इस साल अब मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में  विधानसभा चुनाव होना बचा है. इनमें राजस्थान और छत्तीसगढ़ ऐसा राज्य है, जहां फिलहाल कांग्रेस की सरकार है. इन दोनों राज्यों में इस बार बीजेपी चाहेगी कि वो किसी भी तरह से कांग्रेस से सत्ता छीन सके.


बड़ा राज्य होने की वजह से राजस्थान पर बीजेपी की नज़र ज्यादा है. वहीं कर्नाटक में मिली जीत के बाद कांग्रेस राजस्थान में तमाम अंदरूनी गुटबाजी के बावजूद सत्ता बरकरार रखने की हर संभव कोशिश करेगी. राजस्थान विधानसभा का कार्यकाल 14 जनवरी 2018 को खत्म हो रहा है. ऐसे में यहां मध्य प्रदेश के साथ नवंबर-दिसंबर 2023 में चुनाव हो सकता है. राजस्थान में 200 विधानसभा सीटें हैं और सरकार बनाने के लिए 101 सीटें चाहिए.


राजस्थान में भले ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व पार्टी प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट के बीच पिछले 4 साल से तनातनी है, उसके बावजूद कांग्रेस के लिए ये एक ताकत ही है कि राजस्थान में उसके पास गहलोत और पायवट के तौर पर दो ऐसे बड़े स्थानीय नेता मौजूद हैं, जिनका सूबे में बड़ा जनाधार है. कांग्रेस के लिए कम से कम राज्य की जनता ये तो जानती है कि इन दोनों में से ही कोई एक अगले चुनाव के बाद सत्ता मिलने पर मुख्यमंत्री बनेगा. इस मामले में बीजेपी ने फिलहाल अपने पत्ते नहीं खोले हैं.


वसुंधरा राजे राजस्थान में सबसे बड़ा चेहरा


ऐसे तो वसुंधरा राजे के तौर पर बीजेपी के पास राजस्थान में बहुत बड़ा चेहरा है, लेकिन जिस तरह से पिछले 4 साल से राज्य की पार्टी गतिविधियों में वसुंधरा राजे की उपेक्षा होते रही है, उससे ये कयास लगाया जाने लगा कि आगामी विधानसभा चुनाव में बीजेपी कोई स्थानीय चेहरा घोषित करेगी या फिर पार्टी के वरिष्ठ नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही चेहरा होंगे.


कर्नाटक नतीजों के बाद बीजेपी अपनी रणनीति बदलने को मजबूर हो सकती है. कर्नाटक में बीजेपी की हार का एक प्रमुख कारण यहीं था कि उसके पास केंद्रीय नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी चेहरा थे. बीएस येदियुरप्पा के चुनावी राजनीति से अलग होने के बाद सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार की काट के तौर पर बीजेपी के पास कोई दमदार स्थानीय चेहरा नहीं था, जिसे आगे कर वो चुनाव लड़ पाती. यही वजह है कि राजस्थान में बीजेपी को स्थानीय चेहरे को आगे करने की रणनीति पर बढ़ना होगा.


अजमेर में पीएम मोदी की रैली से मिलते हैं संकेत


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 31 मई को अजमेर में विशाल रैली कर एक तरह से राजस्थान में पार्टी के लिए चुनाव अभियान शुरू करने का बिगुल बजा दिया. इस रैली में मंच पर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भी मौजूद थीं. इस दौरान दोनों के हाव-भाव से ये संकेत मिलते हैं कि बीजेपी राजस्थान में कर्नाटक वाली ग़लती नहीं दोहराएगी और इसकी भरपूर संभावना है कि वसुंधरा राजे को ही आगे कर विधानसभा चुनाव के दंगल में उतरेगी.


पिछले कुछ सालों में सतीश पूनिया के प्रदेश अध्यक्ष रहने के दौरान जिस तरह का रवैया बीजेपी राज्य इकाई और वसुंधरा राजे का एक-दूसरे के प्रति रहा था, उसकी वजह से अजमेर रैली में सबकी नज़र वसुंधरा राजे पर टिकी थी. हालांकि जो जेस्चर वसुंधरा राजे का रहा, ये बीजेपी के लिए सकारात्मक संदेश है. कुछ वक्त पहले तक ये भी कहा जाता था कि वसुंधरा राजे को लेकर शीर्ष नेतृत्व का व्यवहार रुखा-सूखा रहा है. लेकिन अजमेर रैली में जिस तरह की तस्वीर दिखी, उससे  एक संकेत मिला है कि अब वसुंधरा राजे ही पार्टी का चेहरा होंगी. इस रैली में पीएम मोदी ने हाथ जोड़कर वसुंधरा राजे का अभिवादन भी स्वीकार किया और दोनों नेताओं के बीच कुछ देर बातचीत भी हुई.



अजमेर रैली में एक और बदलाव देखने को मिला. 2018 में राजस्थान विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार होती है. उसके बाद सितंबर 2019 में अंबर से बीजेपी विधायक सतीश पूनिया यहां वसुंधरा राजे के न चाहने के बावजूद पार्टी प्रदेश अध्यक्ष बनते हैं.  सतीश पूनिया इस साल मार्च तक इस पद पर रहते हैं. 2018 में बीजेपी की हार के बाद से ही वसुंधरा राजे राजनीतिक तौर से कम सक्रिय दिख रहीं थीं. सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने के बाद बीजेपी की प्रदेश स्तरीय राजनीति में वसुंधरा राजे हाशिये पर थीं. इस दौरान बीजेपी राज्य इकाई के कार्यक्रमों के दौरान कई बार वसुंधरा राजे नहीं दिखीं. इसके साथ ही राज्य में बीजेपी के होर्डिंग और पोस्टरों से भी वसुंधरा राजे गायब हो गई थीं.


लेकिन 31 मई को अजमेर रैली के दौरान वसुंधरा राजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ठीक बगल में बैठी दिखाई दीं. रैली के लिए लगाए गए होर्डिंग और पोस्टरों में भी वसुंधरा राजे हर जगह नज़र आ रही थी. अजमेर रैली के दौरान जो बदला-बदला माहौल था, उससे साफ संकेत मिल रहा है कि आगामी विधानसभा चुनाव में बीजेपी वसुंधरा राजे को कमान सौंप सकती है. कर्नाटक से सबक लेते हुए ये एक तरह से बीजेपी के लिए क्षेत्रीय नेताओं की अहमियत को समझने की मजबूरी भी है.


क्या कर्नाटक में हार से बीजेपी लेगी सबक


ऐसा कहना भी उचित नहीं है कि कर्नाटक चुनाव नतीजों के बाद ही बीजेपी ने राजस्थान के लिए अपनी रणनीति को अंजाम देना शुरू किया है. वसुंधरा राजे और सतीश पूनिया के बीच तनातनी का असर पार्टी पर पड़ सकता था. इसको देखते हुए पार्टी ने दोबारा प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी को लिए सतीश पूनिया पर भरोसा नहीं जताया. मार्च में उनकी जगह चित्तौड़गढ़ से सांसद चंद्र प्रकाश जोशी को राजस्थान बीजेपी का अध्यक्ष बना दिया जाता है और यहीं से वसुंधरा राजे को लेकर पार्टी के रवैये में बदलाव का सिलसिला दिखने लगता है. ये बात और है कि वसुंधरा राजे को लेकर रवैये में जिस तरह से बदलाव आ रहा है, उसे कर्नाटक की हार को देखते हुए बीजेपी की बदली रणनीति के तौर पर सियासी जानकार देख रहे हैं.


वसुंधरा राजे राजस्थान में बड़े कद की नेता


ऐसा नहीं है कि सिर्फ कर्नाटक हार ही एक मुद्दा है, जिससे बीजेपी के लिए पार्टी की अहमियत और बढ़ जाती है. दरअसल वसुंधरा राजे का कद राजस्थान में इतना बड़ा है कि बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व चाहकर भी उनकी उपेक्षा चुनाव में नहीं कर सकता है.


कर्नाटक के बाद फिलहाल बड़े राज्यों में राजस्थान ही एक ऐसा सूबा है, जहां फिलहाल कांग्रेस की सरकार है और वहां कांग्रेस की स्थिति भी बेहद मजबूत है. सचिन पायलट के तमाम कोशिशों के बावजूद जिस तरह से कांग्रेस नेता और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपना कार्यकाल पूरा करने के करीब पहुंच चुके हैं, इससे पता चलता है कि गहलोत कितने मंझे हुए राजनीतिक खिलाड़ी हैं. 


25 साल से राजे-गहलोत के इर्द-गिर्द राजनीति


करीब ढाई दशक से राजस्थान की सत्ता वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत के इर्द-गिर्द ही घूमते रही है. वहां बीते कुछ चुनाव से हर पांच साल में सत्ता में बदलाव की परंपरा रही है. राजस्थान में पिछले 6 चुनाव से बीजेपी और कांग्रेस बारी-बारी से सत्ता में आती है. ये सिलसिला 1993 से जारी है. 1993 से यहां कोई भी पार्टी लगातार दो बार चुनाव नहीं जीत सकी है. परंपरा कायम रहने के हिसाब से देखें, तो सत्ता की दावेदारी बीजेपी की बन रही है. लेकिन जिस तरीके से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत एक के बाद एक लोक-लुभावन वादे और घोषणाओं की एलान कर रहे हैं, वो साफ दिखाता है कि कांग्रेस इस बार राजस्थान में हर पांच साल पर सत्ता परिवर्तन की परंपरा बदलने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है.


गहलोत लगातार लोकलुभावन घोषणाएं कर रहे हैं


इसी कड़ी में अशोक गहलोत ने 31 मई को बड़ा चुनावी दांव चलते हुए राज्य के हर लोगों के लिए पहली 100 यूनिट बिजली फ्री करने की घोषणा की, इसमें साफ किया गया कि चाहे बिजली बिल कितना भी आए, पहले 100 यूनिट का कोई भी शुल्क किसी से नहीं वसूला जाएगा. एंटी इनकंबेंसी से निपटने और सचिन पायलट से मनमुटाव के असर को कम करने के लिए अशोक गहलोत लगातार लोकलुभावन योजनाओं का ऐलान कर रहे हैं. इस साल के बजट में भी ऐसी की घोषणाएं की गई थी, जिनमें कई नए जिले बनाने और महिलाओं को स्मार्ट फोन देने जैसी योजनाएं भी शामिल हैं.


इस बीच कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भी अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच तकरार को दूर करने के लि पहले से ज्यादा सक्रिय दिख रहा है. यही वजह है कि कुछ दिनों पहले पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी ने गहलोत-पायलट के साथ दिल्ली में बैठक की थी. ऐसे भी अशोक गहलोत ये बात समझ चुके हैं कि चाहे कुछ हो सचिन पायलट के सामने चुनाव में कांग्रेस के साथ बने रहने के अलावा कोई और बेहतर विकल्प नहीं है.


राजस्थान में सचिन पायलट युवा नेता के तौर पर काफी लोकप्रिय हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है. इसके बावजूद उन्हें ये एहसास है कि बीजेपी में जाने का कोई फायदा नहीं है क्योंकि बीजेपी की जो परंपरा और नीति है, उसके तहत हिमंत बिस्वा सरमा को छोड़ दें तो बाहर से आए लोगों को इतनी जल्दी मुख्यमंत्री बनाने का रिकॉर्ड नहीं रहा है. अलग पार्टी बनाना भी उनके लिए आसान नहीं होगा. अपनी उम्र को देखते हुए उन्हें ये भी एहसास होगा कि कांग्रेस में रहते हुए ही वे राज्य के मुख्यमंत्री कभी न कभी बन ही सकते हैं.


गहलोत की काट वसुंधरा ही निकाल सकती हैं


ऐसे हालात में कांग्रेस फिलहाल राजस्थान में काफी अच्छी स्थिति में दिख रही है. अशोक गहलोत और सचिन पायलट की लोकप्रियता को देखते हुए बीजेपी के लिए वसुंधरा राजे से बड़ा कोई नेता यहां नहीं है. राज्य में पार्टी की सबसे वरिष्ठ और कद्दावर नेता वसुंधरा राजे को आगे करके ही बीजेपी गहलोत का तोड़ निकाल सकती है.


ये सही है कि सतीश पूनिया के प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए वसुंधरा राजे पार्टी के की कार्यक्रमों से दूरी बना ली थीं, लेकिन ऐसा नहीं है कि वे अपने स्तर से राज्य में कोई गतिविधि नहीं कर रहीं थीं. उन्हें जब भी मौका मिलता था, चाहे उनका जन्मदिन हो या फिर कोई और मौका, वसुंधरा राजे अपना शक्ति प्रदर्शन करने से पीछे नहीं हटती थीं. इन मौकों पर उनका आक्रामक तेवर भी दिखने को मिलता रहा है.


मार्च आते-आते तक बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को डर सताने लगा था कि कहीं वसुंधरा राजे की नाराजगी और पार्टी की एकजुटता को लेकर कार्यकर्ताओं और जनता के बीच संशय न पैदा हो जाए. यहीं वजह है कि सतीश पूनिया की जगह सीपी जोशी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाता है. पहले सतीश पूनिया बार-बार ये दोहरा रहे थे कि विधानसभा चुनाव पीएम मोदी के चेहरे पर ही लड़ा जाएगा. इस तरह के बयान से वसुंधरा राजे के साथ उनका टकराव खुलकर सामने आ रहा था, जो आगामी चुनाव के लिहाज से पार्टी के लिए ठीक नहीं था.


वसुंधरा राजे का विकल्प खोजना आसान नहीं


दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री रह चुकीं 70 साल की वसुंधरा का विकल्प खोजना किसी के लिए आसान नहीं हो सकता है. बीते 25 साल से बीजेपी की सिर्फ वहीं एक नेता हैं जिन्हें राजस्थान के हर वर्ग का समर्थन मिलते रहा है. उनका प्रभाव राज्य के हर इलाके में रहा है. 2018 के विधानसभा चुनाव में ये स्पष्ट दिखा था कि बिना वसुंधरा राजे को आगे किए सिर्फ पीएम मोदी के नाम पर राज्य की सत्ता पर काबिज होने के लिए यहां के लोगों का समर्थन पाना उतना आसान नहीं है. 2018 में बीजेपी का एक वर्ग वसुंधरा राजे से नाराज था. उस वक्त इन लोगों ने चुनाव में  'मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं' का स्लोगन चलाया. हालांकि इस स्लोगन से बीजेपी को नुकसान ही उठाना पड़ा और सत्ता गंवानी पड़ी. 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 100 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं 90 सीटों के नुकसान के साथ बीजेपी को सिर्फ 73 सीटें ही मिली थी.


डेढ़ साल से बेहद सक्रिय हैं वसुंधरा राजे


पार्टी का शीर्ष नेतृत्व पसंद करे या नहीं, वसुंधरा राजे खुद को अपने समर्थकों के जरिए सीएम चेहरे के रूप में पेश करते आ रही थीं. 2022 में राजस्थान के कई जगहों पर 'कहो दिल से, भाजपा फिर से' की जगह 'कहो दिल से, वसुंधरा फिर से' का पोस्टर दिखा था. वसुंधरा राजे की सक्रियता 2022 से ही बढ़ी हुई है.  8 मार्च 2022 को अपने जन्मदिन पर उन्होंने बूंदी के केशोरायपाटन में बड़ी जनसभा की थी और इसमें जुटी भारी भीड़ के जरिए अपने विरोधियों को सीधा संदेश दिया था कि आगामी चुनाव में सीएम पद की दावेदारी को नहीं छोड़ा है. उसके कुछ दिन बाद ही वसुंधरा राजे ने दिल्ली आकर संसद भवन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी. पिछले कुछ महीनों में उन्होंने राजस्थान के कई शहरों में जनसभाओं के जरिए अपनी ताकत भी दिखाई थी.


राजस्थान की राजनीति की माहिर खिलाड़ी


ऐसे भी वसुंधरा राजे राजस्थान की राजनीति की माहिर खिलाड़ी मानी जाती हैं. भैरो सिंह शेखावत को छोड़ दें, तो वसुंधरा राजे ही एक मात्र नेता हैं, जिनके पास बीजेपी की ओर से राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने का अनुभव है. वसुंधरा राजे दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री रही हैं. वे राजस्थान की पहली और एकमात्र महिला मुख्यमंत्री भी थी. वे दिसंबर 2003 से दिसंबर 2008 और दिसंबर 2013 से दिसंबर 2018 तक मुख्यमंत्री रही हैं. राजस्थान की मुख्यमंत्री बनने से पहले वसुंधरा राजे अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रह चुकी हैं. वसुंधरा राजे फिलहाल बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और  झालरापाटन से विधायक हैं.


2013 में वसुंधरा राजे की अगुवाई में बीजेपी ने राज्य की 200 में से 163 सीटों पर जीत दर्ज की थी. कांग्रेस सिर्फ 21 सीट पर सिमट गई थी. राजस्थान में इतनी बुरी स्थिति कांग्रेस की कभी नहीं हुई थी. वसुंधरा राजे का ही करिश्मा था कि 2013 में बीजेपी ने राजस्थान में अब तक का सबसे बढ़िया प्रदर्शन किया था. राजस्थान में ये बीजेपी की सबसे बड़ी जीत थी. राजस्थान के राजनीतिक इतिहास में अब तक कोई भी पार्टी इतनी सीटें नहीं जीत पाई है.


वसुंधरा से बड़े कद का बीजेपी के पास नेता नहीं


सूबे में वसुंधरा राजे से बड़े कद का बीजेपी के पास फिलहाल कोई नेता नहीं दिखता. तमाम विरोधाभासों के बावजूद अभी भी वसुंधरा राजे राजस्थान में जननेता के तौर पर बेहद लोकप्रिय हैं. यही वजह है कि उनकी दावेदारी को खारिज करना बीजेपी के लिए आसान नहीं रहा है. अब तो कर्नाटक के बाद बीजेपी के पास एक सबक भी है. 


राजनीतिक विरासत के नजरिए से राजस्थान बेहद अहम


राजनीतिक विरासत के नजरिए से राजस्थान बीजेपी के लिए बेहद ही महत्वपूर्ण राज्य है. अप्रैल 1980 में नई पार्टी के तौर पर बीजेपी देश की राजनीति में आई. इसके अगले ही महीने मई 1980 में राजस्थान विधानसभा चुनाव होता है और यहां पहली बार चुनावी दंगल में उतरते हुए बीजेपी 32 सीटें जीतने में कामयाब हो जाती है.


इतना ही नहीं गठन के बाद राजस्थान उन चुनिंदा राज्यों में से एक है, जहां बीजेपी सबसे पहले सरकार बनाने में कामयाब हुई.  मार्च 1990 में बीजेपी राजस्थान के साथ ही हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश में सरकार बनाने में कामयाब हुई. उसमें भी राजस्थान में इन दोनों राज्यों से एक दिन पहले बीजेपी की सरकार बनी. राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत की अगुवाई में बीजेपी ने पहली बार 4 मार्च 1990 को सरकार बनाई थी. हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश में 5 मार्च 1990 को बीजेपी की सरकार बनी थी.


सबसे बेहतर विकल्प वसुंधरा राजे ही हो सकती हैं


2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए भी राजस्थान विधानसभा का आगामी चुनाव बीजेपी के लिए काफी महत्वपूर्ण है. ये वो राज्य है, जहां बीजेपी 2014 और 2019 दोनों ही लोकसभा चुनाव में शत-प्रतिशत सीटें जीत चुकी है. कांग्रेस की मजबूत स्थिति को देखते हुए और अशोक गहलोत-सचिन पायलट प्रकरण के ज्यादा नुकसान नहीं होते देख बीजेपी के लिए ये जरूरी हो जाता है कि वो यहां स्थानीय चेहरे को आगे करते विधानसभा चुनाव लड़े. बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के लिहाज से इस सांचे में सबसे बेहतर विकल्प वसुंधरा राजे ही हो सकती हैं. अगर बीजेपी चाहती है कि राजस्थान की जनता सत्ता बदलने की परंपरा को बनाए रखे तो फिर मौजूदा हालात में उसके लिए वसुंधरा राजे को आगे लाने के अलावा कोई और चारा नहीं है.


(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)