Uttar Pradesh Assembly Election 2022: कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अब भी न तो यह मानने को तैयार है और न ही उसे दुरुस्त ही करना चाहता है कि युवा नेताओं के लिए पार्टी 'डूबता हुआ जहाज़' आखिर क्यों बनती जा रही है? कांग्रेस में अगर सब कुछ ठीक होता, तो पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया, फिर जितिन प्रसाद, उसके बाद सुष्मिता देव व अशोक तंवर और अब आरपीएन सिंह को कांग्रेस को अलविदा करने की नौबत शायद नहीं आई होती. कांग्रेस नेतृत्व को इस पर बेहद गंभीरता से सोचना चाहिए कि आखिर युवा नेता ही पार्टी क्यों छोड़ रहे हैं. सिंधिया, जितिन और आरपीएन तो राहुल गांधी ब्रिगेड के सदस्य होने के साथ ही मनमोहन सिंह सरकार के भी युवा चेहरे थे, लेकिन ये तीनों ही अब बीजेपी के साथ हैं. वैसे सालों तक मंत्रिमंडल में रहने वाले इन युवा नेताओं ने अगर बीजेपी का दामन थामने का फैसला लिया, तो उसका मतलब साफ है कि इन्हें अगले दस साल तक कांग्रेस में अपना भविष्य अंधकारमय ही नजर आ रहा होगा.
हालांकि इसे अवसरवादी राजनीति और सत्ता में बने रहने की भूख से भी जोड़कर देखा जा सकता है क्योंकि केंद्र के मंत्रिमंडल में रहते हुए भी ये तीनों ही नेता अपना इतना जनाधर नहीं तैयार कर पाये कि इनकी पहचान राष्ट्रीय स्तर के नेता की बन सके. रही बात बीजेपी को इनसे सियासी फायदा होने की, तो बेशक सिंधिया और उनके समर्थक विधायकों के बीजेपी में आने से मध्य प्रदेश में पार्टी को अपनी खोई हुई सत्ता वापस मिल गई. लेकिन जितिन प्रसाद और आरपीएन से बीजेपी को कितना फायदा मिल पाता है, ये तो यूपी चुनाव के नतीजे ही बताएंगे.
पिछले साल जितिन प्रसाद को बीजेपी में शामिल करके पार्टी ने ब्राह्मण कार्ड खेलते हुए योगी सरकार के प्रति उनकी बढ़ती हुई नाराजगी को शान्त करने की कोशिश की थी. जितिन कांग्रेस के कद्दावर ब्राह्मण नेता रहे दिवंगत जितेंद्र प्रसाद के बेटे हैं, जिनका शाहजहांपुर और आसपास के इलाकों में खासा जनाधार हुआ करता था. लेकिन जितिन अगर अपने पिता के उस सियासी कद तक पहुंच गए होते, तो शायद पिछला लोकसभा का चुनाव नहीं हारते. लिहाज़ा, ये मान लेना कि जितिन के आने से बीजेपी को शाहजहांपुर की बेल्ट में ब्राह्मणों का एकतरफ वोट मिल ही जायेगा, बड़ी भूल होगी.
ब्राह्मण चेहरे के बाद बीजेपी को एक ओबीसी चेहरे की भी जरूरत थी, सो आरपीएन सिंह को आज पार्टी में शामिल करके उसने ये कमी भी पूरी कर ली. लेकिन सवाल फिर वही है कि ओबीसी समुदाय में क्या उनका इतना बड़ा जनाधार है कि वे बीजेपी को उनका एकतरफा समर्थन दिलवा सकें?
वह इसलिये कि उत्तर प्रदेश की कुशीनगर लोकसभा सीट से वह सिर्फ एक बार 2009 में ही चुनाव जीते हैं. तब उन्होंने बीएसपी के स्वामी प्रसाद मौर्य को हराया था. उसके बाद साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में वे हार गए. इससे जाहिर होता है कि केंद्र में मंत्री बनने के बावजूद वे अपने संसदीय क्षेत्र में ही अपना जनाधर इतना मजबूत नहीं कर पाए कि दोबारा चुनाव जीत सकें.
आरपीएन सिंह का पूरा नाम कुंवर रतनजीत प्रताप नारायण सिंह है. इन्हें पडरौना में राजा साहेब और भैया जी कहा जाता है. इनके पिता सीपीएन सिंह इंदिरा गांधी सरकार में मंत्री थे और उन्हें इंदिरा का सबसे करीबी समझा जाता था. साल 1964 में वहां के राजपरिवार में जन्में. पडरौना को लेकर माना जाता है कि ये वही जगह है, जहां गौतम बुद्ध ने आखिरी बार भोजन किया था.
हालांकि आरपीएन सांसद बनने से पहले तीन बार पडरौना विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे हैं. संभावना यही है कि बीजेपी इस बार उन्हें इसी सीट से सपा में गए स्वामी प्रसाद मौर्य के खिलाफ मैदान में उतारेगी. पिछली बार मौर्य इसी सीट से चुनाव जीते थे, लेकिन तब वह बीजेपी में थे. वैसे हक़ीक़त तो ये है कि लंबे समय से बीजेपी इस विधानसभा सीट पर चुनाव नहीं जीती थी, जब स्वामी बीजेपी में गए तब इस सीट पर पार्टी को जीत मिली.
आरपीएन की बीजेपी में एंट्री पर स्वामी प्रसाद मौर्य ने तंज कसते हुए कहा है कि, "बीजेपी आरपीएन सिंह को तोप समझकर पार्टी में लाई है, लेकिन विधानसभा चुनावों में वह तमंचा भी साबित नहीं होंगे." अगर वह पडरौना से चुनाव लड़े तो उन्हें करारी शिकस्त का सामना करना पड़ेगा. "आरपीएन सिंह राज महल में पैदा हुए हैं और आम जनता से उनका कोई लेना देना नहीं है."
मौर्य के मुताबिक आरपीएन सिंह की मां मोहिनी देवी जब उनके खिलाफ चुनाव लड़ी थीं, तो उनकी जमानत जब्त हो गई थी. इस बार भी बीजेपी उन्हें पडरौना से चुनाव लड़ाकर बड़ी गलती कर रही है. लोकतांत्रिक व्यवस्था राज महल से नहीं चलती है, जबकि आरपीएन सिंह राजाओं की तरह रहते हैं और जनता से उन्हें कोई लगाव नहीं है.
हालांकि 32 साल तक कांग्रेस में रहने के बाद आज बीजेपी में आते ही वे इसका का गुणगान कर रहे हैं, लेकिन पिछले साल लोकसभा चुनाव में 26 अप्रैल 2019 को कुशीनगर से अपना नामांकन भरने के बाद मीडिया से बात करते हुए आरपीएन सिंह ने जो कुछ कहा था, वह यहां हूबहू प्रस्तुत है- "प्रधानमंत्री जी क्यों नहीं बेरोजगारी की बात करते हैं. यह सिर्फ जुमला है. एक मई को प्रधानमंत्री के अयोध्या जाने के सवाल पर आरपीएन सिंह ने कहा कि पांच साल के बाद उनको भगवान राम की याद आ रही है, पांच साल पहले तो उन्होंने कहा था कि भगवान राम का भव्य मंदिर बनवाउंगा, इस बार वह इस मुद्दे को भूल गए हैं क्योंकि जिसने गरीबों का दिल तोड़ा हो, जिसने किसानों का दिल तोड़ा हो, बेरोजगारों का दिल तोड़ा हो, ऐसे व्यक्ति को भगवान राम भी माफ नही करेंगे."
शायद इसीलिए कहते हैं कि सियासत में नीति का कोई वजूद नहीं होता, यहां राज के मुताबिक ही अपनी नीति बनाने और वक़्त के मुताबिक उसे बदलने में किसी नेता को कोई शर्म नहीं आती और शायद कभी आएगी भी नहीं.
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