भला 68 साल की उम्र क्या यूं अलविदा कहने की होती है, अभी तो बहुत काम बाकी था. नियति को शायद यही मंजूर था. उनके निधन की खबर सुनकर मैं बहुत पीछे 1990 की गर्मियों में चला गया. उस समय मैं टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप के टीआरएफ में पत्रकारिता सीख रहा था. हमें रोज ही अलग अलग क्षेत्र की शख्सियतें पढ़ाने आती थी.


मनोहर श्याम जोशी जैसे साहित्यिक पत्रकारिता पर कक्षा लेने आए थे वैसे ही एक दिन अनुपम मिश्र का आना हुआ था. पर्यावरण और उससे जुड़ी पत्रकारिता पर उन्होंने हमें जानकारी दी थी. वह बता रहे थे कि कैसे दिल्ली में कभी 800 तालाब हुआ करते थे ( हौजखास जैसे ) लेकिन दिल्ली को आज यमुना के होते हुए भी पानी की कमी से जूझना पड़ रहा है. वह बता रहे थे कि पहले किस तरह गांव देहाद कस्बों शहरों में तालाब पानी की किल्लत दूर किया करते थे और आज कैसे तालाब अतिक्रमण का शिकार हैं. क्लास के बाद चाय पीते हुए अलग से उनसे बात हुई. मैंने जब बताया कि मैं जयपुर से हूं तो वह बताने लगे कि कैसे जैसलमेर बीकानेर जैसे मरुस्थलीय इलाकों में उस समय बारिश का पानी तालाबों में सहेज कर रखा जाता था.


कुछ दिनों बाद उनके दफ्तर गांधी प्रतिष्ठान में उनसे मिलना हुआ. उन्होंने अपनी किताब 'आज भी खरे हैं' भेंट करते हुए कहा था कि इसे पढ़ना भी और पढ़ाना भी. मुझे याद है कि दिल्ली में ट्रेनिंग पूरी होने के बाद मेरी नौकरी नवभारत टाइम्स जयपुर में लगी थी और मैंने जाते ही उनकी किताब से प्रेरणा लेते हुए राजस्थान में तालाबों बावड़ी की हालत पर स्टोरी की थी.


राजस्थान के अलवर में अरवरी नदी को फिर से जिंदा करने की कहानी सब जानते हैं और इसके लिए जोहड़ वाले बाबा राजेन्द्र सिंह को मैगसेसे अवार्ड भी मिला था लेकिन यहां भी अनुपम मिश्र की भूमिका महत्वपूर्ण रही. वह राजेन्द्र सिंह की संस्था 'तरुण भारत' से लंबे समय से जुड़े रहे. चित्तौड़गढ़ जिले में आदिवासियों के बीच पहाड़ों की पथरीली जमीन पर वृक्षारोपण का काम उन्होंने किया था. कहने लगे कि कैसे शुरु में प्रशासन और जंगलात विभाग को समझाने में दिक्क्तें आईं.


वह अरावली पहाड़ श्रृंखला को बचाने के लिए खासतौर से गंभीर रहे थे. बहुत मुश्किल से वह जंगलात विभाग की जमीन पर कुछ पौधे लगाने में कामयाब हो सके थे. उसके बाद जंगलात विभाग ने टेंडर मंगवाए थे पेड़ उगाने के लिए. उस दौरान उनका कहना था कि जितना पैसा दिया जा रहा है उसमें पौधा लगाया तो जा सकता है लेकिन बचाया नहीं जा सकता. पौधा तभी बचेगा और पेड़ बनेगा अगर वहां का स्थानीय निवासी उस पेड़ को अपने बच्चे की तरह लेगा. यही काम वह जिंदगी भर करने में लगे रहे. पर्यावरण बचाने के लिए जन चेतना जरुरी है. सरकारी सोच नहीं. यही ध्येय रहा उनका.


पिछले दो साल देश में सूखा पड़ा. इस दौरान गांव देहातों में जाना हुआ और वहां तालाबों की हालत देखी तो अनुपम जी बहुत याद आए. तालाबों पर अतिक्रमण था, उसके कैचमेंट एरिया में मकान बन गये थे, तालाबों का पानी सड़ रहा था. गांववाले दूर से पानी लाने को मजबूर थे. तालाबों के सूखने के चलते भूजल स्तर भी गिर गया था. तालाब जिंदा रहता तो गांव को इतनी तकलीफ नहीं उठानी पड़ती. अनुपम मिश्र तो नहीं रहे लेकिन क्या तालाब बचाने की उनकी मुहिम को सरकारें आगे लेकर जाएंगी.....बड़ा सवाल है?