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BLOG: ईरान और अमेरिका के बीच टकराव की ये हैं वजहें

अमेरिका और ईरान के बीच तनाव खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है. ऐसे में इस ब्लॉग में जानें अमेरिका और ईरान के बीच तनाव का कारण क्या है और ऐसी क्या बात है कि दोनों देश एक-दूसरे से मेल करने के लिए दोस्ती का हाथ आगे नहीं बढ़ा रहे हैं.

ईक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की शुरुआत इस खौफनाक सवाल के साथ हुई कि कहीं दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध की तरफ तो नहीं बढ़ चली है? इराक की जमीन पर अमेरिका और ईरान में हुई तनातनी ने एक नई जंग का मुहाना लगभग खोल ही दिया था. अमेरिकी ड्रोन स्ट्राइक में अपने वरिष्ठ सैन्य कमांडर की मौत पर बौखलाए ईरान ने जब पलटवार करते हुए इराक के उन सैन्य ठिकाने पर मिसाइलें दागीं जिनका इस्तेमाल अमेरिकी और कई मित्र देश करते हैं, तो लगा चिंगारी किसी भी वक्त भड़क सकती है. मगर, दुनिया ने राहत की सांस ली. इस हमले में अमेरिका और ईरान का कोई सैनिक नहीं मारा गया. शायद ईरान का यह वार हमले से ज्यादा अपनी नाराजगी और ताकत दिखाने की एक कोशिश था. फौरी तौर पर एक नई जंग का खतरा तो टल गया, लेकिन ईरान-अमेरिका के बीच टकराव की फॉल्ट लाइन जस की तस बरकरार है.

....तो चलिए, आज हम यह जानने की कोशिश करतें हैं कि आखिर क्यूं टेढ़ी है ईरान और अमेरिका के रिश्तों की कुंडली. वो कौन सी बातें हैं जो ईरान को अमेरिका से टकराने की ताकत देती हैं? क्या हैं उसकी कमियां जो कभी पर्शियन एंपायर का घर कहलाने वाले इस मुल्क की संभावनाओं पर ताला लगाती हैं? आखिर किन बातों में है झगड़े का बारूद? ईरान का आकार, इस्लामिक मुल्कों के कुनबे में शिया-सुन्नी विवाद की पेचीदगियां, इजराइल-सऊदी अरब जैसे अमेरिका के दोस्तों से ईरान के झगड़े, वो कारण हैं जो वाशिंगटन और तेहरान के बीच रिश्ते की तरतीब बिगाड़ते हैं.

ईरान, दुनिया का १८वां सबसे बड़ा मुल्क जो मध्य एशिया और पश्चिम एशिया के बीच फैला है. तुर्की, अफगानिस्तान, अजरबैजान, तुर्कमेनिस्तान, पाकिस्तान, इराक के साथ सरहदें साझा करने वाले इस मुल्क के एक तरफ फारस और ओमान की खाड़ी तो दूसरी तरफ कैस्पियन सागर है. ईरान की भौगोलिक स्थिति उसकी बड़ी ताकत है जो रणनीतिक अहमियत और राजनीतिक रुतबा दोनों बढ़ाती हैं. दुनिया में तेल का अहम गलियारा कहलाने वाला स्ट्रेट ऑफ होर्मुज ईरान के ही करीब है जो फारस की खाड़ी औऱ ओमान की खाड़ी को जोड़ता है. पहाड़ों से भरे ईरान के पास जिंक समेत कई खनिजों के भी खासे भंडार हैं. दुनिया के आठ करोड़ लोगों का घर कहलाने वाला ईरान उन मुल्कों में शुमार है जिसकी एक बहत बड़ी आबादी ३५ वर्ष से कम की है.

तेल और सत्ता का खेल

कम लोग जानते होंगे कि मध्य-पूर्व क्षेत्र में तेल का पहला कुंआ २०वीं सदी की शुरुआत में जिस मस्जिद सुलेमान में खोदा गया था वो ईरान में ही है. वहीं, अमेरिका की एनर्जी इन्फोर्मेशन एजेंसी( ईआईए) के मुताबिक वेनेजुएला, सऊदी अरब और कनाडा के बाद दुनिया में तेल व गैस के सबसे बड़े भंडार ईरान में ही हैं. सऊदी अरब के बाद ईरान मध्य-एशिया में तेल का सबसे बड़ा उत्पादक है. साथ ही उसके पास दुनिया के १० फीसद तेल-गैस भंडार होने का आकलन है.

हालांकि, यही तेल ईरान में लंबे वक्त तक सत्ता की खींचतान का सबब बनता रहा है. पहले विश्वयुद्ध के बाद जब कजार वंश का शासन कमजोर हुआ तो ईरानी सेना के जनरल रेजा पहलवी ने संसद की मदद से तख्तापलट किया और खुद को नया शाह घोषित किया. नींव रखी पहलवी राजवंश की. पश्चिमी रंग-ढंग के रजा पहलवी ने ईरान में तेजी से बदलाव करने शुरु किए. मगर इन बदलावों के साथ ही शाह जहां काफी तानाशाह हो गए वहीं, उसकी नीतियां पश्चिमि आकाओं को भी नागवार गुजरने लगी. इस बीच मुल्क के भीतर ईरानी तेल बिक्री के मुनाफे से लेकर पेट्रोलियम भंडारों पर ब्रिटिश एंग्लो-ईरान तेल कंपनी के अधिकार पर भी विवाद तेज होने लगा था. ऐसे में दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों ने रजा पहलवी को हटा दिया.

दूसरा विश्वयुद्ध जब जब खत्म हुआ तो रेजा के बेटे, मोहम्मद रेजा पहलवी को शाह घोषित किया गया. मगर, तेल का विवाद फिर भी ईरान में सुलगता ही रहा. देश में हालात खराब हुए तो मोहम्मद रजा पहलवी मुल्क से बाहर चले गए. वहीं पचास के दशक की शुरुआत में ईरान के निर्वाचित प्रधानमंत्री मोहम्मद मुसद्दिक ने तेल कंपनी के राष्ट्रीयकरण की कवायद शुरु की तो विवाद इतना बढ़ा कि १९५३ में अमेरिका और ब्रिटेन ने उसे ही सत्ता से हटा दिया. एक बार फिर शाह को बैठाया गया. कठपुतली शाह की नीतियां जहां राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की थी वहीं कामकाज का नजरिया पश्चिमी. ऐसे में ईरान के भीतर शाह और उसकी नीतियों के खिलाफ उबल रहे असंतोष का लावा १९७९ में ऐसा फूटा कि शाह को हमेशा के लिए मुल्क छोड़कर भागना पड़ा. इस्लामिक क्रांति की शक्ल में आए इस बदलाव के साथ तेहरान की सत्ता में एंट्री हुई धार्मिक नेता अयातुल्लाह खुमैनी की. अयातुल्लाह ईरान के सुप्रीम धार्मिक नेता का पद है. जिनके पास सत्ता और सेना दोनों की चाबी है. वैसे कहने को सत्ता का रोजमर्रा कामकाज निर्वाचित राष्ट्रपति और उनकी सरकार चलाती है.

पर्शियन साम्राज्य से सिकंदर की सत्ता और कई खलीफतों के दौर से पहलवी वंश के आखिरी शाह को बेदखल कर आई इस्लामिक क्रांति तक, ईरान ने सिंहासनों की कई करवटें देखी हैं. इतिहास के कई उतार-चढ़ावों ने जहां मौजूदा ईरान की भौगोलिक हदें तय की है वहीं मजबूत फारसी संस्कृति ने उसकी पहचान को सींचा है. मंगोलों से लेकर उम्मायद और अब्बासिद खलीफतों के दौर में भी फारसी अपना दबदबा बनाए रखने में कामयाब रहे. यही वजह है कि मध्य-एशिया के पूरे क्षेत्र में वो अपनी गैर-अरब पहचान को दमखम के साथ रखते हैं. दुनिया में सबसे बड़ी शिया मुस्लिम आबादी वाले इस मुल्क की अपने प्रभाव का दायरा बढ़ाने की जिद भी एक बड़ी वजह है जो उसके पास-पड़ौस ही नहीं हजारों मील दूर बैठे अमेरिका जैसे मुल्कों को भी परेशान करती है.

आधी सदी से ज्यादा पुराना है अमेरिका से अदावत का बीज

अमेरिका और ईरान के लोगों में खटास का बीज मोहम्मद मुसद्दिक को बेदखल करने के लिए सीआइए और ब्रिटेन के साझा अभियान ऑपरेशन अजाक्स के साथ ही पड़ गया था. वहीं 1979 में हुई इस्लामिक क्रांति के बाद तेहरान स्थित अमेरिकी दूतावास पर प्रदर्शनकारियों के कब्जे और राजनयिकों को बंधक बनाए जाने की घटना ने रिश्तों को तोड़ दिया. अपने नागरिकों और अधिकारियों को छुड़वाने के लिए अमेरिका को 444 दिनों तक इंतजार करना पड़ा था. इस्लामिक क्रांति के बाद ईरान पर हुए सद्दाम हुसैन के हमले को ईरानी, अमेरिका और उसके दोस्तों की कारस्तानी मानते हैं. इतना ही नहीं आठ साल चले युद्ध में ईरान के खिलाफ रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल पर कोई अंतरराष्ट्रीय सुनवाई न होने की नाराजगी भी अमेरिका के खिलाफ ही है. दूसरी तरफ अमेरिकियों को लगता है कि बेरूत में उसके 200 से ज्यादा सैनिकों की मौत का सबब बने आत्मघाती हमले के पीछे ईरान ही था. ईरानी फ्लाइट IR655 को 1988 में मिसाइल से मार गिराने की घटना हो या फिर हाल के दिनों में तेल टैंकरों पर हुए हमले. दोनों पक्षों के पास एक-दूसरे के खिलाफ आरोपों की खासी मोटी फेहरिस्त तैयार है.

इजराइल और साऊदी अरब फैक्टर

वहीं, वाशिंगटन और तेहरान के रिश्तों का रंग तय करने में एक बड़ा फैक्टर इजराइल और सऊदी अरब से अमेरिका की दोस्तों के साथ ईरान के संबंध भी हैं. इजराइल को जहां ईरान अपने वजूद के लिए खतरा लगता है वहीं हमास और हिजबुल्लाह जैसे गुटों के साथ तेहरान के रिश्ते दुश्मनी की खाई को गहरा करते हैं. सऊदी अरब और ईरान के रिश्तों में केवल फारस की खाड़ी जितनी दूरी नहीं है बल्कि पश्चिम एशिया के इन दोनों मुल्कों में इस्लामिक कुनबे की अगुवाई को लेकर भी दंगल है. सऊदी अरब का पलड़ा यूं तो हर लिहाज से भारी है. मगर, इलाके में बीते कुछ दशकों में बढ़ी शिया इस्लामिक संगठनों की संख्या और प्रभाव रियाध की फिक्र बढ़ाने को काफी है. वहीं हाल में तेल रिफाइनरी पर हुए ड्रोन हमले के पीछे सऊदी अरब को ईरानी शह पर काम कर रहे हूथियों का ही हाथ लगता है. गृह युद्ध से तबाह यमन पहले ही दोनों का अखाड़ा बना हुआ है.

ईरानी दबदबे का बढ़ता गलियारा और बढ़ता दंगल

इराक में सद्दाम हुसैन के खिलाफ 2003 के अमेरिकी सैन्य अभियान ने बगदाद में सत्ता तो बदल दी, मगर साथ ही पूरे इलाके में कई नए समीकरण भी पैदा कर दिए. बड़ी शिया आबादी वाले इराक में सत्ता पर काबिज सद्दाम को जब अमेरिका ने खदेड़ भगाया तो उसके साथ भी उसकी सेना के कई आला कमांडर भी बेदखल हुए. यही वो दौर था जब सीरिया और इराक में शुरुआत हुई इस्लामिक खलीफत खड़ा करने की कोशिश कर रहे आईएसआईएस की. इस संगठन की सैन्य रणनीति में सद्दाम की पुरानी फौज के कई पुराने ओहदेदार भी शरीक थे. सुन्नी इस्लामिक विचारों से प्रभावित इस संगठन के साथ टकराव शुरु हुआ तो हशद अल शाबी जैसे शिया संगठनों की मदद को ईरान आगे आया. इस बहाने ईरान को इराक के शिया बहुल इलाकों में अपना प्रभाव मजबूत करने का मौका मिला. एक तरफ अमेरिकी सैन्य अभियान और दूसरी तरफ हशद अल शाबी, इराकी सेना, सीरिया तथा पर्दे के पीछे से रूस की मदद ने आईएसआईएस के पैर उखाड़ दिए. मगर इस बहाने ईरान को इराक, सीरिया से लेबनान तक अपने लिए शिया समर्थित गुटों के प्रभाव वाला एक ताकतवर गलियारा बनाने का मौका मिल गया.

इस गलियारे को बनाने में अहम भूमिका निभाई ईरान की इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड फोर्स और उसके अहम सिपहसालार जनरल कासिम सुलेमानी की कुद्स फोर्स ने. इस गलियारे की अहमियत इस बात से आंकी जा सकती है कि इसके रास्ते ईरानी कमांडर बिना किसी सुन्नी प्रभाव वाले इलाके में कदम रखे सीधे इजराइल की सरहद तक पहुंच सकते हैं. जाहिर है ईरानी प्रभाव का यूं फैलता दायरा जहां इजराइल जैसे मुल्क के लिए बड़ी चिंता का सबब बन गया और साथ ही अमेरिका के लिए भी अपने दबदबे के लिए चुनौती. साथ ही इराक से अमेरिका को हटाने के लिए हवा बनाने में भी इस बढ़ते ईरानी प्रभाव का असर है. लिहाजा इराक की जमीनी हकीकत के उलझे तारों में अमेरिका और ईरान के बीच तनाव के झटके अब लगातार बढ़ रहे हैं.

परमाणु कार्यक्रम की पेचीदगियों ने बढ़ाया पचड़ा

ईरान और अमेरिका के रिश्तों में एक बड़ी फांस परमाणु कार्यक्रम भी है. पहलवी शाह के राज वाले ईरान के साथ 1957 में परमाणु ऊर्जा सहयोग समझौता करने वाला अमेरिका ही था. अमेरिका से सहयोग के साथ ही ईरान ने 70 के दशक की शुरुआत में परमाणु अप्रसार संधि पर भी दस्तखत किए थे. हालांकि, बाद में इस्लामिक क्रांति से संबंधों का सुर-ताल गड़बड़ाया तो दोनों मुल्कों के बीच परमाणु सहयोग ही हर संभावना जमींदोज हो गई. तत्कालीन सोवियत संघ और चीन के साथ ईरान की परमाणु साझेदारी भी आगे नहीं बढ़ पाई. बाद में २००३ में अमेरिका ने कहा कि ईरान परमाणु हथियार बना रहा है और तेहरान के खिलाफ व्यापक आर्थिक प्रतिबंधों का ऐलान कर दिया गया. विवाद बढ़ा तो अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी ने जांच की. आईएईए की रिपोर्ट में ईरान के परमाणु कार्यक्रम में खामियां तो बताई गई लेकिन उसके नाभिकीय हथियार कार्यक्रम की किसी संभावना से इनकार किया गया. जाहिर तौर पर अमेरिका ने इस रिपोर्ट को अविश्वनीय करार दिया. बहरहाल, अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं की पेचीदगियों के बीच ईरान का परमाणु कार्यक्रम भी बढ़ता गया और उस पर अंतरराष्ट्रीय पाबंदियों का दबाव भी. ईरानी परमाणु कार्यक्रम पर अमेरिकी पाबंदियों की एक बड़ी वजह इजराइल भी है. तेल अवीव को यह कतई बर्दाश्त नहीं कि तेहरान पर परमाणु कार्यक्रम बंद करने को लेकर बंदिशों में जरा भी ढील दी जाए.

अमेरिका और ईरान के बीच परमाणु कार्यक्रम पर तनाव कम करने का एक गलियारा निकाले की कोशिश राष्ट्रपति बराक ओबामा के शासनकाल के आखिरी दो सालों में हुई. सुरक्षा परिषद के पांच सदस्यों और जर्मनी की ईरान के साथ वार्ताओं के बाद एक समझौता हुआ जिसमें ईरान को परमाणु कार्यक्रम पर नियंत्रण के एवज में आर्थिक लाभ दिया गया. इस समझौते ने हर मौसम दोस्त कहलाने वाले इजराइल और अमेरिका के रिश्तों में भी तनाव पैदा कर किया.

अमेरिका में 2016 के चुनावी प्रचार में राष्ट्रपति पद उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने इसका खुला विरोध किया. वहीं सत्ता संभालने के करीब डेढ़ साल में ट्र्ंप ने अमेरिका के इस समझौते से बाहर निकलने का ऐलान कर दिया. जुबानी जंग के साथ साथ टकराव के नए मोर्चे भी बढ़ने लगे. अमेरिका ने अगस्त 2019 में ईरान पर और ज्यादा पाबंदियां लगा दी तो तनाव का असर जमीन के साथ-साथ आसमान और फारस की खाड़ी में नजर आने लगा. ईरान ने अमेरिकी ड्रोन मार गिराने का दावा किया तो वहीं अमेरिका ने फारस की खाड़ी में तेल टैंकरों पर हुई हमले की वारदातों के लिए ईरान को जिम्मेदार ठहराया. दिसंबर २०१९ के आखिर और जनरवरी २०२० की शुरुआत में इराक में हुई घटनाओं ने पहले से जल रही तनाव की आग में घी का काम किया. दिसंबर 27 को हुए एक रॉकेट हमले में अमेरिकी कांट्रेक्टर की मौत कई अमेरिकी सैनिकों के घायल हुआ तो अमेरिका ने पलटवार करते हुए इरान समर्थित कतीब हिजबुल्लाह गुट के ठिकाने पर बम बरसाए. इस हमले में २५ लड़ाकों की मौत से नाराज समर्थकों ने ३१ दिसंबर को बगदाद में अमेरिकी दूतावास घेर लिया और तोड़फोड़ की. तनाव के चढ़ते तापमान में अमेरिका ने ३ जनवरी को ईरानी सैन्य कमांडर कासिम सुलेमानी और हशद अल शाबी के डिप्टी कमांडर मेहंदी अल मोहांदिस को मार दिया.

सैन्य टकरा कितना करीब

अमेरिका और ईरान की सैनिक ताकत के बीच यूं तो कोई मुकाबला नहीं है. अमेरिका घोषित सुपरपावर है तो ईरान उसके विरुद्ध सीधी सैन्य लड़ाई में काफी कम. मगर फिर दोनों मुल्कों के बीच दशकों से चले आ रहे तनाव के बावजूद आज तक कोई सीधी जंग नहीं हुई. इसके पीछे वजह तनाव की कमी नहीं बल्कि रणनीतिक मजबूरियां हैं. दोनों मुल्क अपनी कमियां भी जानते हैं और दूसरे की ताकत भी. अमेरिकी पेंटागन के पास ईरान पर बमबारी के प्लान बरसों से तैयार हैं लेकिन लड़ाई के एक इलाके तक सीमित न रहने का खतरा ऐसी किसी भी योजना पर हर बार ब्रेक लगाता है.

पश्चिम एशिया की बिसात पर अमेरिका और ईरान की मौजूदगी एक दूसरे के हितों से कई जगह टकराती है. सऊदी अरब, कतर, बहरीन, अफगानिस्तान, इराक में अमेरिकी ठिकाने हैं तो वहीं इनके आस-पास कहीं न कहीं ईरान के हमदर्द लड़ाके गुट हैं. ऐसे में किसी सीधे सैन्य टकराव की सूरत में अमेरिका को भी इस बात का खतरा है कि ईरान उसके ठिकानों और दोस्तों को निशाना बना सकता है. इसलिए यह लड़ाई अधिकतर गैर-परंपरागत तौर-तरीकों के दायरे में ही नजर आती है.

ईरान के साथ यूरोपीय संघ के कई मुल्कों- रूस और चीन, भारत जैसे मुल्कों के भी अच्छे ताल्लुकात हैं. लिहाजा ईरान के खिलाफ किसी बहुराष्ट्रीय सैन्य कार्रवाई की संभावना धुंधली है. सुरक्षा परिषद से मंजूरी के रास्ते तो बेहद मुश्किल. ईरान की मिसाइल तकनीक, सायबर औऱ ड्रोन युद्ध क्षमताएं भी सीधे युद्ध की आशंकाओं को टालते हैं.

...तो सीधे बात कर क्यों नहीं सुलझाते अमेरिका और ईरान आपसी रिश्ते?

यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि अमेरिका और उत्तर कोरिया के तानाशाह शासक किम जोंग उन के बीच बातचीत हो सकती है तो फिर ईरानी हुक्मरानों के साथ वार्ता क्यों नहीं? इसका जवाब अमेरिका और ईरान के बीच बरसों से चली आदावत में ही है. किम जोंग उन के साथ कभी इजराइल या सऊदी अरब जैसे मुल्कों को वजूद का खतरा नहीं लगता जबकि ईरान उनके करीब बैठा ऐसा पड़ोसी है जिसके साथ उनकी लड़ाई कई मोर्चों वाली है. लिहाजा अमेरिका और ईरान के बीच सीधे संवाद या समझौते की संभावना कम से कम अभी दिखाई नहीं देती.

ईरान की भीतरी उथल-पुथल

मध्य एशिया में मिस्र के बाद दूसरा सबसे बड़ी जनसंख्या वाला मुल्क है ईरान जहां करीब ८.२ करोड़ लोग बसते हैं. इस आबाद में अधिकतर फारसी मूल के लोग हैं. ईरान की गिनती उन मुल्कों में होती है जहां आबादी का एक बड़ा हिस्सा 35 वर्ष से कम का है. लंबे समय से जारी अंतरराष्ट्रीय आर्थिक प्रतिबंध और कमजोर अर्थव्यवस्था के साथ इतनी बड़ी युवा आबादी को साधना ईरान की एक बड़ी चुनौती है. खासकर ऐसे में जबकि यह आबादी काफी पढ़ी लिखी हो.

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अमेरिकी अगुवाई में लगाई गई अंतरराष्ट्रीय पाबंदियों का बढ़ता दबाव ईरान के भीतर भी चरमराहट जरूर पैदा कर रहा है. बीते कुछ समय के दौरान ईरान के भीतर सत्ता विरोधी प्रदर्शन की भी अनेक घटनाएं हुई. इन प्रदर्शनों को सत्ता परिवर्तन की व्यापक कोशिश तो करार नहीं दिया जा सकता. मगर आर्थिक पाबंदियों से परेशान आवाम की इजहार-ए-नाराजगी के तौर पर जरूर पढ़ा जा सकता है. यह बात औऱ है कि अमेरिकी ड्रोन स्ट्राइक में हुई जनरल कासिम सुलेमानी को मौत ने ईरानी आवाम को नए सिरे से इस्लामिक क्रांति की परचमबरदार सरकार के पीछे खड़े होने का मौका दे दिया.

पाबंदियां हटें तो खुल सकता है दरवाजा

ईरान के पास विकास की बहुत संभानाएं हैं. यह बात खुद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी कह चुके हैं. मगर तेहरान और वाशिंगटन के बीच किसी सीधे संवाद की उम्मीद फिलहाल नजर नहीं आती. हालांकि, यदि दोनों मुल्कों के बीच तनाव घटे और पाबंदियां हटाए जाने की कोई सूरत बनती है तो ईरान जैसा मुल्क भारत समेत कई मुल्कों के लिए नई संभावनाओं के दरवाजे खोल सकता है. उसकी युवा आबादी, बैंकिंग से लेकर उद्योग जगत में आधुनिकीकरण के अवसर सबके लिए बढ़ने का मौका भी हो सकता है.

 
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