अगले साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा के चुनाव से पहले अगर हवा का रुख देखें,तो सिर्फ उत्तराखंड ही ऐसा राज्य है,जहां कांग्रेस अभी तक सत्ताधारी बीजेपी को कड़ी टक्कर देते हुए उससे सत्ता छीनते हुए दिखाई दे रही थी. लेकिन प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके पार्टी के कद्दावर नेता हरीश रावत के बगावती सुरों वाली नाराजगी सामने आने के बाद अब ये लगता है कि कांग्रेस अपनी जीती हुई बाज़ी हार रही है.
सवाल ये है कि देश की सबसे पुरानी व बड़ी पार्टी का एक वरिष्ठ नेता अगर सार्वजनिक मंच से अपना दुखड़ा रोना शुरु कर दे,तो गलती उस नेता की मानें या फिर पार्टी के उस शीर्ष नेतृत्व की, जो पिछले कुछ अरसे में अपने दो-चार चाटुकारों की दी गई सलाह के मुताबिक ही हर अहम फैसले का फ़रमान सुना देता है.फिलहाल ये कहना मुश्किल है कि हरीश रावत कांग्रेस से बग़ावत करेंगे कि नहीं या फिर यह कि उन्होंने अपनी बात मनवाने के लिए दबाव की राजनीति वाला पुराना सियासी दांव ही खेला है. वैसे जानकार मानते हैं कि उन्हें बग़ावत करने से भी कुछ हासिल नहीं होने वाला क्योंकि बीजेपी तो उन्हें कभी सीएम बनाने नहीं वाली. हालांकि बीजेपी सरकार के मुख्यमंत्री रह चुके त्रिवेंद्र सिंह रावत से महीने भर पहले हुई उनकी मुलाकात के सियासी गलियारों में तमाम तरह के कयास लगाए जा रहे हैं.लेकिन अपनी उम्र व सियासी अनुभव के इस पड़ाव पर आकर वे ऐसा कोई जोखिम नहीं लेना चाहेंगे, जहां बदले में उन्हें कोई सियासी फायदा हासिल न होता हो.
दरअसल, कोरोना की पहली लहर में ही दो बार जिंदगी की जंग लड़कर हार चुके कांग्रेस नेता अहमद पटेल के दुनिया से विदा हो जाने के बाद अब इस पार्टी में ऐसा काबिल कोई रणनीतिकार बचा ही नहीं है,जो सबकी नाराजगी भी दूर कर सके और उनकी मुखालफत भरीआवाज़ को विरोधी दलों की सियासत की नुमाइश बनाने से रोक भी सके.लोगों को याद होगा कि पिछले करीब दो महीने से एबीपी न्यूज़ के लिये देश की एक विश्वसनीय एजेंसी सी-वोटर चुनावी सर्वे कर रही है.उत्तराखंड को लेकर उसके किये पहले से लेकर अब तक हुए आखिरी सर्वे तक के नतीजों में यही कहा गया है कि वहां की जनता सरकार तो बीजेपी की चाहती है लेकिन मुख्यमंत्री के रुप में उसकी पहली पसंद आज भी हरीश रावत ही हैं.यानी प्रदेश में पार्टी से ज्यादा रावत की फेस वैल्यू है और सियासत का गणित ये कहता है कि उसे भुनाने के लिए पार्टी को पूरी ताकत लगा देनी चाहिए. वैसे राजनीतिक विश्लेषक भी यही मानते हैं कि अगर कांग्रेस रावत को सीएम का चेहरा बनाकर पेश करती,तो अकेले उनमें ही इतनी कुव्वत है कि वो बीजेपी को बराबर की टक्कर दे पाते.
लेकिन इसे कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के सियासी अनुभव की नादानी नहीं तो और क्या कहेंगे कि जिस रावत को उत्तराखंड में पार्टी को और अधिक मजबूत करने के मोर्चे पर लगाना चाहिए था,उन्हें पंजाब का प्रभारी महासचिव बनाकर प्रदेश की राजनीति से हाशिये पर ला दिया गया. जाहिर है कि शीर्ष नेतृत्व ने ये फैसला लेने से पहले उत्तराखंड के जमीनी माहौल को जानने के बारे में कोई फीडबैक लेने की जरुरत ही नहीं समझी होगी. हालांकि हम ये दावा नहीं करते कि हरीश रावत उत्तराखंड के कोई बहुत बेहतर मुख्यमंत्री साबित हुए हैं क्योंकि इसका सही आकलन तो वहां की जनता ही कर सकती है. लेकिन ये बात तो खुद कांग्रेस के कई नेता दबी जुबान से स्वीकारते हैं कि कार्यकारी अध्यक्ष भले ही सोनिया गांधी हों लेकिन कमान तो राहुल गांधी के हाथ में है,जो अपनी 'चौकड़ी' के कहे मुताबिक पार्टी को चला रहे हैं,इसीलिये हाल के दिनों में लिए गए उनके कुछ फैसलों पर पार्टी के भीतर से ही सवाल उठना भी लाजिमी है.
वैसे कांग्रेस की नीति रही है कि वो किसी भी राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले आधिकारिक तौर पर मुख्यमंत्री पद के चेहरे के नाम का ऐलान नहीं करती. वो हमेशा सामूहिक नेतृत्व में ही चुनाव लड़ने का राग अलापती आई है.लेकिन सच ये भी है कि चंद लोगों की चौकड़ी से घिरे शीर्ष नेतृत्व में जब अहंकार आ जाए, तो उसे इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ता है. उसी अहंकार के कारण ही कांग्रेस को मध्यप्रदेश की सत्ता से हाथ धोना पड़ा और राजस्थान की सत्ता को भी अगर वो मुश्किल से बचाये हुए है,तो उसका श्रेय राहुल नहीं बल्कि उस प्रियंका गांधी को जाता है,जो राजनीति में अपने भाई से ज्यादा परिपक्व हैं और पार्टी नेताओं से संवाद करने या न करने की अहमियत को बखूबी समझती हैं.
पिछले दो दशक में कांग्रेस का इतिहास बताता है कि जहां भी पार्टी को बहुमत मिला, तो इसका फैसला अक्सर दस,जनपथ से ही होता आया है कि उस राज्य में मुख्यमंत्री कौन होगा. लेकिन इस बार हरीश रावत ने ये कहने की हिम्मत दिखाई कि उन्हें चुनाव से पहले ही सीएम उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाये. जब पार्टी के भीतर उनकी इस ख्वाहिश को कोई तवज्जो नहीं मिली,तब उन्होंने सार्वजनिक मंच से अपना दर्द बयां करके पार्टी को अब मुश्किल भरे दोराहे पर ला खड़ा कर दिया है.
वैसे पार्टी ने उनकी नाराजगी को शांत करने के मकसद से ही उन्हें पंजाब की जिम्मेदारी से मुक्त करके उत्तराखंड की प्रदेश चुनाव प्रचार समिति का प्रमुख बना दिया. लेकिन सियासत के दांव-पेंच समझने में माहिर रावत को जल्द ही ये अहसास भी हो गया कि पार्टी के अंदरुनी विरोधियों ने उन्हें निपटाने के लिए ही ये चाल खेली है,ताकि राज्य में अगर कांग्रेस को बहुमत मिलता भी है,तब भी उन्हें मुख्यमंत्री बनने की रेस से बाहर कर दिया जाये.
अब बड़ा सवाल ये उठाया है कि सचिन पायलट को मनाकर राजस्थान में अपनी सरकार बचाने वाली प्रियंका गांधी आखिर ऐसा कौन-सा रास्ता निकालेंगी कि रावत भी मान जाएं और कांग्रेस भी हारती हुई बाज़ी को जीत ले जाए ?
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]