(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
Blog: कम पढ़ा लिखा वोटर ही है ट्रंप की रीढ़, क्या ये रीढ़ बचेगी या बिडेन तोड़ देंगे!
बिडेन ने लगातार नए मतदाताओं को रिझाने की कोशिश की है जबकि ट्रंप अपने साइलेंट वोटर पर यकीन बनाए हुए हैं जो सर्वेक्षणों में चुप रहता है लेकिन मतदान के दिन जाकर वोट ट्रंप को करता है.
दुनियाभर में मशहूर सीरीज ‘गेम ऑफ थ्रोन्स’ का डायलॉग ‘विंटर इज कमिंग’ अमेरिका और पूरी दुनिया के लिए एक खतरनाक सच्चाई बनता जा रहा है. यूरोपीय सभ्यताओं के लिए विंटर यानी सर्दियां हमेशा से विनाश और त्रासदी का प्रतीक रही हैं और सर्दियों को लेकर कई मिथक प्रचलित हैं. सर्दियां यानी काम न करने का समय. विंटर यानी कि भोजन जमा करने का समय. विंटर यानी कि घर में दुबक कर समय बिताने का समय जब बाहर प्रेत नाचते हों.
गेम ऑफ थ्रोन्स में इस डायलॉग के जरिए प्रेतों के आक्रमण का जिक्र था लेकिन जो बिडेन ने इसी मिथक का इस्तेमाल किया है अमेरिका के लोगों को कोरोना से आगाह करने के लिए. उन्हीं के शब्दों में अमेरिका एक डार्क विंटर के रास्ते पर है. अमरीकी चुनावों से ठीक दस दिन पहले हुई तीसरी और अंतिम (हालांकि दूसरी बहस ट्रंप को कोरोना होने के कारण नहीं आयोजित हुई थी) बहस में जहां ट्रंप ने कहा कि कोरोना के लिए वैक्सीन कुछ हफ्तों की बात है वहीं बिडेन ने कहा कि ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका एक अंधकारमय भविष्य की ओर बढ़ रहा है.
क्या है ट्रंप के इस बयान के मायने
इस बयान के कई मायने निकल सकते हैं. एक तो ये कि कोरोना की स्थिति और भयावह होगी सर्दियों में और दूसरा गहरा अर्थ ये भी निकल सकता है कि अगर ट्रंप जीते तो अमेरिका का भविष्य अंधकारमय होने वाला है. पूरी दुनिया में राष्ट्रपति ट्रंप की छवि कोई बहुत अच्छी नहीं है और कोरोना के दौरान जिस तरह से उन्होंने अमेरिका को लीड किया है उसकी शायद ही कहीं तारीफ हुई है. ट्रंप का अपना परिवार ही कोरोना से पीड़ित हो चुका है और वो इस तथ्य को अपने फेवर में स्पिन करने से भी नहीं चूके हैं. हालांकि आम लोगों में भी अब कोरोना को लेकर ट्रंप की छवि खराब हुई है. लेकिन अमेरिकी जनता सिर्फ एक मुद्दे पर वोट करेगी ये कहना मुश्किल है.
अमेरिका भारत जैसे देश से कितना अलग अमेरिका में भारत से इतर आम तौर पर लोग बहुत मुखर होकर अपनी पसंद और नापसंद के बारे में बताते हैं. यानी कि राष्ट्रपति पद के लिए होने वाली बहसों से लोगों के वोट डालने के विचार में बहुत बदलाव तो नहीं आता है लेकिन जब दो उम्मीदवारों के बीच अंतर बहुत कम हो तो ये सारी बहसें महत्वपूर्ण हो जाती हैं.
पहली बहस में हुई नोंक झोंक के बाद नए नियमों के तहत हुई बहस शालीन रही और दोनों उम्मीदवारों ने अपने विचार रखे जिन्हें परखने पर ये समझ में आता है कि अमेरिका भारत जैसे देश से कितना अलग है और यहां शब्दों को लेकर किस कदर का हौव्वा बना हुआ है.
सोशलिज्म शब्द अमेरिकी लोगों के लिए खतरनाक अमेरिकी स्वास्थ्य व्यवस्था पूर्ण रूप से प्राइवेट लोगों के हाथों में है और अच्छे इलाज के लिए सभी को इंश्योरेंस लेना जरूरी है. बराक ओबामा ने इस दिशा में प्रयास करते हुए गरीब लोगों को भी इंश्योरेंस की सुविधा उपलब्ध कराई. ओबामाकेयर में कम से कम 30 लाख लोग जो इंश्योरेंस से वंचित थे उन्हें इंश्योरेंस मिला है लेकिन ट्रंप ओबामाकेयर को खराब बताते रहे हैं और अब ये कानून सुप्रीम कोर्ट में है. बिडेन की नई योजना में कहा गया है कि गरीब लोगों को सरकार की तरफ से इंश्योरेंस दिया जाएगा. ट्रंप ने इस योजना को सोशलाइजिंग मेडिसिन कहकर इसकी खिल्ली उड़ाई है. किसी भारतीय के लिए ये समझना थोड़ा सा मुश्किल हो सकता है कि सोशलिज्म शब्द अमेरिकी लोगों के लिए इतना खतरनाक और नेगेटिव क्यों हैं.
यही नहीं अमेरिका में शीत युद्ध के दौरान और अब भी कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट जैसे शब्द गाली बन चुके हैं और ट्रंप ने इसी आधार पर बिडेन की नीतियों पर ये कहते हुए हमला किया कि सरकारों का नागरिकों को इंश्योरेंस मुहैया करना सोशलिस्ट नीति है जो मूल रूप से फ्री मार्केट की अवधारणा के खिलाफ है. यहां ये समझना जरूरी है कि अमेरिका कई दशकों से एक ऐसा पूंजीवादी देश बन चुका है जहां कुछ भी फ्री में नहीं मिलता है और सरकारें आम लोगों के लिए बहुत कम सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं.
लोग भले ही बेरोजगारी भत्ते और सोशल सिक्योरिटी की बात करें लेकिन अमेरिका में गरीब लोगों की एक बड़ी तादाद है जो मेडिकल इंश्योरेंस के कारण कर्ज में भी है. लेकिन इसके बावजूद अमेरिका में कभी इस बात को लेकर आंदोलन नहीं हुआ कि स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करने की जिम्मेदारी सरकारी की होनी चाहिए. ऐसा कहने वालों तक को सोशलिस्ट और वामपंथी कहकर डिसक्रेडिट करना आम चलन है.
अंतरराष्ट्रीय मुद्दे भी हुई बहस अमेरिकी राष्ट्रपति बहस में यही एक मुद्दा नहीं था बल्कि अंतरराष्ट्रीय मुद्दे भी बहस में आए. हालांकि ये मुद्दा भारत जैसा नहीं था चीन या पाकिस्तान का बल्कि ईरान और रूस का अमेरिकी चुनावों में अलग अलग तरीकों से दखल का मामला फिलहाल बड़ा मुद्दा है. बिडेन ने जहां ट्रंप पर आरोप लगाया कि वो रूस के खिलाफ कड़ा रवैया नहीं अपना रहे हैं वहीं ट्रंप ने उलटे आरोप लगाया कि जब बिडेन उपराष्ट्रपति थे तो उनके बेटे को रूस से कई कांट्रैक्ट्स मिले थे. जैसा कि होता है कि एक आरोप के बाद दूसरा उम्मीदवार भी आरोप लगाता है तो इस बहस में भी वही हुआ और ईरान-रूस का मसला कहीं पीछे छूट गया. सारी कवायद आकर रूकी निजी आरोपों पर ही.
दोनों ही उम्मीदवार 70 साल से ऊपर बहस में जलवायु परिवर्तन को भी रखा गया था जिस मुद्दे पर ट्रंप के सोचने का ढंग बिल्कुल ही अलग है. वो पेरिस समझौते से अलग हो चुके हैं और लगातार तेल एवं प्राकृतिक गैस की वकालत करते हैं जबकि बिडेन का प्रस्ताव था कि पूरी अमेरिकी अर्थव्यवस्था को धीरे धीरे सोलर और वायु ऊर्जा पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. ज़ाहिर है कि ये भविष्य की योजना है लेकिन क्या अमेरिका का भविष्य यानी युवा वर्ग बिडेन में अपना भविष्य देखता है. ये एक मुश्किल सवाल है क्योंकि अमेरिका के युवा लोगों के लिए ट्रंप और बिडेन दोनों ही बूढ़े और बुजुर्ग हैं. ट्रंप भले ही कुछ भी कहें लेकिन वो 74 के हैं जबकि बिडेन 77 के. जबकि इसके उलट ओबामा जब राष्ट्रपति बने थे तो 47 के थे जबकि क्लिंटन 46 के. अमेरिका में राष्ट्रपतियों की औसत आयु 50-55 की रही है लेकिन इस बार दोनों ही उम्मीदवार 70 साल से ऊपर के हैं.
ऐसे में युवाओं के पास विकल्प है नहीं, तो वो अपनी पुराने रूख के अनुसार ही वोट कर सकते हैं यानी कि पार्टी लाइन पर. हालांकि बिडेन ने लगातार नए मतदाताओं को रिझाने की कोशिश की है जबकि ट्रंप अपने साइलेंट वोटर पर यकीन बनाए हुए हैं जो सर्वेक्षणों में चुप रहता है लेकिन मतदान के दिन जाकर वोट ट्रंप को करता है. ये व्हाइट, मिडिल क्लास, कम पढ़ा लिखा वोटर ही ट्रंप की रीढ़ है लेकिन देखना है कि अगले 10 दिन में ये रीढ़ बचती है या बिडेन इसे तोड़ पाते हैं.