भारत में चीन के उत्पादों का बहिष्कार करने की अपील आर्थिक से कहीं ज़्यादा एक भावनात्मक प्रतिक्रिया है. ख़ुद चीन ने 1915 में जापानी उत्पादों का बहिष्कार किया था क्योंकि जापान ने चीन पर अपनी 21 अन्यायपूर्ण मांगें थोप दी थीं. स्पार्टली द्वीपसमूह विवाद को लेकर 2012 में फिलिप्पींस की जनता ने चीनी माल का बहिष्कार किया और साउथ चाइना सी विवाद तीखा होने पर वियतनाम ने चीनी उत्पाद बहिष्कृत किए थे. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चाहे चीन हो, जापान हो, फिलिप्पींस हो या वियतनाम, एक दूसरे के उत्पादों का बहिष्कार करना सरकारों के आधिकारिक फैसले थे. भारत का मामला थोड़ा अलग है.


चीन को भारत की अंतर्राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं पूर्ण करने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा माना जाता है. चाहे वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का मामला हो, परमाणु आपूर्तक समूह (एनएसजी) में भारत के दाखिले का मामला हो, अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर चीन द्वारा पाकिस्तान की बिलाशर्त मदद किए जाने का मामला हो (चीन ने यूएन द्वारा मसूद अजहर को बैन किए जाने की भारतीय मांग का विरोध किया) अथवा पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर (गिलगित-बाल्तिस्तान और आज़ाद कश्मीर) में चीन द्वारा खुले आम किए जा रहे भारी निवेश का मामला हो. पीओके में भारत द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक के मुद्दे पर आज भी चीन पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है.


हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत 1962 में चीन से सीधा युद्ध कर चुका है और तब से जारी सीमा विवाद चलते भारतीय जनता में मौजूद भावनात्मक आक्रोश बुझा नहीं है. चीनी उत्पादों के बहिष्कार को हवा देने में यही आक्रोश कपूर की टिकिया का काम कर रहा है. हाल के वर्षों में यह भी देखा गया है कि जब-जब भारत में क्षेत्रीय मुद्दों को लेकर तनाव बढ़ता है तो एक व्यापारिक लॉबी नेताओं से हाथ मिलाकर चीनी उत्पादों को निशाना बनाने के लिए सक्रिय हो जाती है. चीन की हैंडसेट कंपनी शियोमी के इस दावे के बावजूद कि फ्लिपकार्ट, आमेजन इंडिया, स्नैपडील और टाटा क्लिक जैसे मंचों पर मात्र तीन दिन में पांच लाख फोनों की बिक्री हुई है, दिल्ली और मुंबई के कुछ व्यापारियों का दावा है कि इस फेस्टिव सीजन में चीनी उत्पादों की बिक्री 10 से 20 प्रतिशत तक घटी है.


चीनी उत्पादों का बहिष्कार करने का फैसला भारत सरकार का नहीं है. उड़ी हमले की प्रतिक्रिया में जब सोशल मीडिया पर ‘मेड इन चाइना’ उत्पादों के बहिष्कार का जूठा अभियान पीएम के नाम पर चलाया गया तो पीएमओ ने पलक झपकते ही इसका खंडन किया. लेकिन इस खंडन के बाद भी जदयू के वरिष्ठ नेता शरद यादव ने बयान दिया कि चीन के साथ मौजूदा व्यापार हमारे घरेलू उद्योग के लिए नुकसानदायक और ख़तरनाक है. भाजपा के राष्ट्रीय सचिव कैलाश विजयवर्गीय ने ट्वीट् किया कि चीनी माल ख़रीदना आतंकवादी देश को अप्रत्यक्ष समर्थन देने के बराबर है. हरियाणा की भाजपा सरकार में खेल मंत्री अनिल विज ने अपील की कि चूंकि चीन हमारा मित्र देश नहीं है इसलिए भारत में कमाए एक-एक पैसे से हथियार ख़रीद कर वह हमारे दुश्मन देशों को दे सकता है.


कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि किसी देश के बाज़ार पर अपने उत्पादों की सत्ता स्थापित कर उस अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ी जा सकती है. भारत के वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि भारत चीन से जिन उत्पादों का आयात करता है उनमें सेलफोन, लैपटॉप, सोलर सेल, उर्वरक, कीबोर्ड और संचार उपकरण मुख्य हैं. इनके अलावा चीन से कुष्ठ रोग तथा टीबी की दवाएं, एंटीबायोटिक्स, खिलौने, इंडस्ट्रियल स्प्रिंग, बाल बेयरिंग, एलसीडी-एलईडी डिस्प्ले, राउटर, टीवी के रिमोट कंट्रोल, सेट टॉप बॉक्स, पॉवर प्लांट से लेकर, कप, झालरें, फैंसी दीये, गिफ्ट आइटम, प्लास्टिक का सामान, सजावट का सामान और गणेश मूर्तियां तक बड़े पैमाने पर मंगाई जाती हैं. मुंबई के मनीष मार्केट और दिल्ली के सदर बाज़ार का अनुभव बताता है कि चीनी माल की भारत में भारी लोकप्रियता के प्रमुख कारण इसके दाम, थोक में उपलब्धता, आकर्षक पैकिंग और ख़रीदने में आसानी होना है. इन विशेषताओं की बदौलत चीन से भारत का आयात बीते दो वर्षों में 20 प्रतिशत बढ़कर 61 बिलियन डॉलर हो गया है.


इसके बरक्स भारत चीन को मात्र अयस्क, कपास और औद्यिगिक मशीनें ही निर्यात करता है जो मात्र 9 बिलियन डॉलर का है. इसका साफ मतलब है कि भारत चीन को जितना माल बेचता है उससे 6 गुना ज़्यादा ख़रीदता है. दो देशों के बीच उत्पन्न दुनिया के इस सबसे बड़े व्यापारिक अंतराल को पाटने की बजाए भावनाओं की लपेट में आकर चीनी का माल का बहिष्कार करना कहां की समझदारी है. इसके बजाए भारत सरकार के इस कदम की सराहना की जानी चाहिए कि उसने चीन से मुक़ाबला करने के लिए अपने मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में 2015-16 के दौरान 55 बिलियन डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश होने दिया.
चीनी माल का बहिष्कार करने की जगह भारत चीन के साथ अपना व्यापार घाटा कम करने के लिए वही कदम उठा सकता है जो चीन ने 1980 के दशक में अपने यहां उठाए थे. उसने स्पेशल इकोनॉमिक जोन स्थापित किए, भूमि और लेबर सुधार किए, हर तरह के सामान के लिए सस्ते वनस्टॉप डेडीकेटेड मार्केट उपलब्ध कराए. दूसरी तरफ भारत के एसईज़ेड देखिए, भूतिया खंडहर बने पड़े हैं. माल की आपूर्ति में हफ्तों लग जाते हैं. जूलरी कहीं मिलती है तो घरेलू सामान कहीं और. कुशल कामगार तो चिराग लेकर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते. अनुबंधों का पालन कराना और निर्माण की अनुमति (भूमि अधिग्रहण, लेटलतीफी, कछुआ चाल वाली ब्यूरोक्रैसी) भी बड़ी बाधाएं हैं.


भारत की जनता चीनी माल का बहिष्कार करने के लिए आज भी उसी देशप्रेम की भावना के साथ तैयार है जैसे कि उसने 1962 के युद्ध के दौरान सेना की मदद के लिए रेल्वे स्टेशनों, सिनेमाघरों के बाहर और पार्कों में बूंद-बूंद से घड़ा भरा था. माताएं-बहनें अपने सुहाग की बिंदी और पायल-बिछुए तक स्वयंसेवकों और स्कूली बच्चों की झोली में डाल देती थीं. आज भी ज़रूरत पड़ी तो देश की जनता 1942 की तरह विदेशी माल की होली जला सकती है. लेकिन ज़रूरत इस बात की है कि चीन को हम स्पर्द्धा में पछाड़ें. चीनी माल के बहिष्कार का नतीजा होगा दूसरे देशों से महंगा माल ख़रीदना या घरेलू उत्पादकों को करों में भारी छूट देना. यहां तक कि पहले से ही त्रस्त भारतीय कामगारों की कलाई भी मरोड़नी पड़ सकती है.


हम ब्रिटिश राज से भी कोई सबक नहीं सीख रहे हैं जब भारत कपास निर्यात करता था और कपड़े आयात करता था. आज चीन को हम अयस्क निर्यात करते हैं और स्टील आयात करते हैं. हालात बदलने के लिए भारत को चाहिए कि वह घरेलू मैन्युफैक्चरिंग के लिए अनुकूल माहौल बनाए. 2005 के सेज़ एक्ट पर गंभीरता से अमल करे, एनएमआईज़ेड, नेशनल मैंन्युफैक्चरिंग पॉलिसी लागू करे, औद्योगिक गलियारों का जल्द से जल्द निर्माण पूरा करने पर ध्यान दे और राज्यों के बीच स्पर्द्धा को बढ़ावा दे.


21वीं सदी में चीनी माल का आंख मूंदकर बहिष्कार करने की बजाए हमें चीन से ही बहुत सीखने की ज़रूरत है. 2005 में जब मेनलैंड चाइना में एक बार फिर जापानी माल के बहिष्कार की लहर उठी तो जनता ने इसे हवा नहीं दी. चीनी विदेश मामलों के मंत्रालय का बयान आया कि चीन आर्थिक मामलों का राजनीतिकरण नहीं करना चाहता. क्या आज भारत इस जटिल आर्थिक मसले का जवाब चीन को व्यापार में कड़ी टक्कर देने की बजाए महज भावनाओं में बहकर दे सकता है या देना चाहेगा?


लेखक से ट्विटर पर जुड़ने के लिए क्लिक करें
और फेसबुक पर जुड़ने के लिए क्लिक करें