जिस तरह क्रिकेट के किसी मुकाबले में बॉल दर बॉल रनों का स्कोर बढ़ता है, उसी तरह भारत में दिन ब दिन कोविड-19 यानी कोरोना वायरस से संक्रमित होने वाले व्यक्तियों और मरने वाले मरीजों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. संकट भयावह है और त्रासद यह है कि मौतों का यह सिलसिला कहां जाकर रुकेगा, कोई नहीं जानता! इस बीच अपर्याप्त संसाधनों के सहारे कोरोना से देश के कोने-कोने में मुकाबला करते अस्पतालों, चिकित्सकों, उनके सहयोगी स्टाफ और पुलिस बल की सन्नद्धता एक आश्वस्ति और दिलासा देती है.


एकमात्र उपाय के तौर पर केंद्र सरकार ने 24 मार्च की रात पूरे देश में अचानक 21 दिनों का लॉकडाउन आयद कर दिया. नतीजतन हर जगह गजब की अफरातफरी और भय व्याप्त है. लोग रोजमर्रा की जरूरत का सामान भी नहीं जुटा सके. रबी की फसल खलिहान की बाट जोह रही है लेकिन किसान खेत पर जाने से डर रहा है! कर्मचारी वर्ग घर में कैद होने पर मजबूर है. सड़कों, दुकानों और बाजारों में सन्नाटा पसरा हुआ है. यातायात के साधन ठप हैं. फेरी लगाना, रेहड़ी-पटरी पर ठेले लगाना और होम डिलिवरी तक मना है. कल-कारखाने बंद हो चुके हैं, लिहाजा रोज कुंआ खोदने और रोज पानी पीने वालों की हालत सबसे ज्यादा खराब है.


गोस्वामी तुलसीदास रचित ‘कवितावली’ की पंक्तियां साकार हो उठी हैं- “खेती न किसान को/ भिखारी को न भीख बलि/ बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी/ जीविकाबिहीन लोग सीद्यमान सोच बस/कहैं एक एकन सों, कहां जाई का करी.”


कहीं बेसहारा लोगों की मदद करने तो कहीं पुलिसिया बर्बरता की तस्वीरें सोशल मीडिया पर शेयर की जा रही हैं. कहीं जरूरतमंद और गुस्साए लोग सीधे पुलिस से ही भिड़ जा रहे हैं. इस माहौल में वे तस्वीरें सिहरन पैदा करती हैं, जिनमें सैकड़ों मील पैदल चलकर गांव लौटने वाले बेबस लोगों के काफिले नजर आ रहे हैं. इन काफिलों में बच्चे, गर्भवती महिलाएं, बुजुर्ग लोग और सर पर गठरियां लादे नौजवान शामिल हैं. हिजरत कर रहे इन लोगों के लिए जगह-जगह दाना-पानी की व्यवस्था कर रहे लोग किसी देवदूत की तरह नजर आते हैं.


स्थिति की भयावहता को देखते हुए कुछ सामाजिक संस्थाएं भी सक्रिय हो गई हैं और जरूरतमंदों को खाने के पैकेट तथा राशन की किट मुहैया करा रही हैं. यद्यपि सरकारी प्रयासों में कमियां ढूंढ़ लेना आम चलन है. फिर भी लेकिन कुछ बातों की ओर सरकार का ध्यान दिलाना आवश्यक है.


कोरोना की उपस्थिति के पहले चरण में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सलाह दी थी कि भारत सरकार पर्याप्त मात्रा में हैंड सैनिटाइजर, मास्क की उपलब्धता सुनिश्चित करे और जरूरी उपकरणों को चाक-चौबंद करे. लेकिन दुर्भाग्य से इस अवधि में केंद्र सरकार इन्हीं जरूरी चीजों का निर्यात करने और राजनीतिक स्कोर सेटल करने में जुटी रही. न समय पर हवाई अड्डे और बंदरगाह सील किए गए, न तमाम यात्रियों की उचित जांच हुई, न ही विदेशों से आने वालों को समाज में घाल-मेल करने से रोका गया. अब जबकि कोरोना भारत में तीसरे चरण की दहलीज पर है, डब्ल्यूएचओ फिर चेतावनी दे रहा है कि भारत स्वास्थ्य-सेवा कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ाए, संदिग्ध मामलों का पता लगाने के लिए तंत्र विकसित करे, उनकी जांच में तेजी लाए, कोरोना वायरस स्वास्थ्य-केंद्रों का निर्माण करे, सत्यापित मामलों के
क्वारेंटाइन के लिए योजना तैयार करे, वायरस को निष्प्रभावी बनाने पर ध्यान केंद्रित करे- लेकिन क्या हम वाकई इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं?


लॉकडाउन कोई उपचार नहीं, महज एहतियाती कदम है. स्वास्थ्य से जुड़े तमाम मामले राज्यों से छीन कर खुद अपने हाथ में लेने के लिए केंद्र सरकार पूरे देश मे पहली बार राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम (एनडीएमए) भी लागू कर चुकी है. लॉकडाउन का उल्लंघन करने वालों पर एनडीएमए की धारा 51 से 60 और भारतीय दंड संहिता की धारा 188 के तहत कार्रवाई होगी, जिसमें छह महीने की सजा और जुर्माने का प्रावधान है.


सवाल उठता है कि क्या केंद्र सरकार ने वह तमाम व्यवस्था कर दी थी, जिससे लोगों को लॉकडाउन का उल्लंघन करने पर विवश न होना पड़े? देश के हर महानगर, शहर, कस्बे और गांव की व्याकुलता और व्यग्रता देख कर इसका जवाब न में ही मिलता है. केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने जो 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपए का राहत पैकेज घोषित किया है, वह आंकड़ों की बाजीगरी से ज्यादा कुछ नहीं है. उज्ज्वला योजना के तहत 8 करोड़ महिला लाभार्थियों को तीन महीने तक मुफ्त सिलिंडर देने की बात कही गई. जबकि जमीनी हकीकत यह है कि इस योजना की लाभार्थियों ने सामान्य से भी महंगे इन सिलेंडरों को कबकी तिलांजलि दे रखी है.


स्वयं सहायता समूहों को दिया जाने वाला लोन 10 लाख से 20 लाख रुपए कर दिया है लेकिन इस साल के लिए बजट में कृत लगभग 9,000 करोड़ रुपए में से अब तक इन्हें केवल 1,500 करोड़ की राशि ही आवंटित की गई है. मनरेगा की मजदूरी को 182 से 201 रुपए कर देने यानी 20 रुपए बढ़ाने से भी कोई लाभ होने वाला नहीं है क्योंकि करोड़ों मजदूर इसका काम छोड़ चुके हैं और सरकार पर अब तक मजदूरों के 1,856 करोड़ रुपए बकाया हैं.


सरकार ने ईपीएफ में कर्मचारी और कंपनी का 12-12% हिस्सा अगले तीन महीने तक खुद डालने का ऐलान किया है. लेकिन यह सिर्फ उन्हीं कंपनियों पर लागू होना है, जहां 100 से कम कर्मचारी हैं और उनके 90% कर्मचारियों का वेतन 15 हजार रुपए से ज्यादा नहीं है. बुजुर्गों, निराश्रितों और विकलांगों के पेंशन की मद में केंद्र और राज्य सरकारें मिलाकर पहले ही राशि दे रही हैं, जो उन्हें बार-बार चक्कर लगाने के बावजूद समय पर नहीं मिलती, जबकि इस राहत पैकेज में उन्हें 1,000 रुपए अतिरिक्त देने की घोषणा की गई है.


देश के 22 लाख स्वास्थ्य कर्मचारियों और 12 लाख डॉक्टरों को आगामी तीन माह तक 50 लाख रुपए का बीमा कवर देने का आश्वासन दिया गया है, जबकि बिहार की राजधानी पटना के नालंदा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (एनएमसीएच) के 83 जूनियर डॉक्टरों ने कोरोना वायरस से संक्रमित होने को लेकर चिंता जताई है और खुद को 15 दिनों के लिए क्वारंटाइन करने की अपील की है! देश के कई स्वास्थ्य केंद्रों में स्वास्थ्य कर्मचारी निजी सुरक्षात्मक उपकरण (पीपीई), एन-95 मास्क, दस्तानों और सुरक्षात्मक गाउन के बिना ही सेवाएं देने में जुटे हुए हैं.इसीलिए असल जरूरत सरकारी-तंत्र को चाक-चौबंद करने और असल चुनौती घोषणाओं का लाभ लक्षित व्यक्ति तक पहुंचाने की है.


मात्र घोषणा कर देने से गरीबों तक सहायता नहीं पहुंचती. हमारे देश के बारे में तो यह मशहूर है कि कोई भी आपदा अधिकारियों के लिए एक सुनहरी मौका बनकर आती है! आज हालत यह है कि मिड-डे मील का लाभ उठाने वाले बच्चे भी घरों में कैद हैं और स्कूल न खुलने की वजह से मां-बाप के दिहाड़ी बजट पर बोझ बन गए हैं. ऐसे में आबादी के हर स्तर पर कम्युनिटी किचन संचालित करने की जरूरत है. लेकिन पुलिस और प्रशासन सड़कों पर डंडा फटकारने को ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ले रहा है.


लोगों को अपने बैंकों तक नहीं पहुंचने दिया जा रहा है. दूध-सब्जी या किराना लेने निकले लोगों और तफरीह करने वालों के बीच कोई अंतर नहीं किया जा रहा है. मध्य प्रदेश में तो पुलिसवाले घर से बाहर निकलने वाले लोगों के सीने पर ‘मैं देशद्रोही हूं’ और ‘मैं समाज का दुश्मन हूं’ जैसे स्टिकर चिपका कर उनकी कुटाई कर रहे हैं!


यह सच है कि इतनी बड़ी आपदा का मुकाबला कोई एक व्यक्ति या कोई सरकार अपने दम पर नहीं कर सकती. इसके लिए हर नागरिक का सहयोग मिलना परम आवश्यक है. सुखद यह है कि भारतीय हर कष्ट सह कर भी कोरोना वायरस के फैलाव को रोकने में सहयोग कर रहे हैं लेकिन सरकार मात्र घोषणा करने को रामबाण समझ रही है. उसे लॉकडाउन की अवधि का लाभ समुदायों में घुस चुके वायरस-वाहक व्यक्तियों की शिनाख्त और उनका उपचार करके उठाना चाहिए. साथ ही आखिरी व्यक्ति की राहत, सहायता और प्रशासन तक पहुंच बनाने वाला कोई संवेदनशील तंत्र खड़ा करना चाहिए. और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कोरोना वायरस से जुड़ी कोई भी अफवाह फैलाने वालों के साथ सख्ती से निबटना चाहिए.


विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)