बुधवार 28 जून को उत्तर प्रदेश में आजाद समाज पार्टी के चीफ चंद्रशेखर आजाद पर दिनदहाड़े सहारनपुर में गोली चला दी गयी. हालांकि, गोली उनको छूकर गुजर गयी और वह फिलहाल ठीक हैं. उसके बाद से ही राज्य में कानून-व्यवस्था की हकीकत और दावों के लेकर बहस शुरू हो गयी है. सरकार ने हमेशा की तरह सब कुछ दुरुस्त होने का दावा किया है, लेकिन विपक्ष का कहना है कि यूपी मे कानून-व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है. उनका कहना है कि जेल हो या कचहरी, सड़क हो या अस्पताल, जब पुलिस की मौजूदगी में दिनदहाड़े हत्या हो रही है, गोलियां चल रही हैं तो इसका मतलब है कि सरकार का इकबाल खत्म हो चुका है. 


कानून-व्यवस्था की हकीकत और दावे में 360 डिग्री का फर्क


यूपी में दो तरह की चीजें हो रही हैं. सरकार लगातार ये दावा कर रही है कि उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था बिल्कुल चुस्त है. अभी हाल ही में मुख्यमंत्री ने पुलिस के आला अधिकारियों के साथ बैठक की और उनको पांच बिंदु बताए, जिनमें किसी भी तरह की ढील बर्दाश्त नहीं करने की बात कही थी. इसमें गोहत्या भी शामिल है, बलात्कार, हत्या और डकैती जैसे मामले भी थे. दूसरी तरफ, यूपी में अपराधी बेखौफ हैं, हत्याएं लगातार हो रही हैं. और, जो हत्याएं हो रही हैं तो सामान्य हत्याएं तो बिल्कुल अपनी जगह हैं. कहीं तीन की हत्या हो जा रही है, कहीं चार की हत्या हो जा रही है, तो ये तो बहुत रूटीन सा मामला है.


अभी जब चंद्रशेखर पर हमला हुआ, वह तो बहुत बड़ी बात है, इसके अलावा अतीक अहमद और उसके भाई की अस्पताल के सामने हत्या हुई, मुन्ना बजरंगी को जेल में मारा गया और संजीव जीवा को भरी कचहरी में कत्ल कर दिया गया. ये तीनों नाम ऐसे हैं, जो पुलिस अभिरक्षा में थे, और इनके लिए अतिरिक्त सुरक्षा हमेशा रही. तो, जब आप पुलिस हिरासत में सुरक्षित नहीं हैं, भरी कचहरी में सुरक्षित नहीं हैं, जेल में सुरक्षित नहीं हैं, नेताओं को दिनदहाड़े गोली मारी जा रही है, तो कानून-व्यवस्था के दावे और उसकी हकीकत दोनों में 360 डिग्री का फर्क है. अब एक तरफ होर्डिंग, विज्ञापन और बयान हैं तो दूसरी तरफ जमीनी सच्चाई है.



भय की राजनीति तारी, लेकिन समाज में है चर्चा


बहुतेरी ऐसी घटनाएं हैं, खासकर रेप और रेप के बाद हत्या, के बाद राजनीतिक दलों ने प्रतिनिधिमंडल भेजे. उत्तर प्रदेश की बात करते हैं तो समाजवादी पार्टी के कुछ बड़े नेता भी उन जगहों पर गए. हालांकि, खबरों के ऊपर जो नियंत्रण है, उसमें ये चीजें दिखती नहीं, दिखाने की चूंकि इजाजत नहीं है. यह एक एंगल है. दूसरा एंगल ये है कि सड़कों पर उबाल न आने और दिखने के पीछे भी वजह है. एक मामला याद करना चाहिए. आइपीएस ऑफिसर थे, अमिताभ ठाकुर. उन्होंने ऐसी कई घटनाओं पर स्वतः संज्ञान लिया औऱ कार्रवाई करनी शुरू की या चाही. परिणाम क्या हुआ? उनको जबरन वीआरएस दिया और बाद में वह सात महीने तक जेल में भी रहे. इसी तरह अगर यूपी में विपक्ष का कोई स्थानीय स्तर का नेता ऐसी किसी घटना में जब जाता है, तो उसके बाद उसके खिलाफ मामले खुलने लगते हैं, कुर्की होती है और वह जेल चला जाता है.



ऐसे में विपक्ष को यह समझ में आया हुआ लगता है कि अभी के माहौल में अगर उसने पूरी फोर्स उतारी और वह बुलडोजर की शिकार हुई तो अगली बार कोई लड़ने को नहीं बचेगा. एक भय की राजनीति यूपी में तारी है. अब इसे भय कहें, भय से लड़ने की राजनीति कहें या भय का माहौल, ये तो नेता जानें, लेकिन माहौल तो यही है. जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएंगे, यह हमने कई बार देखा है कि जैसे निकाय चुनाव के पहले जो भी ब्लॉक या गांव का नेता जमीनी मुद्दे उठा रहा था, तो उसे जेल भेजा गया या बुलडोजर चलवा गिया गया. हालांकि, समाज के अंदर तो इसकी खूब चर्चा है. डर का माहौल भारी है, लेकिन समाज जागरूक है घटनाओं से और उस पर बहस भी कर रहा है. 


मायावती को ही लीजिए. उन पर दबाव आज से नहीं है. कई वर्षों से, खासकर 2014 के बाद से उन पर का दबाव बिल्कुल साफ दिख रहा है. वह उनकी राजनीति में दिख रहा है, आचार-व्यवहार में दिख रहा है और उनके ऊपर जो ईडी का शिकंजा है, जो उनके परिवार के ऊपर जेल जाने के खतरे हैं, कहीं न कहीं ये लगता है कि मायावती फिलहाल स्वतंत्र तरीके से एक पॉलिटिकल लीडर की तरह एक्ट नहीं कर रही हैं. हालांकि, उनका ये स्वभाव नहीं है, लेकिन अभी तो विजिबल है दबाव उनके ऊपर. वैसे, हो सकता है कि अखिलेश यादव और जयंत चौधरी और अगर अखिलेश यादव खुद न भी जाएं तो सपा का कोई सीनियर लीडर जरूर चंद्रशेखर से मिलने और सॉलिडैरिटी दिखाने उनके पास जाएगा.


मीडिया भी है परेशान


मीडिया की जहां तक बात है, तो पत्रकारों के ऊपर मुकदमे किए गए. अभी उन्नाव में एक पत्रकार को गोली मार दी गयी. खबरें लिखने के ऊपर गाजियाबाद में एक पत्रकार को उठा लिया गया, फिर उसका सोशल मीडिया पोस्ट डिलीट करवा कर ही उसे छोड़ा. हालांकि, एक बात यह भी है कि छोटे संस्थान या एकल पत्रकार जो हैं, वे काफी मुखर हैं. स्थानीय स्तर के पत्रकार वोकल हैं और खबरें आ रही हैं, तभी तो हम लोगों को पता चलता है. हां, संगठित मीडिया हाउस, नोएडा-दिल्ली स्थित जो मीडिया संस्थान हैं, वे ऐसी खबरें नहीं ला रहे. या तो उनको स्थानीय संस्करणों और पन्ने में अखबार समेट दे रहे हैं या फिर टीवी वाले दो-तीन मिनट की छोटी क्लिपिंग चला समेट ले रहे हैं. ऐसी घटनाओं को फ्रंटपेज पर नहीं आने दिया जा रहा है.  


विकास और लॉ एंड ऑर्डर, जो दोनों मुद्दे हैं, उनको धीरे-धीरे तो कहा जाएगा, लेकिन मुख्य तौर पर नहीं कहा जाएगा. कहा जाए तो, जब से विपक्षी दलों ने जाति-जनगणना की बात की है, तब से बीजेपी परेशान थी. बीजेपी की राजनीति हमेशा ध्रुवीकरण की है, जबकि विपक्ष जातीय समूहों को गोलबंद करना चाहता है. आखिरकार, मामला यहीं टिकेगा और 2024 के चुनाव में यूसीसी जैसे मुद्दे ही प्रमुख होंगे. विकास वगैरह की बातें होंगी, लेंकिन कोर इशू जो है वह यूसीसी और वैसे ही मसले रहेंगे. बीजेपी के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है,लेकिन उसके चांसेज कैसे रहेंगे यह तो जनता ही तय करेगी कि वह इनका बेचा हुआ माल खरीदती है या नहीं? 



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