'वंदे मातरम' को जरूरी बनाना अब कानूनी अखाड़े में बन गया है एक सियासी औजार?

पिछले साढ़े आठ सालों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिए भाषणों पर अगर आपने गौर किया होगा, तो याद आ जायेगा कि वे अपने हर भाषण की समाप्ति 'वंदे मातरम' से करते हैं. इस जयकारे को तीन बार लगाते हुए वहां बैठे लोगों से भी इसे दोहरवाते हैं. उसी 'वंदे मातरम' के नारे को अब हाइकोर्ट के कानूनी अखाड़े में ले जाकर ये मांग की गई है कि राष्ट्रगान 'जन गण मन' और राष्ट्रीय गीत 'वंदे मातरम' का दर्जा एक समान है. लिहाजा, देश के सभी लोगों को दोनों को ही बराबर का सम्मान देना चाहिए.
देश के संविधान के मुताबिक जन गण मन देश का राष्ट्रीय गान है, जबकि वंदे मातरम को राष्ट्रीय गीत माना जाता है. राष्ट्रीय गीत को राष्ट्रीय गान के बराबर लाने का मुद्दा कानूनी लड़ाई की शक्ल ले ले, तो फिर ये सवाल उठना भी वाजिब बनता है कि चुनाव आते ही इस तरह की याचिकाएं दायर करने के पीछे आखिर क्या सियासी मकसद होता है? इसलिये कि देश का संविधान बने सात दशक बीत गए लेकिन किसी को अब तक ये ख्याल क्यों नहीं आया कि वंदे मातरम को भी संविधान में वही हैसियत दिलाई जाये?
पिछले एक दशक में देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले लोगों ने इस स्लोगन को कई बार सुना होगा कि 'अगर भारत में रहना है, तो वंदे मातरम कहना होगा. 'हालांकि मुस्लिमों की बहुसंख्य आबादी इससे परहेज़ करती है, इसीलिये किसी भी चुनाव के वक्त इसे एक बड़ा सियासी औजार बनने से कोई रोक भी नहीं सकता. लेकिन वंदे मातरम को राष्ट्र गान की बराबरी पर लाने के लिए छिड़ी इस लड़ाई का इतिहास जानना भी जरूरी है.
बंगाली भाषा साहित्य के भीष्म पितामह कहलाने वाले बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने संस्कृत व बांग्ला मिश्रित भाषा में वंदे मातरम गीत की रचना साल 1882 में की थी, जिसे उन्होंने अपने उपन्यास 'आनंद मठ' में शामिल किया था. इसे आज भी हर भाषा के साहित्य का सिरमौर माना जाता है. कहते हैं कि बंकिम दा का ये उपन्यास 'न भूतो, न भविष्यति' है. तब उनके इस उपन्यास में शमिल यह गीत सबसे पहले भवानन्द नाम के एक संन्यासी द्वारा गाया गया था और उसकी धुन यदुनाथ भट्टाचार्य ने बनायी थी. इस गीत को गाने में महज 65 सेकेंड यानी (1 मिनट और 5 सेकेंड) का समय लगता है.
बंकिम दा के उसी गीत को आरएसएस ने अपनी स्थापना के करीब 15 साल बाद इसे अपनी प्रार्थना बनाया. आज भी समूचे देश में सुबह या शाम लगने वाली हर शाखा का आरंभ "नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे" से ही होता है. हालांकि संपूर्ण प्रार्थना संस्कृत में है, केवल इसकी अन्तिम पंक्ति (भारत माता की जय!) ही हिन्दी में है. उस जमाने में संघ के स्वयंसेवक रहे पुणे के नरहरि नारायण भिड़े ने इस प्रार्थना का संस्कृत में रूपान्तरण किया था. उसके बाद इसे सर्वप्रथम 23 अप्रैल 1940 को पुणे के संघ शिक्षा वर्ग में गाया गया था, जिसे संघ के ही एक स्वयंसेवक यादव राव जोशी ने इसे सुर प्रदान किया था. संघ की शाखा या अन्य कार्यक्रमों में इस प्रार्थना को आज भी अनिवार्य रूप से गाया जाता है और भगवा ध्वज के सम्मुख नमन करने की परंपरा भी तभी से चली आ रही है.
दरअसल, वंदे मातरम को राष्ट्रगान की तरह बराबर का सम्मान देने वाली ये याचिका दिल्ली हाइकोर्ट में एक वकील अश्विनी उपाध्याय ने दायर की है, जिनका नाता बीजेपी से है,इसलिये ये सवाल भी उठ रहा है कि अल्पसंख्यक समुदाय के विरोध को देखते हुए जो फैसला लेने में सरकार हिचक रही है,उसे अब वह कानूनी तरीके से अमलीजामा पहनाना चाहती है. हालांकि इस सवाल का जवाब भी अब सामने आ चुका है,जिससे साफ हो जाता है कि सरकार की नीयत क्या है.
केंद्र सरकार ने इस याचिका में उठाये गए मुद्दों का समर्थन करते हुए कोर्ट में दिये जवाब में साफ कर दिया है कि उसे ऐसा करने में कोई ऐतराज नहीं है. केंद्र ने इस याचिका पर अपना जवाब देते हुए कहा है कि राष्ट्रगान 'जन गण मन' और राष्ट्रीय गीत 'वंदे मातरम' 'एक ही समान हैं. सरकार ने यह भी कहा है कि नागरिकों को दोनों का समान रुप से सम्मान करना चाहिए. बता दें कि हाइकोर्ट में दाखिल इस अर्जी में मांग की गई थी कि वंदे मातरम को भी वही दर्जा और सम्मान मिलना चाहिए, जो राष्ट्र गान को दिया जाता है. इसके अलावा राष्ट्रीय गीत के सम्मान को लेकर सरकार द्वारा गाइडलाइंस तैयार करने की भी मांग की गई है. उसी पर हाईकोर्ट ने गृह मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय, संस्कृति मंत्रालय एवं कानून मंत्रालय को नोटिस जारी कर जवाब मांगा था.
केंद्र सरकार के वकील मनीष मोहन ने कहा कि राष्ट्रगान के विपरीत 'वंदे मातरम' गाने या बजाने के बारे में कोई दंडात्मक प्रावधान या आधिकारिक निर्देश नहीं हैं.यह गीत भारतीयों की भावनाओं और मानस में एक अद्वितीय स्थान रखता है और राष्ट्रीय गीत के संबंध में उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के सभी निर्देशों का पालन भी किया जा रहा है.
दरअसल, याचिकाकर्ता ने कोर्ट से गुहार लगाई है कि केंद्र और राज्य सरकारों को आदेश दिया जाए कि वे तय करें कि हर वर्किंग डे पर स्कूलों एवं अन्य शिक्षण संस्थानों में जन गण मन और वंदे मातरम गाया जाए. इसके अलावा संविधान सभा में 24 जनवरी, 1950 को पारित प्रस्ताव के मुताबिक दोनों के समान सम्मान के लिए गाइडलाइंस भी तय की जाएं. सवाल ये है कि जिस तरह आप किसी घोड़े को नदी-तालाब तक तो ले जा सकते हैं लेकिन उसे जबर्दस्ती पानी नहीं पिला सकते,ठीक वैसे ही किसी शख्स को जबरन कोई भी राष्ट्रीय गान गवाने से उसमें राष्ट्रभक्ति की भावना आखिर कैसे पैदा करेंगे?
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