नई दिल्ली: जैसे ही इस अदाकार की मौत की ख़ब़र आई, यकायक यादों की घड़ी की सुई टिक टिक करती हुई 15 साल अतीत में चली गई. ये वो ज़माना था जब मैं दिल्ली में नया-नया था, जामिया में एडमिशन को कुछ महीने ही गुज़रे थे. जामिया-डे के मौके से कैंपस में कई सांस्कृतिक प्रोग्राम किए जा रहे थे. उनमें ही एक नाटक मौलाना अबुल कलाम आज़ाद पर भी था.

जब बात मौलाना आज़ाद की थी, ये दीवाना वक़्त से पहले ही ऑडिटोरियम में हाजिर था. तब मैं टॉम ऑल्टर से अनजान था.

जैसे ही सोलो नाटक शुरू हुआ. करीब 5 दशक पहले ही दुनिया से जा चुके मौलाना आज़ाद को अंसारी ऑडिटोरियम के मंच से 'जिंदा' इंसान के तौर पर ज़ाहिर होते देखा. सर पर टॉपी, हाथ में छड़ी, बंद गले की शेरवानी, चुस्त पैजामा, कड़कदार मूछें और छोटी दाढ़ी... बहुत ही असरदार शख्सियत.



जब अतिप्रभावशाली आवाज़ गूंजी. उर्दू के भारी भरकम शब्दों ने कानों में दस्तक दिए. ऐसा समा बंधा कि मौलाना आज़ाद की शख्सियत खुद ही महफिल में हाजिर सी हो गई है. अपनी कहानी वो ख़ुद ही बयान कर रहे हैं. जो शब्द अदा किए जा रहे थे, ऐसा महसूस हो रहा था कि उनकी खुद की ज़बान से बयान किए जा रहे हों. लेकिन सच्चाई ये थी कि जो कुछ दिख रहा था, जो कुछ बयान किया जा रहा था... इसे पेश करने वाले का संबंध भारत से नहीं, बल्कि वेस्ट से था.

उसका नाम था टॉम ऑल्टर..

आज जब उस फनकार ने अपनी आखिरी सांसें लीं तो ऐसा लगा कि एक ऐसी शख्सियत हमें छोड़कर चली गई... जो फिल्म और टीवी का प्रख्यात अदाकार और थिएटर की दुनिया का बेताज बादशाह होने के साथ-साथ उर्दू का भी बड़ा फनकार था. आज दिल्ली शहर दिल्ली गंगा-जुमनी तहज़ीब के एक सितारे से महरूम हो गया.


मुझे अफसोस है कि मैंने उन्हें मिर्जा गालिब और मुग़लिया सल्तनत के आखिरी ताजदार बहादुरशाह ज़फ़र के किरदार में नहीं देख पाया. लेकिन न सिर्फ भारत, बल्कि दुनिया फिल्म, टीवी और थिएटर के क्षेत्र में किए गए उनके कामों को हमेशा याद रखेगी.


जब भी बात 'शतरंज के खिलाड़ी' और 'जुनून' की होगी. टॉम ऑल्टर खुद ही हमारे बीच 'आशिकी' करते आ जाएंगे. 'परिंदा' बनकर 'सरदार पटेल' और 'गांधी' की बातें करेंगे. क्रिकेट के मैदान पर जब भी कोई बात छिड़ेगी, सचिन के साथ टॉम ऑल्टर का भी ज़िक्र होगा. वो हमेशा हमारे बीच 'सरगोशियां' करते दिखेंगे.


अलविदा टॉम ऑल्टर!