अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने चुनाव प्रचार अभियान के दौरान कई राष्ट्रवादी नारे दिए थे, जिनमें से एक था- ‘बाय अमेरिकन, हायर अमेरिकन’. बाय अमेरिकन की स्वदेशी बात तो ठीक ही है लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद ‘हायर अमेरिकन’ की उनकी जिद ने यूएसए में काम कर रहे लाखों भारतीयों समेत करोड़ों अप्रवासी कर्मचारियों की नौकरियों पर तलवार लटका दी है. ट्रंप यूएसए में शिवसेना-मनसे की उसी अवैज्ञानिक, तर्कहीन और भावनात्मक लाइन पर चल रहे हैं कि बाहरी लोग स्थानीय लोगों की नौकरियां निगल जाते हैं.



इस सनक में वह उन अमेरिकी कंपनियों के इग्जीक्यूटिवों को भी समझाइश देने चले हैं जो भारतीयों को नौकरियां देते हैं. इन कंपनियों में कैटरपिलर इंक, यूनाइटेड टेक्नालॉजीज कॉर्प, डाना इंक, 3एम और जनरल इलेक्ट्रिक जैसी दिग्गज शामिल हैं, जो अपनी निर्माण इकाइयों को अमेरिका से बाहर मेक्सिको, चीन और भारत ले जाने की तैयारी में थीं. इतना ही नहीं अप्रवासी मुक्त अमेरिका की मुहिम पर निकला ट्रंप प्रशासन विदेशियों के लिए अमेरिका का वीजा हासिल करने की शर्तें काफी सख्त करने जा रहा है ताकि वे अमेरिका में आसानी से घुसने ही न पाएं!

अमेरिकी सदन हाउस ऑफ रेप्रिजेंटटिव में कैलीफोर्निया की डेमोक्रेटिक पार्टी सीनेटर जो लोफग्रेन द्वारा एच-1बी वीजा नियमों में बदलाव के लिए पेश किया गया बिल अगर पास हो गया तो अमेरिकन लोगों की जगह एच-1बी वीजा वाले विदेशियों (हमारे संदर्भ में भारतीयों) को पूर्व वेतन स्केल पर रखने वाली कंपनियों की मुश्किलें बढ़ जाएंगी. बता दें कि ट्रंप ने अपने चुनाव अभियान में एच-1बी और एल-1 वीजा के नियमों पर गौर करने की बात कही थी, जो अमेरिकी आव्रजन सुधारों का ही एक हिस्सा हैं.

दरअसल एच-1बी वीजा ऐसे विदेशी पेशेवरों के लिए जारी किया जाता है जो किसी ख़ास कार्य में कुशल होते हैं. अमेरिकी सिटीजनशिप एंड इमीग्रेशन सर्विसेज के मुताबिक इन ख़ास पेशों में वैज्ञानिक, इंजीनियर और कम्प्यूटर प्रोग्रामर आदि शामिल हैं. हर साल करीब 85000 वीज़ा जारी किए जाते हैं. हालांकि अधिकतर ऐसे वीजा आउटसोर्सिंग फर्मों को जारी किए जाते हैं जिन पर यह आरोप लगता रहा है कि वे इनका इस्तेमाल निचले स्तर की तकनीकी नौकरियां भरने के लिए करती हैं. इसके अलावा लॉटरी सिस्टम के चलते ऐसी आउटसोर्सिंग फर्मों को ज़्यादा फ़ायदा हो जाता है जो बड़ी संख्या में आवेदन करती हैं.

दुनिया भर की श्रेष्ठ प्रतिभाओं को अमेरिका लाकर उन्हें अमेरिकी वर्कफोर्स से जोड़ने वाले ‘अमेरिकन ड्रीम’ के साथ एच-1बी वीजा प्रोग्राम 1990 में शुरू किया गया था. इसके तहत माइक्रोसॉफ्ट और गूगल जैसी अमेरिकी कंपनियां इंजीनियरिंग और आईटी जैसे कुछ खास व्यवसायों में स्टाफ की कमी को पूरा करती आई हैं. एल-1 वीजा छोटी अवधि के लिए होते हैं और इनका ज्यादातर इस्तेमाल टॉप मैनेजमेंट के लिए किया जाता है. गौर करने की बात यह है कि एच-1बी वीजा कोटे का अधिकांश हिस्सा भारतीयों को ही मिलता रहा है क्योंकि अमेरिकी वर्करों के मुकाबले भारतीय वर्कर काफी सस्ते रहे हैं. अब तक भारतीय एच-1बी वर्करों को सालाना 65 से 70 हजार अमेरिकी डॉलर का वेतन मिलता रहा है, वहीं अमेरिकी वर्करों को 90 हजार से 1,10,000 अमेरिकी डॉलर मिलते हैं.

एच-1बी और एल-1 वीजा सुधार एक्ट पेश करने के पीछे दावा यह है कि नए बिल से अमेरिकी वर्करों और वीजा होल्डरों दोनों को सुरक्षा मिलेगी. अमेरिकी कंपनियों को वैकेंसी पहले बराबर या बेहतर शिक्षित अमेरिकी वर्कर को ऑफर करनी होगी. एल-1 वीजा वर्करों के लिए वेतन संबंधी नियमों का पालन करना होगा और एच-1बी वीजा में वेतन बेहतर करना होगा. कहा जा रहा है कि यह बिल एफ-1 वीजाधारी छात्रों के लिए भी फायदेमंद होगा, क्योंकि यह उनके स्टेटस और स्थायी रहिवास के बीच अंतराल कम करेगा. लेकिन मुश्किल यह है कि इन छात्रों को भी ऐसी नौकरी खोजनी होगी जो उन्हें सालाना 1,30,000 अमेरिकी डॉलर का वेतन दे, जो एक टेढ़ी खीर साबित होगा.

इसका कारण यह है कि अमेरिकी संसद में रखे गए बिल के मुताबिक कंपनियों को सालाना वेतन कम से कम 1,30,000 डॉलर करना ही पड़ेगा. ऐसे में भारतीय वर्कर अमेरिकियों से भी महंगे पड़ेंगे और ट्रंप का सपना सचमुच सच हो जाएगा. अमेरिका में भारतीय आईटी कंपनियों का कारोबार 150 अरब अमेरिकी डॉलर यानी करीब 10 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का है. टीसीएस, इन्फोसिस और विप्रो जैसी कंपनियां अमेरिका में एच-1बी वीजा के जरिए बड़े पैमाने पर भारत से कर्मचारियों को ले जाती रही हैं, लेकिन बिल पास होने पर यह कारोबार घटेगा.



प्रतीकात्मक तस्वीर


उदाहरण के तौर पर अभी अमेरिका में इन्फोसिस के 60 फीसदी से ज्यादा कर्मचारी एच-1बी वीजा धारक हैं. कंपनी ने अपनी सालाना रिपोर्ट में कहा है कि वीजा की कीमत में इजाफ़े से उसका कारोबारी मुनाफ़ा बड़े पैमाने पर प्रभावित होगा. नए नियमों के मुताबिक एच-1बी वीजा पर अमेरिका में रह रहे लोगों के पति या पत्नी वहां काम नहीं कर सकेंगे यानी दोनों में से कोई एक ही काम कर सकेगा. इससे भी भारतीय वर्कफोर्स हतोत्साहित होगा.

नैस्कॉम के अध्यक्ष आर. चंद्रशेखर का कहना है कि यह गलतफ़हमी फैली हुई है कि भारत से एच1-बी वीजा पर जाने वाले प्रोफेशनल्स अमेरिकी वर्करों को हटा कर उनका काम करने लगते हैं, जबकि असलियत यह नहीं है. दरअसल नई तकनीक के आने से पुरानी नौकरियां घट रही हैं और नए जॉब्स के लिए आनिवार्य कौशल की अमेरिका में कमी है.

अमेरिकी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका में 2018 तक 10 लाख आईटी जॉब खाली पड़े रहेंगे. अगर बाहर से कुशल लोगों को अमेरिका में आने से रोका जाएगा तो अमेरिकी कंपनियों की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता पर भी असर पड़ेगा और वे पिछड़ जाएंगी.

लेकिन राष्ट्रवादी डोनाल्ड ट्रंप को इस सबकी परवाह नहीं है. उन्हें तो बस यही लग रहा है कि बाहर से यूएसए में रोज़गार करने आए लोग अमेरिकियों को बेरोज़गार कर रहे हैं. उन्हें ‘अमेरिकन ड्रीम’ के दुःस्वप्न में बदल जाने की भी परवाह नहीं है, फिर चाहे गूगल और एपल समेत पूरी सिलिकॉन वैली ही उनके इस अभियान का रास्ता रोककर क्यों न खड़ी हो गई हो!


नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.



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