एक्सप्लोरर

'बिहार की राजनीति के फ्लूक हैं उपेन्द्र कुशवाहा, बीजेपी और नीतीश दोनों बखूबी गए हैं समझ'

जेडीयू नेता उपेन्द्र कुशवाहा पिछले कुछ दिनों से मीडिया की सुर्खियों में हैं. वो हर दिन कोई नया बयान देते हैं. फिर मीडिया में अटकलों का दौर शुरू हो जाता कि वे जेडीयू में तोड़-फोड़ कर बीजेपी में शामिल होंगे. फिर अगले दिन उपेन्द्र कुशवाहा कुछ ऐसा कह देते हैं, जिससे मीडिया में उनके जेडीयू में बने रहने की खबरें फिर से चलने लगती है. ये सिलसिला पिछले कुछ दिनों से तेज़ हो गया है.

बिहार की राजनीति के फ्लूक

दरअसल उपेन्द्र कुशवाहा बिहार की राजनीति के फ्लूक (fluke)हैं और अब नीतीश कुमार के साथ ही बीजेपी को भी ये बात अच्छे से समझ में आने लगी है. यहीं वजह है कि उपेन्द्र कुशवाहा को लेकर अब न तो नीतीश ज्यादा संजीदा हैं और न ही बीजेपी. नीतीश कुमार और बीजेपी ये दोनों ही अब इस बात को बखूबी समझ गए हैं कि उपेन्द्र कुशवाहा फिलहाल बिना जनाधार वाले नेता हैं. दरअसल उनकी पकड़ बिहार की बड़ी आबादी पर कभी रही ही नहीं है. जमीनी स्तर से बिहार की राजनीति को समझने वाले लोगों को ये अच्छे से पता है कि उपेन्द्र कुशवाहा जिस बिरादरी से आते हैं, उस पर भी उनकी कभी कोई ख़ास पकड़ नहीं रही है.

बिना सहारे के सियासी नैया पार नहीं 

आप सोच सकते हैं कि जेडीयू संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा फ्लूक कैसे माने जा सकते हैं. 'फ्लूक' शब्द का एक मतलब होता है अकस्मात या अनायास सफलता. ऐसी सफलता जो अचानक मिल जाती है या कहें कि तुक्के से मिल जाती है और जिसकी वजह से किसी के बारे में बहुत बढ़ा-चढ़ाकर चीजों को पेश किया जाने लगता है. ऐसा ही कुछ 2014 के लोकसभा चुनाव में उपेन्द्र कुशवाहा के साथ हुआ था. दरअसल 2014 में उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी को आम चुनाव में 3 लोकसभा सीटों पर जीत मिल जाती है. उस वक्त उनकी पार्टी आरएलएसपी एनडीए गठबंधन का हिस्सा थी. इसी नाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उपेन्द्र कुशवाहा को मंत्रिपरिषद में जगह दे देते हैं. लेकिन अगर आप चुनावी आंकडों को समझते हुए राजनीतिक समीकरणों पर ध्यान देंगे तो 2014 में उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी को मिली जीत के पीछे उनका मजबूत जनाधार नहीं था. ये पूरा खेल वोटों के ध्रुवीकरण का था.

दरअसल 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार में तीन धड़े थे. उस वक्त उपेन्द्र कुशवाहा जेडीयू का दामन छोड़ आरएलएसपी (राष्ट्रीय लोक समता पार्टी) बना चुके थे और एनडीए गठबंधन का हिस्सा भी बन चुके थे. एनडीए में बीजेपी के साथ एलजेपी और आरएलएसपी थी. वहीं दूसरे धड़े में यूपीए के कुनबे में आरजेडी, कांग्रेस और एनसीपी थी. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने को मुद्दा बनाकर जेडीयू नेता नीतीश कुमार एनडीए से पल्ला झाड़ चुके थे. वे न तो एनडीए का हिस्सा थे और न ही यूपीए का. इसी का फायदा एनडीए को मिला था. एनडीए बिहार की 40 में से 31 सीटों पर जीतने में कामयाब रही थी. इसमें बीजेपी को 22, एलजेपी को 6 और उपेन्द्र कुशवाहा की आरएलएसपी को 3 सीटों पर जीत मिली थी.

2014 में बीजेपी के साथ का मिला फायदा

2014 का ही लोकसभा चुनाव था जहां उपेन्द्र कुशवाहा ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी कामयाबी हासिल की थी. बीजेपी ने आरएलएसपी को 3 सीटों पर टिकट दिए और उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी तीनों सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही थी. उपेन्द्र कुशवाहा काराकाट निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा पहुंचे थे. आरएलएसपी को 3 फीसदी वोट हासिल हुआ था, उसके बावजूद इस पार्टी ने सौ फीसदी जीत हासिल की थी. यूपीए और जेडीयू के बीच वोट बंटवारा होने का लाभ एनडीए को मिला था. यूपीए गठबंधन को 29.7 फीसदी वोट मिले थे. वहीं नीतीश की पार्टी को करीब 16 फीसदी वोट मिले थे. एनडीए को करीब 39 फीसदी वोट मिले थे. यूपीए और नीतीश के वोट को मिला देने पर ये 45 फीसदी से ज्यादा हो जाता है. एनडीए के खिलाफ पड़ने वाले वोट के दो खेमे में बंटने की वजह से 2014 में बिहार में एनडीए ने बड़ी जीत हासिल की थी और इस समीकरण का लाभ उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी को भी मिला था. ये एक तरह से बीजेपी का साथ मिलने और आरजेडी-जेडीयू के बीच विरोधी वोटों के बंटवारे की वजह से मुमकिन हो पाया था.

2015 में नीतीश-लालू के मिलने से बिगड़ा खेल

अक्टूबर-नवंबर 2015 में बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ. इसमें लालू-नीतीश की पार्टियों ने कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंन के बैनर तले चुनाव लड़ी.  वहीं बीजेपी, एलजेपी, आरएलएसपी और हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा ने एनडीए के बैनर तले चुनाव में उतरे. बीजेपी ने सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी को 243 में से 23 सीटें दी. ढाई फीसदी वोट के साथ इनमें से सिर्फ दो सीटों पर ही उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी जीत सकी. नीतीश-लालू के साथ ने बिहार में महागठबंधन को भारी जीत दिला दी. इन नतीजों से ये साफ हो गया कि उपेन्द्र कुशवाहा 2014 में लोकसभा चुनाव में जिस बिरादरी पर पकड़ का दंभ भरते थे, दरअसल स्थानीय स्तर ऐसा नहीं था.

बीजेपी को हो गया था मोहभंग

गठबंधन धर्म का पालन करते हुए बीजेपी ने 2014 में उपेन्द्र कुशवाहा को केंद्रीय मंत्री तो बना दिया था, लेकिन 2019 के आम चुनाव के पहले ही बीजेपी को ये अहसास हो चुका था कि उपेन्द्र कुशवाहा अब बिहार में उसके किसी काम के नहीं रहे हैं. नीतीश भी फिर से एनडीए का हिस्सा बन चुके थे. उपेन्द्र कुशवाहा को भी ये अहसास हो गया था कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को बीजेपी ज्यादा सीटें नहीं देने वाली. उपेन्द्र कुशवाहा दिसंबर 2018 में केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा देकर आम चुनाव से पहले महाठबंधन का हिस्सा बन गए. आरजेडी और कांग्रेस ने 2019 के लोकसभा चुनाव में उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी को 5 सीटों पर टिकट दी. हालांकि बीजेपी, नीतीश और राम विलास पासवान के गठजोड़ ने ऐसा कमाल कर दिखाया कि बिहार की 40 में 39 लोकसभा सीटें एनडीए के खाते में चली गई. महागठबंधन में से सिर्फ कांग्रेस ही एक सीट किशनगंज जीतने में कामयाब हो पाई.

2019 में उपेन्द्र कुशवाहा का टूटा भ्रम

2019 के लोकसभा चुनाव में आरएलएसपी यानी रालोसपा के उम्मीदवार सभी पांच सीटों पर हार गए. उसे सिर्फ दो फीसदी वोट हासिल हुए. हद तो ये हो गई कि इस पार्टी के मुखिया उपेन्द्र कुशवाहा  काराकाट और उजियारपुर दोनों सीटों में से किसी पर भी नहीं जीत सके. उन्हें अंदेशा था कि वे काराकाट सीट को बचाने में नाकाम हो सकते हैं, इसलिए उजियारपुर सीट से भी किस्मत आजमाई. काराकाट से उन्हें नीतीश के ही उम्मीदवार महाबली सिंह से 85 हजार वोटों से हार मिली. वहीं उजियारपुर सीट पर उपेन्द्र कुशवाहा को बीजेपी के नित्यानंद राय ने दो लाख 77 हजार से ज्यादा वोटों से पटखनी दी.

बगैर बीजेपी या नीतीश नहीं है कोई आधार

2020 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में उपेन्द्र कुशवाहा न तो एनडीए का हिस्सा रहे और न ही महागठबंधन का. उन्होंने बसपा, समाजवादी जनता दल डेमोक्रेटिक पार्टी, असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM के साथ मिलकर ग्रैंड डेमोक्रिटिक सेक्युलर फ्रंट के नाम से तीसरा मोर्चा बनाकर चुनाव लड़ा. आरएलएसपी 99 सीटों पर चुनाव लड़ी और एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हुई, जबकि ओवैसी की पार्टी सिर्फ 20 सीटों पर चुनाव लड़कर 5 सीटें जीतने में सफल रही. उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी का वोट शेयर गिरकर दो फीसदी से भी कम रह गया. इस चुनाव नतीजे ने तो उपेन्द्र कुशवाहा की रही-सही पोल भी खोल कर रख दी. इसके बाद उन्हें अहसास हो गया कि बगैर बीजेपी या बगैर नीतीश के बिहार में उनकी कोई सियासी ज़मीन नहीं है. इस बात को भांपते हुए उन्होंने मार्च 2021 में एक बार फिर से नीतीश का दामन थाम लिया और 9 साल बाद खुद की पार्टी आरएलएसपी का विलय जेडीयू में कर दिया. उसके बाद नीतीश ने उपेन्द्र कुशवाहा को विधान परिषद का सदस्य  बनवा दिया.

कभी नहीं रहा मजबूत जनाधार

63 साल के उपेन्द्र कुशवाहा अपने पूरे राजनीतिक करियर में विधानसभा और लोकसभा के नजरिए से सिर्फ दो ही बार चुनाव जीतने में कामयाब रहे हैं. पहली बार वे 2000 में समता पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर वैशाली जिले की जंदाहा विधानसभा सीट से जीतकर एमएलए बने थे. उपेन्द्र कुशवाहा को दूसरी जीत 2014 के लोकसभा चुनाव में काराकाट सीट पर मिली थी. इन दो जीत के अलावा वे जुलाई 2010 से जनवरी 2013 तक जेडीयू सदस्य के तौर पर राज्यसभा सांसद भी रहे. 2019 और 2020 का हाल देखकर तो ये भी कहना मुश्किल हो गया कि बिहार में ऐसा कौन सा एक भी निर्वाचन क्षेत्र है, जहां उपेन्द्र कुशवाहा की थोड़ी बहुत भी पकड़ हो. फिलहाल वे बिहार विधान परिषद के सदस्य हैं.

बिरादरी वोट पर भी नहीं है पकड़

उपेंद्र कुशवाहा कोइरी जाति से आते हैं. वहीं नीतीश कुर्मी समुदाय से आते हैं. ऐसे तो इन दोनों जातियों की वास्तविक संख्या बिहार में कितनी है, ये सही आंकड़ा बताना मुश्किल है, लेकिन एक अनुमान के मुताबिक ये दोनों जातियां राज्य के मतदाताओं का लगभग 9 से 10% हिस्सा हैं. उसमें भी कुर्मी के मुकाबले कोइरी मतदाताओं की संख्या थोड़ी ज्यादा है. कुर्मी-कोइरी यानी लव-कुश फॉर्मूले को साधकर ही नीतीश 2005 में बिहार की सत्ता से लालू यादव के 15 साल के राज को खत्म करने में कामयाब रहे थे. ये दोनों ही बिरादरी नीतीश के पारंपरिक समर्थक रहे हैं. लेकिन 2014 की सफलता को देखकर उपेन्द्र कुशवाहा को ऐसा प्रतीत होने लगा कि कुशवाहा समाज के वोट को वहीं कंट्रोल करते हैं. जबकि बाद के चुनाव नतीजों ने साफ कर दिया कि ऐसा बिल्कुल नहीं है.

बिहार में उपेन्द्र कुशवाहा की सियासी ज़मीन पर कितनी पकड़ हैं, अब इसे नीतीश और बीजेपी दोनों वाकिफ हैं. यहीं वजह है कि बीजेपी भी अब उपेन्द्र कुशवाहा को ज्यादा तवज्जो देने की इच्छुक नहीं दिख रही है. वहीं नीतीश के लिए भी आरजेडी के साथ गठबंधन के बाद उपेन्द्र कुशवाहा का बचा-खुचा महत्व भी नदारद हो गया है. यही वजह है कि नीतीश खुद अपने तरफ से कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहते, जिससे बिहार के लोगों में उपेन्द्र कुशवाहा को हल्की-फुल्की भी सहानुभूति मिल सके. वहीं बीजेपी भी उपेन्द्र कुशवाहा को अपने पाले में लाने के लिए ज्यादा उत्सुक नज़र नहीं आ रही है. उपेन्द्र कुशवाहा खुद के राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के संकट से गुजर रहे हैं. अब निकट भविष्य में उपेन्द्र कुशवाहा के पास मीडिया के जरिए सिर्फ सुर्खियों में बने रहने के अलावा कोई चारा नहीं दिख रहा है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

और देखें

ओपिनियन

Advertisement
Advertisement
25°C
New Delhi
Rain: 100mm
Humidity: 97%
Wind: WNW 47km/h
Advertisement

टॉप हेडलाइंस

Delhi Assembly Elections: BJP-कांग्रेस के लिए क्यों खास है केजरीवाल की पहली लिस्ट?
BJP-कांग्रेस के लिए क्यों खास है केजरीवाल की पहली लिस्ट?
Axis My India Exit Poll 2024: मराठवाड़ा से मुंबई तक, महाराष्ट्र के किस रीजन में कौन मार रहा बाजी? एग्जिट पोल में सबकुछ साफ
मराठवाड़ा से मुंबई तक, महाराष्ट्र के किस रीजन में कौन मार रहा बाजी? एग्जिट पोल में सबकुछ साफ
जब होटल में वरुण धवन ने किया था विराट कोहली को इग्नोर, जानिए ऐसा क्या कर बैठे थे अनुष्का शर्मा के पति
जब होटल में वरुण ने किया था विराट कोहली को इग्नोर, जानिए दिलचस्प किस्सा
Border Gavaskar Trophy: ट्रेनिंग में ही दो टी20 मैच खेल जाते हैं विराट कोहली, बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी से पहले बड़ा खुलासा
ट्रेनिंग में ही दो टी20 मैच खेल जाते हैं विराट कोहली, बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी से पहले बड़ा खुलासा
ABP Premium

वीडियोज

Maharahstra assembly elections 2024: महाराष्ट्र की 47 सीटों के नए Exit Poll में महायुति को मिल रही 38+ सीटें | Elections 2024Arvind Kejriwal News: Delhi चुनाव से पहले शराब घोटाले में केजरीवाल को बड़ा झटका! | ABP NewsBJP-कांग्रेस के लिए क्यों खास है केजरीवाल की पहली लिस्ट?बाबा बागेश्वर की 'सनातन हिन्दू एकता' पदयात्रा शूरू | ABP News

पर्सनल कार्नर

टॉप आर्टिकल्स
टॉप रील्स
Delhi Assembly Elections: BJP-कांग्रेस के लिए क्यों खास है केजरीवाल की पहली लिस्ट?
BJP-कांग्रेस के लिए क्यों खास है केजरीवाल की पहली लिस्ट?
Axis My India Exit Poll 2024: मराठवाड़ा से मुंबई तक, महाराष्ट्र के किस रीजन में कौन मार रहा बाजी? एग्जिट पोल में सबकुछ साफ
मराठवाड़ा से मुंबई तक, महाराष्ट्र के किस रीजन में कौन मार रहा बाजी? एग्जिट पोल में सबकुछ साफ
जब होटल में वरुण धवन ने किया था विराट कोहली को इग्नोर, जानिए ऐसा क्या कर बैठे थे अनुष्का शर्मा के पति
जब होटल में वरुण ने किया था विराट कोहली को इग्नोर, जानिए दिलचस्प किस्सा
Border Gavaskar Trophy: ट्रेनिंग में ही दो टी20 मैच खेल जाते हैं विराट कोहली, बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी से पहले बड़ा खुलासा
ट्रेनिंग में ही दो टी20 मैच खेल जाते हैं विराट कोहली, बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी से पहले बड़ा खुलासा
बुजुर्गों को अक्सर निमोनिया क्यों होता है? जानें इस गंभीर इंफेक्शन  के लक्षण और बचाव का तरीका
बुजुर्गों को अक्सर निमोनिया क्यों होता है? जानें इस गंभीर इंफेक्शन के लक्षण और बचाव का तरीका
‘इंडिया की बाइक्स चला रहे और पाकिस्तानियों पर लगा दिया बैन‘, यूएई के शेख पर भड़की PAK की जनता
‘इंडिया की बाइक्स चला रहे और पाकिस्तानियों पर लगा दिया बैन‘, यूएई के शेख पर भड़की PAK की जनता
10 मिनट स्पॉट जॉगिंग या 45 मिनट वॉक कौन सी है बेहतर, जानें इसके फायदे
10 मिनट स्पॉट जॉगिंग या 45 मिनट वॉक कौन सी है बेहतर, जानें इसके फायदे
'बैलिस्टिक मिसाइल हमले पर चुप रहना', जब रूसी प्रवक्ता को लाइव प्रेस कॉन्फ्रेंस में आया कॉल
'बैलिस्टिक मिसाइल हमले पर चुप रहना', जब रूसी प्रवक्ता को लाइव प्रेस कॉन्फ्रेंस में आया कॉल
Embed widget