अंग्रेजी साहित्य के मशहूर लेखक जॉर्ज बर्नाड शॉ ने लिखा है, दुनिया में दो ही दुख हैं... एक तुम जो चाहो वो न मिले और दूसरा तुम जो चाहो वो मिल जाए. आज वैलेंटाइन डे है, जिसे मनाने के लिए हमारी युवा पीढ़ी पिछले कई बरसों से बौराई हुई है. हालांकि ये पश्चिमी सभ्यता की देन है लेकिन पिछले दो-तीन दशक में भारत में इस मौके पर अपनी प्रेयसी को दी जाने वाली गिफ़्ट का वह सबसे बड़ा बाजार भी बन गया है. इसलिये सारी विदेशी कंपनियों की निगाह इस पर लगी होती है कि इसे भारत में भी बेहद उल्लास व धूमधाम के साथ मनाया जाये.
बर्नार्ड शॉ की उसी बात को आगे बढ़ाते हुए ओशो रजनीश ने कहा है कि- "प्रेम एक दान है, भिक्षा नहीं. प्रेम मांग नहीं, भेंट है. प्रेम भिखारी नहीं, सम्राट है. जो मांगता है उसे जो बांटता है, उसे ही प्रेम मिलता है, इसलिये कि प्रेम एक आध्यात्मिक घटना है और वासना भौतिक है. अहंकार मनोवैज्ञानिक है लेकिन प्रेम आध्यात्मिक है. लेकिन हमारे देश में इस प्रेम-दिवस को मनाते हुए उसका ढिंढोरा पीटने वाले आज ऐसे कितने युवा होंगे जो देह के आकर्षण को दरकिनार करते हुए प्रेम की इस परिभाषा को समझकर उसे अपनाने की कोशिश करने की हिम्मत भी जुटा पायेंगे? शायद नहीं.
इसलिये कि वैलेंटाइन डे की पूरी बुनियाद ही निस्वार्थ प्रेम पर टिकी हुई है जिसका इतिहास जानते हुए भी लोग इसके सबसे अहम पहलू को जान बूझकर किनारे इसलिये कर देते हैं कि उन्हें वो सब कुछ न करना पड़े जो सदियों पहले संत वैलेंटाइन ने किया था. लेकिन सच तो ये है कि वैलेंटाइन के नाम से मनाए जाने वाले इस उत्सव का मतलब होता है प्रेम को वासना से दूर रखना. पर, तस्वीर का दूसरा पहलू ये भी है कि युवावस्था की दहलीज़ पर आने वालों के लिए तो आज प्रेम का मतलब 'प्यार' और एक-दूसरे की देह के प्रति आकर्षण से ज्यादा कुछ नहीं रह गया है. हालांकि हिंदू संस्कृति में जिस तरह कामदेव को प्रेम और आकर्षण का देवता कहा जाता है, ठीक उसी तरह से पश्चिमी देशों में क्यूपिड और यूनानी देशों में इरोस को प्रेम का प्रतीक माना जाता है लेकिन इससे कौन इनकार करेगा कि प्रेम और प्यार में जमीन-आसमान का फर्क है.
प्यार में दिखावा हो सकता है, स्वार्थ हो सकता है, परंतु प्रेम निष्कामता के साथ भीतर से उपजी अनुभूति है जिसका परिणाम समर्पण, शांति और एक अलौकिक खुशी के अहसास के रूप में ही सामने आता है. लेकिन अक्सर एक सवाल ये पूछा जाता है कि वैलेंटाइन डे को मनाया ही क्यों जाता है और इसके पीछे क्या इतिहास है?
दुनिया के हर त्योहार या किसी खास दिन को मनाने की शुरुआत चाहे जिसने भी की हो लेकिन वक़्त गुजरने के साथ वह मानव-इतिहास की ऐसी परंपरा बन जाती है जिसे देश की सीमाओं की बेड़ियों में जकड़ा नहीं जा सकता और उसमें से ही वैलेंटाइन डे यानी प्रेम को इज़हार करने का दिन भी अछूता नहीं रहा. हालांकि इतिहासकारों ने इस दिवस को मनाने की बहुत सारी व्याख्याएं अपने तरह से की हैं. लेकिन सबका लुब्बेलुबाब यही है कि वैलेंटाइन डे का नाम रोम के एक पादरी संत वैलेंटाइन के नाम पर रखा गया है. दरअसल रोम साम्राज्य में तीसरी सदी में क्लॉडियस नाम के राजा का शासन हुआ करता था. क्लॉडियस का मानना था कि शादी करने से पुरुषों की शक्ति और बुद्धि खत्म हो जाती है. अपनी इसी सोच की वजह से उसने पूरे राज्य में यह आदेश जारी कर दिया कि उसके राज्य में कोई भी सैनिक या अधिकारी शादी नहीं करेगा.
लेकिन संत वैलेंटाइन ने क्लॉडियस के इस आदेश पर कड़ा विरोध जताया और पूरे राज्य में लोगों को शादी करने के लिए प्रेरित किया. संत वेलेंटाइन ने रोम में बहुत सारे सैनिकों और अधिकारियों की गुपचुप तरीके से शादी भी करवाई क्योंकि वे दो लोगों के बीच पनपे प्यार पर किसी भी तरह का पहरा या बंदिश लगाने के खिलाफ थे. लेकिन याद रखने वाली बात ये भी है कि यह कहावत ऐसे ही नहीं बन गई कि इतिहास में किसी भी राजा ने एक समाज-सुधारक को सम्मान नहीं दिया, बल्कि उसे अपनी जूतियों के तले रौंदकर अपनी जनता को यही संदेश दिया है कि कल तुम्हारी भी यही हालत होगी. राजा के हुक्म की नाफरमानी करना, तीसरी सदी में सबसे बड़ा गुनाह हुआ करता था और शायद इक्कीसवीं सदी में भी उसमें कोई बहुत बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिलता.
बहरहाल, एक वक्त ऐसा आया जब राजा Claudius को संत वैलेंटाइन के इस परोपकारी कार्य की भनक लग गई तब उसने संत वैलेंटाइन के लिए मौत की सजा का फरमान सुनाते हुए उन्हें जेल में डाल दिया. लेकिन ईश्वर से अपनी लौ को जोड़े रखने वाले किसी भी संत के लिए जेल की सलाखें भला क्या मायने रखती हैं. किसी भी सच्चे संत के पास ईश्वरीय दिव्य शक्ति अवश्य होगी, जो संत वैलेंटाइन के पास भी थी. वे अपनी इस दिव्य शक्ति के जरिये निस्वार्थ भाव से लोगों की बीमारियां दूर किया करते थे. इतिहास के मुताबिक जिस जेल में उन्हें कैद किया गया था, वहां के जेलर Asterius को जब उनकी दिव्य शक्ति के बारे में पता लगा तो वह वैलेंटाइन के पास पहुंचे.
दरअसल Asterius की एक बेटी थी जो कि नेत्रहीन थी और उसके लिए ही वे उनकी मदद चाहते थे. वैलेंटाइन तो थे ही एक दयालु संत लेकिन इतिहास के तथ्यों के मुताबिक उन्होंने अपनी दिव्य शक्ति से उस जेलर Asterius की नेत्रहीन बेटी को उन्हीं आंखों से ये संसार देखने लायक बना दिया. बताते हैं कि कुदरत के इस करिश्मे के बाद संत वैलेंटाइन और जेलर Asterius की बेटी के बीच अब अच्छी खासी दोस्ती हो चुकी थी. धीरे धीरे यह दोस्ती प्यार में बदलती चली गई और दोनों को एक दूसरे से कब प्यार हुआ, ये पता ही नहीं चला. जेलर की बेटी को जब ये पता लगा कि वैलेंटाइन की मौत की तारीख नजदीक आने वाली है तो वह ये इसे सोच कर ही सदमे में चली गई.
आखिरकार वह घडी आ गई जब संत वैलेंटाइन को 14 फरवरी को फांसी के फंदे पर लटका दिया गया. इतिहास के पन्नों में ये बात दर्ज है कि अपनी मौत से पहले संत वैलेंटाइन ने जेलर से एक पेन और कागज मांगा था और उसपर उसने जेलर Asterius की बेटी के लिए अलविदा सन्देश लिखा." इस सन्देश के अंत में वैलेंटाइन ने "तुम्हारा valentine" लिखा था. यही वह लफ्ज है जिसके जरिये दुनिया के तमाम जोड़े प्रेम के उस पहले पुजारी को आज भी याद करते हैं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)