन सीटों पर सपा-रालोद गठबंधन ने मुस्लिमों को टिकट नहीं दिया, वहां बीएसपी ने खासतौर पर मुसलमान उम्मीदवारों को टिकट देकर सारा समीकरण बदल दिया है.कांग्रेस ने भी कमोबेश यही रणनीति अपनाई है. शायद इसीलिए बीजेपी ने चाणक्य की उस नीति पर अमल किया है कि भले ही पूरा किला जीत रहे हों लेकिन वेस्ट यूपी की एक-एक सीट जीतना भी ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि यही 2024 के लोकसभा चुनावों के लिये अहम संदेश होगा.
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