संसद के मानसून सत्र को शुरू हुए 9 दिन हो चुके हैं. इस बीच संसद के दोनों सदनों में  7 दिन की बैठकें हुई हैं. हालांकि बैठकों के हिसाब से तो 7 दिन हो गया है, लेकिन अगर सदन की कार्यवाही की बात करें तो ये लगातार बाधित होते रही है. पिछले कुछ सालों से ऐसा लगने लगा है कि संसद की लगातार बाधित होती कार्यवाही संसदीय प्रक्रिया का मूलभूत हिस्सा बन चुका है. हालांकि सैद्धांतिक तौर से ऐसा नहीं है, लेकिन व्यवहार में हम ऐसा ही देख रहे हैं.


सत्ता पक्ष और विपक्ष में तनातनी से कार्यवाही बाधित


मानसून सत्र के दौरान भी मणिपुर हिंसा को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष में तनातनी का खामियाजा संसद की कार्यवाही को भुगतना पड़ रहा है. शुक्रवार यानी 28 जुलाई को भी राज्यसभा और लोकसभा दोनों ही सदनों में हंगामा और अवरोध का ही बोलबाला रहा. इसी माहौल में लोकसभा से 3 विधेयकों को भी पारित करवा लिया गया. हालांकि राज्यसभा से कोई विधेयक पारित नहीं हुआ.


सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच संवाद की कमी


मौजूदा सत्र में संसद की कार्यवाही बाधित होने के लिए प्रमुख रूप से मुद्दा मणिपुर में पिछले 3 महीने से जारी जातीय हिंसा है. लेकिन असल वजह सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच टकराव है. अब तो लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाकर कांग्रेस ने एक और ही मुद्दा बना दिया है.


लोकसभा में सरकार के खिलाफ प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के अविश्वास प्रस्ताव से जुड़े नोटिस को स्वीकार किया जा चुका है. हालांकि इस प्रस्ताव पर चर्चा के लिए स्पीकर ओम बिरला ने अभी तक कोई तारीख तय नहीं की है. विपक्ष चाहता है कि इस पर तत्काल चर्चा हो, उसके बाद ही सदन में कोई भी विधायी कार्य हो. विपक्ष का कहना है कि जब तक अविश्वास प्रस्ताव  की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, तब तक सरकार को नीतिगत मामलों से से जुड़ा कोई भी प्रस्ताव या विधेयक सदन में नहीं लाना चाहिए.


हालांकि अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा कब होगी, इसको लेकर नियम स्पष्ट है. लोकसभा के प्रक्रिया और कार्य-संचालन नियम के तहत नियम 198 में अविश्वास प्रस्ताव और उससे जुड़ी प्रक्रिया का विवरण है. नियम 198 (2) में स्पष्ट तौर से कहा गया है कि अगर स्पीकर ने अविश्वास प्रस्ताव से जुड़ा नोटिस स्वीकार कर लिया है तो उस पर सदन में 10 दिनों के भीतर बहस कराना अनिवार्य है. लोकसभा स्पीकर ओम बिरला ने कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई की ओर से प्रस्तुत अविश्वास प्रस्ताव से जुड़े नोटिस को 26 जुलाई को स्वीकार कर लिया था. इसका साफ मतलब है कि इस प्रस्ताव पर सदन में चर्चा अगले हफ्ते के शुक्रवार (4 अगस्त) तक हो जाना चाहिए.


हंगामा और अवरोध के बीच पारित होते विधेयक


लेकिन विपक्ष अब अड़ा है कि जब तक अविश्वास प्रस्ताव की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, कोई और कामकाज सदन में नहीं होना चाहिए. विपक्ष के इस रवैये के बावजूद हंगामा और अवरोध के माहौल में ही सरकार लोकसभा से विधेयक सरकार पारित करवा रही है.


जैसे 28 जुलाई को लोकसभा से  3 विधेयक पारित हुए. इनमें खान और खनिज (विकास और विनियमन) संशोधन विधेयक 2023, राष्ट्रीय परिचर्या और प्रसूति विद्या आयोग विधेयक, 2023 और राष्ट्रीय दंत चिकित्सा आयोग विधेयक, 2023 शामिल हैं. उसी तरह से 27 जुलाई को लोकसभा से जन विश्वास (प्रावधानों में संशोधन) विधेयक 2023 के साथ ही निरसन और संशोधन विधेयक 2022 पारित हो गया. उससे पहले 26 जुलाई को लोकसभा से वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 को मंजूरी मिली थी. उसी तरह से 25 जुलाई को सदन से जैव विविधता संशोधन विधेयक 2022 और मल्टी स्टेट कोऑपरेटिव सोसायटी संशोधन बिल 2022 पारित हो गया था. इस तरह से मानसून सत्र में लोकसभा से अब तक 8 विधेयक पारित हुए हैं.


लोकसभा में तो हंगामा और अवरोध के बीच 8 विधेयक पारित भी हो गए, लेकिन इन 7 बैठकों में राज्यसभा की कार्यवाही और भी ज्यादा बाधित रही है. हालांकि 27 जुलाई को राज्यसभा से सिनेमैटोग्राफ संशोधन बिल 2023 को पारित किया गया था और 26 जुलाई को संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश (तीसरा संशोधन) विधेयक 2022 मंजूरी मिली थी. वहीं 25 जुलाई को राज्यसभा से संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश (पांचवां संशोधन) विधेयक 2022 पारित हुआ था.



विधयेकों पर सार्थक चर्चा का अभाव


अवरोध के बीच चंद विधेयक तो संसद से पारित हो जाते हैं, लेकिन हंगामा और अवरोध के कारण विधयकों पर जिस तरह से सार्थक चर्चा होनी चाहिए, उसकी गारंटी सुनिश्चित न तो सरकार करा पा रही है और न ही इसमें विपक्षी दलों की ओर से कोई कोशिश हो रही है. संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने चुनौती देते हुए इतना तक कह डाला कि अगर विपक्ष के पास संख्या बल है तो उसे विधेयकों को पारित होने से रोककर दिखाना चाहिए. संसदीय कार्य मंत्री की ओर से जब इस तरह का बयान आए तो समझा जा सकता है कि सरकार संसद में कानून बनाने की प्रक्रिया को लेकर कितनी गंभीर है.


हंगामा और अवरोध की प्रवृत्ति में इजाफा


दरअसल संसद की कार्यवाही में बाधा सिर्फ़ इस मानसून सत्र तक ही सीमित नहीं है. अब तो देशवासियों को साल दर साल इसकी आदत पड़ते जा रही है.  देश के लोग पिछले कुछ सालों से संसद में जो देख रहे हैं, उसके लिए न तो सिर्फ सत्ता पक्ष जिम्मेदार है और न ही विपक्ष, बल्कि दोनों की ही राजनीतिक जवाबदेही इस मसले पर उतनी ही बनती है.



संसद देश की सर्वोच्च विधायिका है


संसद देश की सर्वोच्च विधायिका है. संसद की ही जिम्मेदारी है कि देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था बनी रहे. इसके लिए तमाम नियम कायदे कानून की शक्ल में संसद से बनकर निकलते हैं. मुख्य तौर से संसद का दो काम है. पहला काम कानून बनाना है.  दूसरा जनता के हितों से जुड़े, जनता की समस्याओं से जुड़े मुद्दों पर संसद का ध्यान आकर्षित करना है. यानी जन सरोकार से जुड़े मसलों पर अलग-अलग माध्यमों से संसद में सार्थक चर्चा हो ताकि जो देश की सर्वोच्च विधायिका है, उन मुद्दों और समस्याओं पर गंभीरतापूर्वक विचार कर संवेदनशीलता दिखाए.


लाइव प्रसारण और हंगामा का संबंध


संसद की कार्यवाही पहले भी बाधित होते रही है अवरोध पहले भी होता था. सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच टकराव पहले भी संसद में काफी सुना गया है. हालांकि जब से टीवी पर संसद की कार्यवाही का लाइव प्रसारण शुरू हुआ है, इस तरह के हंगामे और अवरोध की प्रवृत्ति बढ़ी है.  लाइव प्रसारण शुरू करने का मकसद कुछ और था, लेकिन सत्ता पक्ष और विपक्ष से जुड़े दलों ने इसका मकसद कुछ और ही बना दिया है. ये उन दलों के रवैये से कहा जा सकता है. लाइव प्रसारण के जरिए देशवासियों को वो मौका देना था, जिससे देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले लोग अपनी सरकार, अपने जनप्रतिनिधियों के संसद में कामकाज को सीधे देख सकें. ये महसूस कर सकें कि कैसे संसद में नागरिकों की बेहतरी के लिए जनप्रतिनिधि और सरकार काम करते है.


सरकार और विपक्ष के बीच राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप


हालांकि जो हो रहा है, वो उसके विपरीत हो रहा है.अब संसद हंगामा और नारेबाजी के जरिए सरकार और विपक्ष के बीच राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के अखाड़े का रूप लेते जा रही है. सरकार में रहने वाले दल और विपक्षी दलों यानी दोनों ही पक्षों की ओर से नारेबाजी देखने को मिलने लगा है. संसद में नागरिकों के लिए काम होना होता है, लेकिन अब पार्टियों ने संसद को आपसी राजनीतिक विरोध का जगह बना दिया है.


पहले पूरी कार्यवाही का प्रसारण टीवी पर नहीं होता था. शुरुआत में दोनों सदनों के प्रश्न काल को अल्टरनेट वीक में दिखाया जाता था. फिर प्रश्नकाल को लगातार दिखाया जाने लगा.  2006 से लोकसभा टीवी के अस्तित्व में आने के बाद लोकसभा की पूरी कार्यवाही का लाइव प्रसारण होने लगा. 2011 में राज्यसभा टीवी के आने के बाद राज्यसभा की पूरी कार्यवाही का लाइव प्रसारण होने लगा.


लाइव प्रसारण के बाद से हंगामा और अवरोध में इजाफा


संसद की पूरी कार्यवाही के लाइव प्रसारण शुरू होने के बाद हंगामा और अवरोध की प्रवृति बढ़ी है. चाहे सत्ता पक्ष के सांसद हों या फिर विपक्ष के..दोनों को ही लगता है कि अगर वे लोग चिल्लाकर या नारेबाजी करके किसी मुद्दे को उठाएंगे या फिर एक-दूसरे को जवाब देंगे तो इससे उनकी पार्टियों के समर्थक माने जाने वाले नागरिकों को लुभाने में मदद मिलेगी. हालांकि इस परसेप्शन को पूरी तरह से सही नहीं माना जा सकता, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि आज के समय में देश में जिस तरह का राजनीतिक माहौल बन गया है, उसमें कुछ हद तक पार्टियों और सांसदों की सोच से उसकी झलक मिलती है.


राज्यसभा में तो प्रश्नकाल का समय बदलना पड़ा था


सांसदों के हंगामा को देखते हुए ही नवंबर 2014 में राज्यसभा में प्रश्नकाल के समय में बदलाव कर दिया गया था. रोज सुबह पहले दोनों ही सदनों की कार्यवाही प्रश्नकाल से शुरू होती थी. जब राज्य सभा टीवी के शुरू हुए 3 साल हुए थे तो ऐसा महसूस किया गया था कि कार्यवाही की शुरुआत में अटेंशन लेने के लिए सांसदों की ओर से ज्यादा हंगामा किया जाता है. इसके चलते नवंबर 2014 में तत्कालीन सभापति मोहम्मद हामिद अंसारी ने सभी दलों से चर्चा करके प्रश्नकाल के समय में बदलाव करने का फैसला किया था. उसके बाद से राज्य सभा के कार्यवाही की शुरुआत शून्यकाल से होने लगी. वहीं लोकसभा में अभी भी कार्यवाही की शुरुआत प्रश्नकाल से ही होती है.  इस बदलाव के बाद भी राज्य सभा में प्रश्नकाल के दौरान हंगामा और अवरोध पर पूरी तरह से अंकुश नहीं लग पाया.


संसद में हावी होता राजनीतिक विद्वेष


संसद कानून बनाने और सार्थक बहस की जगह है, लेकिन जब हंगामा और अवरोध इस कदर हावी दिख रहा है तो ये कहने में कोई गुरेज नहीं है कि ये आपसी राजनीतिक विद्वेष को दिखाने की जगह बनते जा रहा है.  जनता के मुद्दों को उठाने और उस पर सार्थक बहस करने की बजाय राजनीतिक दल संसद में एक-दूसरे के ऊपर ही आरोप-प्रत्यारोप में जुटे हैं. पहले तो चर्चा होगी या नहीं होगा, होगी तो नियम कौन सा रहेगा, सत्ता पक्ष के लिए कौन सा नियम फायदेमंद रहेगा और विपक्ष के लिए कौन सा नियम ज्यादा लाभकारी साबित होगा..इन्हीं सारे बिंदुओं में उलझकर संसद की कार्यवाही लगातार बाधित होते रही है.


नियमों के फेर में उलझते गंभीर मुद्दे


अब मणिपुर हिंसा का ही उदाहरण लें. करीब 3 महीने से पूर्वोत्तर का ये राज्य हिंसा की आग में झुलस रहा है. 19 जुलाई को ही एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें पूरी दुनिया ने देखा था कि कैसे वहां महिलाओं के साथ बर्बरतापूर्ण यौन उत्पीड़न किया जा रहा है. इससे ज्यादा गंभीर और संवेदनशील मुद्दा नहीं हो सकता है, इसके बावजूद संसद के मानसून सत्र में ये मुद्दा नियमों के दांव-पेंच में उलझता हुआ नजर आ रहा है. राज्य सभा में विपक्ष नियम 267 के तहत चर्चा चाहता है, ताकि लंबी चर्चा हो. वहीं सरकार नियम 176 के तहत चर्चा को राजी है ताकि कम वक्त की चर्चा हो. उसी तरह से लोकसभा में सरकार नियम 193 के तहत चर्चा के लिए राजी है, जिसमें छोटी चर्चा होती है और मतदान की भी कोई व्यवस्था नहीं है. वहीं विपक्ष लोकसभा में नियम 184 पर चर्चा चाहती है ताकि लंबी चर्चा हो और बहस पूरी होने के बाद वोटिंग भी हो.


हालांकि नियमों के इस फेर में उलझकर मणिपुर हिंसा के मुद्दे पर अब तक चर्चा नहीं हो पाई है. मानसून सत्र में 7 दिन की बैठक हो गई है. ये सत्र 11 अगस्त तक चलना है और अब महज़ 10 बैठकें बच गई है. हंगामा और अवरोध से गंभीर मुद्दों और सार्थक बहस को कितना नुकसान पहुंच सकता है, पिछले 7 दिन से सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच रस्साकशी उसकी बानगी है.


हंगामा और अवरोध से आर्थिक नुकसान भी


एक अनुमान के मुताबिक संसद चलाने के लिए प्रत्येक मिनट में सरकारी खजाने पर 2.5 लाख रुपये का खर्च आता है और ये सरकारी खजाना देश के नागरिकों के खून-पसीने से की गई मेहनत का ही हिस्सा है. 2021 में मानसून सत्र के दौरान, संसद ने निर्धारित समय 107 घंटों में से 18 घंटे काम किया. अगर इसे पैसे की बर्बादी से तुलना करें तो इससे टैक्सपेयर के 133 करोड़ रुपये का नुकसान माना जाएगा.


साल में तीन बार संसद का सत्र चलता है. बजट सत्र, मानसून सत्र और शीतकालीन सत्र. हर सत्र के बाद  पिछले कई साल से हम ये सुनते आ रहे हैं कि इस सत्र की कार्यवाही का एक बड़ा हिस्सा हंगामा और अवरोध की भेंट चढ़ गया.


संसद नहीं चलने से जनता को कई सारे नुकसान


संसद में हंगामा और अवरोध सिर्फ जनता के पैसे की बर्बादी तक ही सीमित नहीं है. ये जनता के साथ एक तरह का धोखा भी है. संसद के नहीं चलने से एक तो सरकार के लिए मुश्किल ये होता है कि जरूरी कानून पारित होने में समस्या आती है. कानू अगर पारित होता भी है तो जितनी बहस के बाद ऐसा होना चाहिए वो नहीं हो पाता है. विधेयक से संबंधित हर पहलू पर जब विपक्ष के सांसद अपनी बात रखते हैं, तो एक तरह से ये विधेयक की पड़ताल का हिस्सा होता है. हंगामा और अवरोध की वजह से जब जल्दबाजी में विधेयक पारित होते हैं, तो ये पड़ताल अच्छे तरीके से देशवासियों के सामने नहीं आ पाता है. हालांकि हंगामा और अवरोध की वजह से सरकार को अपने कामकाज के स्क्रूटनी से राहत मिल जाती है. सांसद अपने-अपने इलाकों से जुड़ी समस्याओं को उठाने से वंचित रह जाते हैं. इन सारी चीजों का अल्टीमेट नुकसान देशवासियों को उठाना पड़ता है.


राजनीतिक जवाबदेही से बचता सत्ता पक्ष और विपक्ष


संसद की कार्यवाही सुचारू तौर से चले, इसकी जिम्मेदारी सत्ता पक्ष और विपक्ष से जुड़े तमाम राजनीतिक दलों की है. हालांकि सरकार की जिम्मेदारी ज्यादा बनती है, इसका मतलब ये नहीं है कि सिर्फ़ अपने पार्टी हितों के लिए और सत्ताधारी दलों पर निशाना साधने के विपक्षी सांसदों के  हंगामा और अवरोध के प्रयासों को जायज ठहराया जा सके. संसद सिर्फ़ सत्ताधारी दलों से नहीं बनता है. संसद में सत्ताधारी दलों के साथ ही विपक्षी दलों के सांसद भी होते हैं. अगर संसद में सिर्फ़ सत्ताधारी दल ही होंगे, तो फिर लोकतांत्रिक प्रक्रिया की प्रासंगिकता ही नहीं रह जाएगा. 


सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही लोकतंत्र की मजबूत कड़ी है. संसद का हिस्सा होने के नाते विपक्षी दलों और उनके सांसदों की भी जिम्मेवारी बनती है कि सुचारू कार्यवाही में योगदान दें.


सहमति और असहमति संसदीय प्रणाली का सबसे आधारभूत पहलू है, जिसकी नींव नागरिकों की भलाई से जु़ड़ी है. ऐसे में न तो सरकार और न ही विपक्ष  संसद को चलाने की जिम्मेदारी से भाग सकते हैं. इस मसले पर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की ही राजनीतिक जवाबदेही बनती है. इसे राजनीतिक विद्वेष को दरकिनार करके पर्याप्त संवाद के जरिए ही सरकार और विपक्ष दोनों की ओर से सुनिश्चित किया जा सकता है.


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