छह राज्यों  झारखंड, त्रिपुरा, केरल, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की सात सीटों पर हुए उपचुनाव को एनडीए बनाम आइएनडीआइए गठबंधन के बीच पहली चुनावी लड़ाई माना जा रहा था. खासतौर पर इनमें यूपी की घोसी विधानसभा सीट पर भाजपा की प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी. ओमप्रकाश राजभर के भाजपा में शामिल होने से बीजेपी को उम्मीद थी कि वह ये सीट जीत जाएगी, लेकिन दारासिंह चौहान को 42 हजार से अधिक वोटों से हार का सामना करना पड़ा. कुछ विशेषज्ञ इसके लिए मायावती के उम्मीदवार न उतारने को, तो कई दारासिंह चौहान के दलबदल को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. फिलहाल, इन सात सीटों में चार सीटें विपक्षी गठबंधन के खाते में गयी हैं, तो तीन सीटें बीजेपी ने जीती हैं. 


घोसी के नतीजे भाजपा के लिए लाल झंडा


घोसी का उपचुनाव केवल चुनाव नहीं, बल्कि दोनों पक्षों के लिए शक्ति-प्रदर्शन और प्रतिष्ठा का सवाल था, चाहे वह सपा हो या भाजपा. भारतीय जनता पार्टी के 50 से अधिक नेता, जिसमें उनके दो दर्जन से अधिक मंत्री, सांसद और विधायक भी थे, जो कैंप करके यह लड़ाई जीतने की कोशिश में थे. दूसरी तरफ, सपा की तरफ से भी दर्जनों विधायक और खुद शिवपाल यादव ने पार्टी में वापसी के बाद मोर्चा संभाला था. जैसे-जैसे चुनाव आगे बढ़ा, तपिश भी बढ़ी. इसको एक तरह से विपक्षी गठबंधन (आइएनडीआइए) और एनडीए गठबंधन के बीच का लिटमस टेस्ट माना जाने लगा और 2024 की बानगी भी. वैसे, जीत-हार का अंतर बहुत है. दारासिंह चौहान अपनी सिटिंग सीट बचा रहे थे और 42 हजार वोटों से हार गए. यह बहुत साफ है कि जो वोटिंग हुई है, वह एकतरफा हुई है और इस जीत से सपा और विपक्षी गठबंधन को मनोवैज्ञानिक बढ़त तो मिली है. घोसी उपचुनाव के नतीजों से इतना तो तय है कि जहां भी सीधी लड़ाई हो रही है, वहां विपक्ष के वोट शेयर में बढ़ोतरी हो रही है. 2022 के चुनाव में भी हमने यही देखा था और अगर हम इसे ट्रेंड मानें या रुझान की तरह देखें तो 2024 में भाजपा के लिए लड़ाई कठिन रहनेवाली है.


मायावती का जादू चला नहीं


बहनजी ने एक पंक्ति की अपील जरूर की आखिरी समय कि उनके समर्थक वोट देने न जाएं और अगर जाएं तो नोटा का बटन दबाकर आएं, लेकिन वह बहुत चला नहीं. घोसी में अगर आप दलित वोटों को देखें तो करीबन 90 हजार वोट थे. वहां बसपा का जो वोट बैंक कहा जाता है, वह ब्लॉक काफी बड़ा है. माना जाता है कि वे बसपा के साथ रहे हैं, क्योंकि अतुल कुमार राय वहीं से बसपा सांसद हैं. जब विधानसभा में बसपा हारी भी थी, तो भी 55 हजार वोट उसे मिले थे. नोटा की संख्या महज 1000 वोट की रही, तो इससे लगता तो यही है कि मायावती का जादू नहीं चला है. इस बार घोसी में 61 फीसदी वोटिंग हुई, तो अगर बायकॉट होता तो यह परसेंटेज नहीं रहता.


मायावती के बारे में यह कह सकते हैं कि दिन बीतने या चुनाव के द्विपक्षीय होने के साथ ही तीसरे मोर्चे या तीसरी पार्टी की जगह कम होती जा रही है. मायावती मंजी हुई नेत्री हैं, तो वह भी इस बात को समझ रही होंगी. वह कहीं न कहीं एक दबाव में हैं, इसलिए उनकी राजनीतिक लाइन बहुत प्रासंगिक नहीं रह पाती है. 2022 में भी यही हुआ था, जब लगभग बायपोलर चुनाव हुए थे और मायावती का वोट शेयर 10 फीसदी तक घट गया और एक सीट तक वह सिमट गयी थीं. तो, जैसे-जैसे लड़ाई और तीखी होगी, वैसे-वैसे मायावती का नतीजों को प्रभावित करने का जो माद्दा है, वह कम होता जाएगा. अभी हरेक को एक न एक खेमा चुनना ही होगा, क्योंकि तीसरा मोर्चा या कोण अप्रासंगिक होता जाएगा.



आमने-सामने की लड़ाई में भाजपा कमजोर


मायावती के कैंडिडेट न उतारने की वजह से उनका जो वोटबैंक है, वह स्वतंत्र हुआ. उसको यह देखना था कि उनकी अनुपस्थिति में दलितों का स्वाभाविक झुकाव किधर रहा था? इस बीच भाजपा भी लगातार दलितों को अपने साथ लाने के कार्यक्रम कर रही है, लेकिन घोसी में यह वोटबैंक सपा की तरफ झुक गया. अमूमन यह झुकाव होता नहीं रहा था. मायावती के जो वोटर्स थे, वह अक्सर सपा की तरफ नहीं जाते थे. यादवों से उनका जो मत-वैभिन्न था, दलित जो यादवों से बहुत पीड़ित रहे और सपा पर यादवों की पार्टी का ठप्पा लगा हुआ है, उसकी वजह से ही सपा को वे वोट नहीं करते थे. हालांकि, हालिया दिनों में सपा ने एक अंबेडकर प्रकोष्ठ भी बनाया था और बसपा से आए हुए नेताओं को चुपचाप जमीन पर काम करने दिया था. तो, यह मायावती की रणनीति भले न रही हो, लेकिन उनके कैंडिडेट नहीं देने से एक आजादी तो उनके वोटर्स को मिली ही. दूसरी बात यह साफ हो गयी कि अगर वो प्रत्याशी नहीं देती हैं, तो उनके वोटर्स को संभालना मुश्किल होगा, मायावती के लिए.


राजभर का बड़बोलापन काम न आया


इस चुनाव में ओमप्रकाश राजभर का मामला सबसे मजेदार है. उन्होंने अपने बड़बोले बयानों से खुद को किंगमेकर बताया था. खास तौर पर घोसी विधानसभा क्षेत्र, जहां 35 से 40 हजार राजभरों के वोट हैं. वहां भी जो आंकड़े आए हैं, वह बताते हैं कि राजभर बहुत इलाकों में 60 फीसदी बूथों पर भाजपा हारी है. इसका मतलब यही है कि राजभर के कहने से ये वोट इधर-उधर हो जाएं, ऐसा नहीं है. दूसरी तरफ, राजभर की भी पार्टी टूटी है और उनकी पार्टी के उपाध्यक्ष महेंद्र राजभर ने सपा का साथ दिया और वो कामयाब रहे. कई जगहों पर तो ओपी राजभर को कैंपेन करने में भी मुश्किल आयी. तो, जो जाति-आधारित वोटबैंक बनानेवाले जो नेता हैं, ओपी राजभर टाइप के, उनके लिए यह एक चेतावनी है. यही राजभर के साथ भी हुआ और दारासिंह चौहान के साथ भी. वोटर्स ने ये बता दिया है कि अगर आप फ्रीक्वेंटली दलबदल करते हैं, तो आपका समर्थन घटेगा. आपको एक जगह टिक कर रहना पड़ेगा. यह भारतीय लोकतंत्र के लिए ठीक है, जहां जनता ही दलबदल को नकार दे रही है.


भाजपा के लिए चेतावनी


ये जो उपचुनाव हुए, उसमें एनडीए ने उत्तराखंड की बागेश्वर सीट और त्रिपुरा की दो सीटें जीतीं. बाकी घोसी सपा ने जीती, पश्चिम बंगाल में टीएमसी जीती, तो इसमें संकेत कहां हैं?संकेत घोसी उपचुनाव में हैं. जो वोट-शेयर की बात करें, तो घोसी में वह विपक्षी दलों (यानी सपा) का बढ़ा है. बंगाल में टीएमसी ने बीजेपी से सीट छीनी है. वहां पर दिख रहा है कि भाजपा ने सिटिंग सीट हार दी. त्रिपुरा में बीजेपी ने साफ जीत दर्ज की है, लेकिन उत्तराखंड में हार-जीत का मार्जिन बहुत कम है. उसको केवल 1800 मतों से जीत मिली, तो यह भाजपा के रणनीतिकारों के लिए समस्या की बात है. अमित शाह और उनके लोगों को यह समझना होगा कि जब वे 50 फीसदी वोट पर बात कर रहे थे और 38 से 42 फीसदी वोट उनको आ भी रहे थे, तब उपचुनाव में वे बुरी तरह हार रहे हैं. यह सोचकर उनको अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना ही होगा. इसी के साथ एक और बात भी गौर करने की है. घोसी उपचुनाव के साथ ही कई पंचायतों यानी उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल, रूहेलखंड, बुंदेलखंड आदि में भी चुनाव हुए और भाजपा इन सभी जगहों पर हारी. भाजपा के रणनीतिकारों के लिए यह जागने का समय है. उनको देखना होगा कि चूक कहां हो रही है?



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