क्यों मिखाइल गोर्बाचेव को विलेन मानते हैं पुतिन?
Mikhail Gorbachev Death: पूर्व सोवियत संघ के पूर्व राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव को अंतिम विदाई दी जा चुकी है. पहले वाक्य में ही दो बार पूर्व लिखना पड़ रहा है क्योंकि अब सोवियत संघ जैसा कोई देश (देशों का संगठन) नहीं है. भारत के मौजूदा दौर के बच्चों की सामान्य ज्ञान की किताबों में सोवियत संघ (USSR) के बारे में ज्यादा कुछ नहीं मिलेगा, लेकिन जब हम बच्चे थे तब रूस एक अलग देश नहीं था, बल्कि सोवियत संघ का हिस्सा था और मैं और शायद मेरे जैसे लाखों बच्चे सिर्फ एक ही सोवियत नेता का नाम जानते थे, वो थे मिखाइल गोर्बाचेव.
1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ उस वक्त सिर्फ एक टीवी चैनल दूरदर्शन हुआ करता था. चूंकि भारत की सोवियत संघसे अच्छी दोस्ती थी इसलिए दूरदर्शन पर उन्हें थोड़ी बहुत कवरेज मिली थी. हालांकि इस खबर के बारे में ज्यादा जानकारी अखबार से ही मिली. मेरे जैसे बच्चों को अखबार पढ़ने का चस्का लगा ही था. उस वक्त पीवी नरसिम्हा राव भारत के प्रधानमंत्री थे.
भारत के लिए भी 1991 बहुत अहम साल था. भारत ने आजादी के बाद पहली बार प्राइवेटाइजेशन के दरवाजे खोले थे. भारत अब अपनी जरूरतों और आर्थिक तरक्की के लिए सोवियत संघ जैसे देशों पर निर्भर नहीं रहना चाहता था.वो अपने दम पर सक्षम और आत्मनिर्भर बनने के रास्ते पर निकल चुका था.विडंबना देखिए कि सोवियत संघ भी टूटने के बाद ही ओपन इकोनॉमी के रास्ते पर आगे बढ़ा.
खैर, इस लेख का विषय भारत-रूस संबंध और मिखाइल गोर्बाचेव के भारतीय नेताओं के संबंध के बारे में नहीं है. उस विषय पर फिर कभी और चर्चा होगी. इस लेख में सिर्फ मिखाइल गोर्बाचेव की करेंगे जिन्हें दुनिया बहुत बड़ा नेता मानती थी लेकिन उनके अपने देश में वो एक विलेन की तरह देखे गए. यहां तक कि रूस के मौजूदा राष्ट्रपति पुतिन भी उन्हें एक विलेन की तरह ही देखते हैं.मिखाइल गोर्बाचेव के निधन की खबर में रूस की मीडिया की भी बहुत ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखी.ज्यादातर खबरें सिर्फ अपडेट की तरह ही थीं.
शायद यही वजह है कि पुतिन ने उनके निधन पर न किसी राष्ट्रीय शोक का एलान किया, न छुट्टी की घोषणा की, न रूसी ध्वज आधा झुकाने का फैसला किया, न उनके अंतिम संस्कार को राजकीय सम्मान दिया. यहां तक कि पुतिन उनके अंतिम संस्कार में भी नहीं गए.पुतिन ने औपचारिकता के लिए कुछ समय निकालकर उनके पार्थिव शरीर के दर्शन जरूर किए और लाल गुलाब का गुलदस्ता चढ़ाकर वापस चलेआए.पुतिन के दफ्तर से जो बयान जारी किया गया उसकी भाषा भी थोड़ी अजीब लगती है.
क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेसकोव ने कहा 3 सितंबर को पुतिन काम में व्यस्त रहेंगे इसलिए वो अंतिम संस्कार में नहीं जा पाएंगे.साफ है कि पुतिन के लिए गोर्बाचेव की कोई खास अहमियत नहीं हैं. सवाल है कि व्लादिमीर पुतिन मिखाइल गोर्बाचेव को पंसद क्यों नहीं करते या यूं कहें कि रूस की मौजूदा पीढ़ी के ज्यादातर लोग मिखाइल गोर्बेचेव को विलेन क्यों मानते हैं? इसके लिए थोड़ा इतिहास में झांकना पड़ेगा. 1980 के दशक में मिखाइल गोर्बाचेव दुनियाभर के अखबारों की सुर्खियां बने रहते थे.
सोवियत संघ के राष्ट्रपति और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के मुखिया के तौर पर उनके छह साल काफी हलचल भरे रहे. चाहे वो अफगानिस्तान से सेना को वापस बुलाने का फैसला हो, पेरेसत्रोइका और ग्लासनोस्त जैसे राजनीतिक और आर्थिक सुधार की नीतियों को आगे बढ़ाना हो, बर्लिन की दीवार गिराना हो, अमेरिका के खिलाफ कोल्ड वॉर का अंत हो या फिर सोवियत संघ का विघटन होकर 15 देशों में टूट जाना हो, इन घटनाओं की वजह से पूरी दुनिया में उनकी चर्चा होती रहती थी. इन फैसलों की वजह से पश्चिमी देश उन्हें सराखों पर बिठाकर रखते थे. उन्हें सुधारवादी और शांति दूत तक कहते थे. लेकिन उनके अपने लोग उन्हें विलेन के तौर पर देखते थे.
ये वो दौर था जब मौजूदा राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन खुफिया एजेंसी केजीबी के जासूस हुआ करते थे. पुतिन 1975 सेलेकर 1991 तक केजीबी के जासूस थे.यानी उनकी रिपोर्टिंग मिखाइल गोर्बाचेव की सरकार को थी. जब 1989 में बर्लिन की दीवार गिरी थी तब पुतिन जर्मनी में केजीबीके एजेंट थे.ऐसा कहा जाता है कि गोर्बाचेव शासन को जर्मनी में पुतिन के काम करने का तरीका और मंशा ठीक नहीं लगी थी.उन पर शक किया गया था.बदलते राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए आखिरकार पुतिन 1991 में सोवियत संघ के टूटने के दौरान केजीबी से इस्तीफा दे दिया था. ऐसा भी खबरों में आया कि इसके बादपुतिन को अपना खर्च चलाने के लिए टैक्सी तक चलानी पड़ी.
सोवियत संघ जैसी महाशक्ति के टूट जाने से पुतिन बहुत दुखी थे. उनका मानना था कि इतनी बड़ी महाशक्ति को टूटने के पीछे सिर्फ गोर्बाचेव जिम्मेदार थे. उन्होंने इसे 20वीं सदी की सबसे बड़ी भू-राजनीतिक त्रासदी बताया था. दरअसल पुतिन सोवियत संघ को और विशाल और ताकतवर बनते देखना चाहते थे. उनका सपना अमेरिका को पछाड़कर सोवियत संघ को दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क बनाने का था.उनकी ये इच्छा आज भी है. मौजूदा यूक्रेन युद्ध को भी इस संदर्भ में समझा जा सकता है.ऐसे में कई बार पुतिन का व्यक्तित्व कई बार हिटलर और स्टालिन जैसे विस्तारवादी सोच वाले नेताओं जैसा दिखता है.
पुतिन और गोर्बाचेव के रिश्ते को समझने के लिए 1991 के बाद के घटनाक्रम को समझना जरूरी है. सोवियत संघ के विघटन के बाद बोरिस येल्तसिन रूस के पहले राष्ट्रपति बने. जब येल्तसिन बीमार पड़े, तब उन्होंने पुतिन को अपना उत्तराधिकारी चुना. 2007 में जब येल्तसिन की मौत हुई, तब पुतिन रूस के राष्ट्रपति थे. उस समय उन्होंने एक दिन के राजकीय शोक का ऐलान किया था. येल्तसिन को राजकीय विदाई दी गई थी. उनके अंतिम-संस्कार में पुतिन ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था.
येल्तसिन एक तरह से पुतिन के राजनैतिक गुरु माने जाते हैं. माना जाता है कि येल्तसिन ने ही गोर्बाचोव को ठिकाने लगाया. अगर पुतिन येल्तसिन वाला सम्मान गोर्बाचोव को देते तो, इससे ये संकेत जाता कि वो अपने गुरु को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं. शायद इसी वजह से गोर्बाचोव की अतिंम विदाई में उन्हें राजकीय सम्मान नहीं दिया जा रहा है. पुतिन और गोर्बाचेव के कभी भी दोस्ताना संबंध नहीं रहे. हालांकि जब पुतिन रूस के प्रधानमंत्री बने थे तब गोर्बाचेव ने पुतिन की तारीफ की थी. उन्होंने बोरिस येल्सिन के अराजक शासन के बाद रूस को शक्तिशाली बनाने केलिए पुतिन की तारीफ की थी. लेकिन वो पुतिन के बारे में इस तरह के विचार लंबे समय तक कायम नहीं पाए.
गोर्बाचोव तमाम उम्र व्लादिमीर पुतिन के आलोचक रहे. दोनों नेताओं की आख़िरी मुलाक़ात 2006 में हुई थी.गोर्बाचेव ने साल 2011 में पुतिन पर तानाशाही का आरोप भी लगया था. उनका कहना था कि शुरुआती दौर में पुतिन ने अपनी लीडरशिप स्थापित करने के लिए कुछ तानाशाही तरीकों का इस्तेमाल किया था जो उनकी नजर में गलत था. गोर्बाचेव की ये आलोचना इसलिए भी समझ में आती है क्योंकि उन्होंने सोवियत संघ के राष्ट्रपति के तौर पर लोकतंत्र की वकालत की थी.
हालांकि जब पुतिन ने 2014 में क्रीमिया पर हमला किया तो गोर्बाचेव ने उसे सही ठहराया था. गोर्बाचेव का मानना था कि अमेरिका अपनी हदों से आगे जा रहा था. नाटो सेनाओं का रूस की तरफ विस्तार को उन्होंने गलत बताया था. उनका मानना था कि कोल्ड वॉर के बाद अमेरिका समेत पश्चिमी देशों के साथ जो दोस्ताना संबंधों की पहल हुई थी वो मौका नाटो के विस्तार से खत्म हो गया था. हालांकि क्रीमिया के मुद्दे पर उनका पुतिन को समर्थन अपवाद के तौर पर ही देखा जा सकता है.
2016 में टाइम मैग्जीन में छपे लेख में उन्होंने पुतिन की नीतियों को विकास के लिए बाधक बताया. उन्होंने पुतिन को तीसरी बार राष्ट्रपति बनने के फैसले की भी आलोचना की और उन्होंने पुतिन पर स्थायित्व और सम्पन्नता का भ्रम पैदा करने का आरोप भी लगाया. गोर्बाचेव पुतिन के यूक्रेन पर सैन्य कार्यवाही का भी समर्थन नहीं कर सके. बल्कि इस फैसलेकी भी उन्होंने आलोचना ही की. वे बातचीत के पक्ष में ज्यादा दिखाई देते रहे. यूक्रेन हमले पर उन्होंने कहा था कि दुनिया में इंसानी जीवन से कीमती कुछ नहीं है. आपसी सम्मान और रुचियों को पहचान कर की जाने वाली वार्ताएं और बातचीत ही समस्याएं सुलझाने का तरीका है.
खैर अब मिखाइल गोर्बाचेव नहीं रहे. उन्हें अंतिम विदाई दी जा चुकी है. इतिहास उन्हें किस तरह याद रखेगा ये तो आने वाला समय ही बताएगा.अब तो सिर्फ उनकी बातें ही किताबों में रह जाएंगी. रूस के लिए भले वो एक विलेन की तरह रहे हों लेकिन बाकी दुनिया में शायद उन्हें शांतिदूत की तरह ही याद किया जाएगा. खास तौर पर रूस की वजह से जो मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय तनाव पैदा हो रखा है उसे देखते हुए उनकी तीन दशक पुरानी सोच काफी हद तक सही लगती है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)