Uttar Pradesh Election 2022: उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा ही नहीं, यहां की सियासत भी अनूठी है. चुनाव में प्रचार बहुत मायने रखता है. कहा जाता है कि जो दिखता है, वही बिकता है. मतलब जनता के बीच से लेकर टीवी, अखबार और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जो धमाल मचाए, जनता के दिलों में वो समा जाए. मगर यूपी में हमेशा ऐसा नहीं होता. यहां कई बार न दिखकर भी चुनावी जंग जीतने की बिसात तैयार की जाती है. राज की बात इसी न दिखने वाली समाजवादी पार्टी की सियासत पर कि कैसे अखिलेश ने खुद को प्रचार से दूरकर लखनऊ विधानसभा का रास्ता बनाने की कोशिश शुरू की है.


2014 से लगातार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी का परचम फहरा रहा है. विपक्ष का हर गठजोड़ और रणनीति असफल रही. 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के घावों से खून रिसना बंद नहीं हुआ. एसपी-कांग्रेस-आरएलडी और एसपी-बीएसपी-आरएलडी हर गठजोड़ को बीजेपी ने मुस्लिम तुष्टीकरण के खिलाफ और हिंदुत्व का झंडाबरदार बनकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धराशायी किया. कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर बीजेपी ने तमाम अपराधियों को ठिकाने लगाकर खासतौर से जो अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के नाम पर बच रहे थे, उनको भी ठिकाने लगाया. ये अकेला ऐसा मुद्दा रहा, जिस पर बीजेपी का विजय रथ निर्बाध बढ़ता रहा है.


राज की बात यही है कि इस तथ्य को समझते हुए अखिलेश यादव ने किसी भी कीमत पर बीजेपी की हिंदू-मुस्लिम पिच से बचने के लिए खुद को पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लगभग अलग सा कर लिया है. राज की बात ये कि अखिलेश ने पश्चिम में प्रचार से न सिर्फ खुद को अलग रखा है, बल्कि टिकटों के वितरण में भी विवादित मुस्लिम चेहरों को दूर रखा है. अखिलेश जानते हैं कि अरसे से जाट-मुस्लिम एक दूसरे के खिलाफ वोट करते रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति जाटों में खासी दीवानगी रही है, ये जयंत भी जानते हैं. इसीलिए, प्रचार की रणनीति से लेकर टिकटों का वितरण भी बेहद फूंक-फूंक कर किया गया है.


मसलन सहारनपुर से इमरान मसूद को कांग्रेस से समजावादी पार्टी में तो अखिलेश लाए, लेकिन टिकट नहीं दिया. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जो मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक दंगों का नाभिक बना था और जिसके जख्म अभी तक भरे नहीं है, वहां पर समाजवादी पार्टी और आरएलडी गठबंधन ने पांच विधानसभा सीटों में से एक पर भी मुस्लिम प्रत्याशी नहीं दिया है. तीन आरएलडी के निशान पर हैं और दो एसपी के, लेकिन आरएलडी के दो प्रत्याशी अखिलेश ने ही तय किए हैं. मतलब जाट बहुल सीटों पर हैंडपंप जो कि आरएलडी का चुनाव चिन्ह है, उससे प्रत्याशी अखिलेश ने तय किया है.


और तो और मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपी शहनवाज राणा को भी पूरी तरह से अखिलेश ने पैदल कर दिया है. कादर राणा के परिवार की एक समय मुजफ्फनगर में तूती बोलती थी. कभी बीएसपी तो कभी एसपी से इस परिवार के लोग चुनकर आते रहे. अभी स्थिति है कि बीएसपी ने पहले ही कादर राणा परिवार से दूरी बना ली थी अब अखिलेश ने भी यही किया. यहं तक कि देवबंद सीट जहां पर एक लाख से ज्यादा मुसलमान हैं, वहां पर भी प्रत्याशी हिंदू खड़ा किया है एसपी ने.


राज की बात ये है कि अखिलेश ने जाटलैंड में पूरी तरह से चुनावी प्रचार से खुद को दूर रखने का फैसला किया है. 90 फीसदी से ज्यादा प्रचार की कमान जयंत चौधरी संभाले हुए हैं. अधिसूचना जारी होने के बाद जहां बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में डेरा जमा रहा है. खुद गृह मंत्री अमित शाह और सीएम योगी आदित्यनाथ डोर टू डोर कैंपेन कर रहे हैं. वहीं, अखिलेश ने आरएलडी अध्यक्ष जयंत चौधरी के साथ यहां आकर प्रेसवार्ता भर की. पूरी कोशिश ये है कि किसी भी कीमत में कोई कमजोर बॉल न फेंकी जाए, जिसे बीजेपी ले उड़े और माहौल बदल दे.


राज की बात ये है कि आरएलडी अध्यक्ष जयंत चौधरी ने पहले ही अखिलेश को साफ किया था कि मुजफ्फरनगर दंगे अभी भी जाट समुदाय के दिलो-दिमाग पर छाए हैं. ऐसे में जाट बहुल सीटों पर साईकिल चुनाव चिन्ह पर जाटों के जाने में दिक्कत होगी. इसीलिए जो 32 सीटें आरएलडी को मिली हैं, उनमें से पांच पर अखिलेश ने अपने प्रत्याशी उतारे हैं, ताकि जाटों के मन में कोई आशंका न हो. बाकी विवादित मुस्लिम चेहरों को दूर रखने से लेकर खुद को भी पश्चिम में लोप्रोफाइल रखा है, ताकि कहीं से बीजेपी को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का मौका न मिले.



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