कहा जाता है कि अगर टिहरी बांध टूटा तो हरिद्वार के साथ साथ दिल्ली को भी ले डूबेगा . टिहरी उतराखंड में आता है. उतराखंड में फिर दरके हैं ग्लेशियर, फिर उफनी है नदियां, फिर टूटे हैं बांध, फिर तबाही का मंजर सामने हैं. क्या इस बार भी हम मातम करेंगे, पर्यावरण बचाने का संकल्प लेंगे, निर्मल अविरल गंगा की बात करेंगे और फिर ओटीटी पर कोई सीरियल देखने लगेंगे, किसान आंदोलन में रिहाना, मीना हैरिस, ग्रेटा थनबर्ग, सचिन तेदुलकर, लता मंगेशकर, विराट कोहली के ट्वीट पर बहस करने लगेंगे. बंगाल में ममता की सरकार रहेगी या बीजेपी आएगी इस पर शर्त लगाने लगेंगे. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि क्योंकि 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद भी पहाड़ों को लेकर बहुत चिंता व्यक्त की गयी थी. कई समितियों का गठन किया गया था. सेमिनार आयोजित किए गये थे लेकिन जमीन पर कुछ नजर नहीं आया .
आखिर बार बार उतराखंड से कुदरत क्यों नाराज हो जाती है या फिर बेतरतीब अवैज्ञानिक विकास का खामियाजा उठा रहे हैं पहाड़ के लोग. दरअसल उतराखंड में पहाड़ों के बीच तेज रफ्तार में बहती भागीरथी, अलकनंदा जैसी नदियां हैं जिनपर बांध बनाए जा रहे हैं. कहा जाता है कि बांध से कुल मिलाकर 25 हजार मेगावाट से ज्यादा बिजली का उत्पादन हो सकता है . चार धाम के लिए आल वैदर रोड बनाई जा रही है . ये सड़क यमुनोत्री गंगोत्री बद्रीनाथ और केदारनाथ धाम को जोड़ेगी . साढ़े पांच मीटर चौड़ाई की सड़क है जो विकास की गंगा पहाड़ों में लेकर आएगी . रेल की पटरियां भी बिछाई जा रही हैं . इससे सैलानी बड़ी संख्या में पहाड़ पर आएंगे . ऐसा होगा तो पहाड़ के लोगों को रोजगार मिलेगा . कहा जाता है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती . लेकिन विकास होगा तो पहाड़ के जवान लोग पहाड़ में ही रहेंगे , रोजगार की तलाश में मैदानों में नहीं आएंगे .
यह सब देखने सुनने में बहुत अच्छा लगता है . उतराखंड में हजारों की संख्या में गांव हैं जो भुतहा घोषित हो चुके हैं यानि ऐसे गांव जहां कोई नहीं रहता , जहां दरवाजें अर्से से खुले नहीं हैं , जहां तालों को जंग लग चुका है , जहां कोई नहीं रहता . बांध बनेगा तो बिजली बनेगी , बिजली बनेगी तो बिजली मिलेगी , बिजली मिलेगी तो आटा चक्की चलेगी , आरा मशीनें चलेंगी , इंटरनेट कैफे काम करेंगे . सीधा सी गणित है लेकिन इसके अपने नुकसान भी हैं . ग्लोबल वार्मिग के कारण पहाड़ तप रहे हैं , ग्लेशियर प्रदूषित हो रहे हैं , मौसम बदलने के कारण बर्फ गिरनी कम हो गयी है . ये बर्फ ग्लेशियर को जोड़ने का काम करती है . यूरोप से धूल के काले कण विक्षोभ के चलते ग्लेशियर तक आ पहुंचे हैं जो ग्लेशियरों को कमजोर कर रहे हैं . माना जा रहा है कि ऐसा ही एक ग्लेशियर प्रदूषण की मार चमौली में झेल नहीं सका . वो बह गया . अपने साथ बहा ले गया बांध के बांध , गांव के गांव , मकान के मकान . ऐसी ही तबाही 2013 में केदारनाथ के उपर बनी झील लेकर आई थी जो अपने ही पानी के बोझ को सह नहीं सकी और किनारे तोड़ बह चली थी . तब हजारों लोग मारे गये थे , दर्जनों गांव मलबे के नीचे हमेशा हमेशा के लिए दब गये थे , हजारों मवेशी काल में समा गये थे . आज भी कुछ लोग वहां मिल जाते हैं जो अपनों को खोज रहे हैं जो 2013 में लापता हो गये . न लाश मिली और न ही जिंदा होने का कोई सबूत लेकिन एक आस बाकी है जो ऐसे लोगों को यहां ले आती है .
कहा जाता है कि उत्तराखंड में पहाड़ कच्चे हैं. अरावली की पहाड़ियों की तरह प्राचीन पहाड़ नहीं है. वहां बांध बनाने के लिए सुरंगों का निर्माण किया जाता है तो पहाड़ के सीने में छेद करना पड़ता है . जानकारों का कहना है कि इससे पहाड़ कमजोर हो जाते हैं . भूकंप के लिहाज से यह इलाका खतरे के जोन में आता है . नब्बे के दशक में भी यहां भयंकर भूकंप आया था . उस समय ही कहा गया था कि कभी तगड़ा भूकंप आया और टिहरी बांध टूट गया तो पानी का सैलाब हरिद्वार से लेकर दिल्ली तक पहुंच जाएगा . हो सकता है कि बात में कुछ अतिश्योक्ति हो लेकिन मकसद यही बताने का कहा है कि पहाड़ों से ज्यादा छेड़छाड़ भारी मुसीबत ला सकती है . चार धाम की यात्रा को सुगम बनाने के लिए रास्ते चौड़े हो रहे हैं तो ब्लास्ट किया जा रहा है , बुलडोजर चलाया जा रहा है . इससे भी पहाड़ अंदर से हिल रहे हैं . हल्की सी बारिश में भी भूस्खलन होना आम बात हो गयी है . रास्ते जाम होना आम बात हो गयी है . ऐसा पहले नहीं होता था . कुल मिलाकर ताजा घटना के बाद पर्यावरण को लेकर गंभीर होना जरुरी है . क्या ऐसा होगा?