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उत्तराखंड चुनाव: पहाड़ की ठंड ने आखिर क्यों ला रखी है दिल्ली की सियासत में इतनी गर्मी?

किसी शायर ने ठीक ही लिखा है-
"अपने पड़ोसी का घर टूटता हुआ देख के इतना खुश न हो,

क्योंकि तू भी उसी शीशे के घर में ही रहता है."

लोग मैदानों से निकलकर पहाड़ों की बर्फीली हवा का लुत्फ लेने निकल पड़े हैं लेकिन पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड से सियासत की ऐसी गरम हवा चल निकली है कि दिल्ली में बैठे दोनों बड़ी पार्टियों के नेताओं को समझ नहीं आ रहा कि चुनाव से ऐन पहले इनके बगावती तेवरों को आखिर कैसे संभाला जाए.कांग्रेस मेँ तो प्रियंका गांधी की बात और राहुल गांधी की मुलाकात ने पार्टी के दिग्गज नेता और प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हरीश रावत की तरफ से होने वाली संभावित बगावत को थाम लिया है. लेकिन उत्तराखंड की बीजेपी सरकार के वरिष्ठ मंत्री हरक सिंह रावत ने कल कैबिनेट से इस्तीफा देकर दिल्ली की इस सर्दी में भी बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के पसीने छुड़ा दिए हैं.

जाहिर है कि चुनाव से ऐन पहले उन्होंने अपना इस्तीफा देने की जो वजह बताई है,वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत पार्टी आलाकमान के गले नही उतरने वाली और उन्हें भी समझ आ गया होगा कि हरक सिंह रावत की ख्वाहिश अब मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनने की है.कांग्रेस के हरीश रावत की तरह बीजेपी हरक सिंह रावत को अब कौन-सा सियासी झुनझुना थमाकर अपने पाले में रखेगी, ये तो सिर्फ शीर्ष नेतृत्व ही जानता है लेकिन फिलहाल उसके लिए मुसीबत वैसी ही आ गई है, जिसे दो दिन पहले ही कांग्रेस ने झेला है.

लेकिन अगर ईमानदारी से आकलन किया जाये, तो इस पहाड़ी राज्य में  दोनों बड़ी पार्टियों यानी बीजेपी व कांग्रेस ने सत्ता में आते ही उन लोगों को कोई हिस्सेदारी देने की तरफ सोचा तक नहीं,जिन्होंने खुद को उत्तरप्रदेश से अलग करने और एक नया पहाड़ी राज्य बनाने की लंबी लड़ाई लड़ी थी. देवभूमि कहलाने वाला देश का इकलौता उत्तराखंड ही ऐसा राज्य है जिसे बनाने के लिए वहां के लोगों ने उस पहाड़ से निकलकर देश की राजधानी में आकर ऐसा संघर्ष किया था कि वे दिल्ली के जंतर-मंतर पर सालों तक धरना देते रहे कि आखिर एक दिन तो सरकार उनकी मांग मानेगी ही.कांग्रेस या बाकी दलों से बनी खिचड़ी सरकार ने उनकी इस जायज मांग की तरफ कोई ध्यान नही दिया.लेकिन जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी, तो उन्होंने साल 2020 में उत्तराखंड समेत झारखंड और छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाने का एलान करके वहां के लोगों को एक बड़ी सौगात दी.

लेकिन अलग राज्य बनने के बाद भी बीजेपी ने सत्ता में उन्हें भागीदारी देने से बचने का परहेज़ ही किया,जिन्होंने अलग राज्य बनाने की इस लड़ाई को लेकर उत्तराखंड क्रांति दल का गठन किया था.बाद में,जब कांग्रेस सत्ता में आई,तो उसने भी वही गलती दोहराई.वैसे अपने बागी तेवर अपनाने के बाद हाल ही में कांग्रेस नेता हरीश रावत ने उत्तराखंड क्रांति दल के मुखिया से मुलाकात करके इस क्षेत्रीय दल को तवज्जो देने की अहमियत समझी है कि इनके समर्थन के बगैर राज्य की सत्ता में आने की राह मुश्किल दिखती है.

हालांकि अलग राज्य के आंदोलन के शुरुआती दौर से जुड़े रहे एक्टिविस्ट राजेन्द्र रतूड़ी कहते हैं कि, "इस चुनाव से पहले ही दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों को अपनी गलतियां समझ में आ रही हैं कि स्थानीय स्तर पर काम करने वाले मजबूत नेताओं-कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का खामियाजा उन्हें इस बार किस हद तक भुगतना पड़ सकता है.यही वजह है कि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने उस खाली जगह को भरने का काम किया है.लिहाज़ा,दिल्ली में बैठे नेताओं-पत्रकारों को ये हैरानी नहीं होनी चाहिए कि इस बार सत्ता की चाबी अगर केजरीवाल और उत्तराखंड क्रांति दल के हाथ मे आ जाये."

दरअसल, इसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि पिछले दो दशक में उत्तराखंड की जनता ने बीजेपी और कांग्रेस, दोनों ही को मौका देकर ये आजमाया है कि वे उनकी बुनियादी समस्याओं को दूर करने औऱ उनकी जिंदगी खुशहाल करने के लिए कितने फ़िक्रमंद हैं.लेकिन अफसोस की बात है कि पिछले 21 बरस में दोनों ही पार्टियों की सरकारों ने बड़ी-बड़ी योजनाएं शुरु करने के दावे तो किए. हालांकि उनमें से कुछ परवान भी चढ़ी लेकिन उसका स्थानीय लोगों को कोई खास फायदा नहीं मिल पाया.यही वजह है कि रोजगार की तलाश में इस पहाड़ी राज्य से लोगों का पलायन आज भी थमता नहीं दिखता.

इसीलिये रतूड़ी कहते हैं कि "पहाड़ दोनों बड़ी पार्टियों से नाराज है लेकिन वो खामोश है और इसी नब्ज़ को आम आदमी ने पकड़ लिया है कि उनकी इस नाराजगी को कैसे अपने पक्ष में भुनाया जाए.वहां लोग जिस तीसरे विकल्प की तलाश में थे,उसे काफी हद तक आप पूरा करते हुए दिखाई दे रही है.अब ये अलग बात है कि उसे कितनी सीटें मिलती हैं लेकिन वो बीजेपी औऱ कांग्रेस के वोट बैंक में खासी सेंध लगाते नजर आ रही है."

बहरहाल, साल 1989 में बीजेपी का दामन थामकर अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत करने वाले हरक सिंह रावत के बारे में अब सियासी गलियारों में ये कयास लगाए जा रहे हैं कि वे कांग्रेस में जा सकते हैं.हालांकि कांग्रेस सूत्र कहते हैं कि इससे भला उन्हें क्या हासिल होगा क्योंकि पार्टी एक ही प्रदेश में दो रावतों को तो महत्वपूर्ण पद दे नहीं सकती.

वैसे हरक सिंह रावत के सियासी सफर पर गौर करें, तो उनमें संगठत के प्रति समर्पण व निष्ठा से ज्यादा अवसरवादिता झलकती है.क्योंकि वे पहले भी बीजेपी से नाराज होकर मायावती की बीएसपी के हाथी पर सवार हो चुके हैं और जब कुछ हासिल नहीं हुआ,तो उन्होंने कांग्रेस का हाथ थाम लिया था.जब अहसास हुआ कि वहां भी उन्हें वैसा वजूद नहीं मिल रहा, तो पिछले चुनाव से पहले यानी 2016 में उन्होंने 'घर वापसी' कर ली यानी फिर बीजेपी में आ गए. साल 2017 के चुनाव में बीजेपी बहुमत के साथ सत्ता में आ गई. प्रदेश की राजनीति के जातिगत संतुलन का ख्याल रखते हुए ही पार्टी नेतृत्व ने उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाया. अब बीजेपी नेतृत्व को ये तय करना होगा कि रावत से छुटकारा पाने से पार्टी को कितना नुकसान हो सकता है या फिर उनके दबाव के आगे झुककर पहाड़ की सत्ता को बचाया जा सकता है?

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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