Analysis: विकास दुबे के खात्मे से अपराध और सजा में न्याय का लोप, खाकी-खादी में सरपरस्तों के राज़ भी दफन
कानपुर के कातिल को ठिकाने लगा दिया गया है. लेकिन जिस तरह से उसे ढेर किया गया, ऐसे कई चुभते सवाल उठ रहे हैं कि आखिर उसके इस तरह से मारे जाने से किसे फायदा होगा और अगर वो जिंदा रहता तो किसके लिए परेशानी का सबब बनता.
कानपुर के बिकरू गांव में सीओ सहित आठ पुलिस वालों की हत्या करने वाले पांच लाख के ईनामी बदमाश विकास दुबे का ऐसा अंत दो वजहों से भयावह है. एक तो यह कि अपराध और सजा के बीच में से न्याय की प्रक्रिया का ही लोप कर दिया गया है, दूसरे यह कि अपराधी से पूछताछ करके जो राज उगलवाए जा सकते थे, उसकी संभावना समाप्त हो गई है. इसके साथ ही विकास दुबे के सरपरस्त नेताओं, पुलिस अधिकारियों और धनकुबेरों के गिरेबान तक पहुंच सकने वाले कानून के लंबे हाथ मजबूर कर दिए गए हैं. सवाल वही है कि अदालत का मुंह दिखाए बिना ही एक अपराधी का खात्मा हो गया लेकिन अपराध और अपराधियों को संरक्षण देने वाले सफेदपोशों का खात्मा कब और कैसे होगा? कौन करेगा?
देखा जाए तो भारत की पुलिस अब हिन्दी की फार्मूला फिल्मों जितनी रचनात्मक भी नहीं रह गई है. मुठभेड़ के लिए बुनी गई उसकी कहानी का अंत सर्वविदित होता है. यूपी के बेबाक आईपीएस आईजी अमिताभ ठाकुर ने कल ट्वीट किया था कि विकास दुबे का सरेंडर हो गया. हो सकता है कल वह यूपी पुलिस कस्टडी से भागने की कोशिश करे, मारा जाए. मेरे पत्रकार मित्र राजेंद्र चतुर्वेदी ने विकास का अंत होने के लगभग 12 घंटे पहले ही फेसबुक पर लिखा था- “विकास दुबे ने आत्म समर्पण कर दिया है, लेकिन लग रहा है कि कल, अधिकतम परसों उसके एनकाउंटर की खबर आ जाएगी. एनकाउंटर के बाद की संभावित कहानी भी मैं सुना देता हूं- ‘यूपी पुलिस विकास को उज्जैन से कानपुर ले जा रही थी. रास्ते में उसने भागने की कोशिश की. अमुक पुलिस अफसर से उसने असलहा छीन लिया, पुलिस पर फायरिंग कर दी और जवाबी कार्रवाई में मारा गया.’ कानपुर से थोड़ा पहले बर्रा चौकी के पास हूबहू यही हुआ. एक सड़क दुर्घटना, घायल मुल्जिम द्वारा भागने की कोशिश, और फिर उसे पकड़ने की कोशिश, पुलिस पर हमला, पुलिस का आत्मरक्षा में फायर करना, और फिर हमलावर का मारा जाना.
यह सरकारों के मुखिया भी जानते हैं और पुलिस के अधिकारी भी मानते हैं कि अपराधियों को भून देने से जनता तालियां बजाती है. हैदराबाद की वह मुठभेड़ देश के लिए बड़ी संतुष्टिकारक बन गई थी, जिसमें एक वेटनरी डॉक्टर युवती का कथित रेप करने वाले चार युवकों को पुलिस ने गोली से उड़ा दिया था! विकास दुबे के मामले को ही लें तो पुलिस ने बिना अदालत की स्वीकृति लिए ही उसका घर जमींदोज कर दिया था. अगर किसी को अपराधी करार देकर उसे मार गिराने का फैसला सीधे सत्ताधीशों और पुलिस के आला आधिकारियों को कर लेना है, तो देश में न्यायपालिका की जरूरत ही कहां रह जाती है?
हर साल महाकाल मंदिर जाता था विकास दुबे गजब तो यह है कि राज चलाने वालों, अपराधियों और पुलिसकर्मियों की जाति और धर्म को देख कर जनता अपनी धारणाएं कायम करती और बदलती है. इसीलिए विकास दुबे जैसे अपराधी अपने ब्राह्मण होने का ढिंढोरा पीटते हैं. इस शातिर का दिमाग देखिए कि उसने तमाम राज्यों और जिलों की सीमा पार करके एमपी पुलिस के सामने सरेंडर करने के लिए पवित्र श्रावण मास का दिन और उज्जैन के महाकाल की ड्योढ़ी को चुना. सरेंडर वाली तस्वीर में विकास दुबे के बैकग्राउंड में मंदिर के शिखर पर तीन केसरिया ध्वज लहरा रहे थे. ब्राह्मणवीरों ने सोशल मीडिया पर उसके पक्ष में पहले ही मुहिम छेड़ रखी थी. विकास दुबे की माताजी उसकी गिरफ्तारी के कुछ देर बाद बयान देती हैं कि उनका बेटा प्रतिवर्ष महाकाल मंदिर जाता था और श्रृंगार भी करवाता था. यानी दुर्दांत अपराधी के प्रति सहानुभूति का पूरा डोज!
एन्काउंटर मे जाति-धर्मवाद
ठीक इसी जाति-धर्मवादी तर्ज पर दावा किया जाता है कि सीएम योगी आदित्यनाथ की पुलिस ने अपराध-नियंत्रण के बहाने अब तक जिन सैकड़ों कथित अपराधियों को एनकाउंटर में मार डाला है, उनमें ज्यादातर मुसलमान या यादव थे! इसी बिंदु पर आकर मुद्दा पटरी से उतर जाता है. सत्ताधारी ठीक यही चाहते हैं. उन्हें भला यह कैसे मंजूर होगा कि आप जान जाएं कि पुलिस के किन अधिकारियों ने विकास दुबे को संरक्षण दे रखा था? आपको क्यों पता लगने देंगे कि अलग-अलग राजनीतिक दलों के किन बड़े नेताओं और विधायकों की सरपरस्ती में वो इस कदर दुस्साहसी हो गया था कि आठ पुलिसकर्मियों को किसी आतंकवादी की तरह मौत के घाट उतार कर आराम से निकल गया!
1986 में यूपी गैंगस्टर निवारण अधिनियम
यूपी में ब्राह्मण, क्षत्रिय, जाट, यादव, मुसलमान आदि आधारों पर राजनीति, अपराध और माफिया का एक बड़ा संगठित और निर्भीक नेटवर्क पहले भी सक्रिय रहा है. हरिशंकर तिवारी, वीरेंद्र शाही, मुख्तार अंसारी, राजा भैया जैसे स्टार सरगनाओं के फिल्मी सितारों जैसे प्रशंसक रहे हैं. वीर बहादुर सिंह जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो सबसे पहली बार संगठित माफिया गिरोहों के खिलाफ कार्रवाई उनकी सरकार ने की थी. तभी माफिया गतिविधियों पर लगाम लगाने के लिए 1986 में यूपी गैंगस्टर निवारण अधिनियम लाया गया था और जाति-धर्म को खातिर में लाए बिना बड़े से बड़े गुंडे अंदर कर दिए गए थे. क्या योगी आदित्यनाथ में वह इच्छाशक्ति है, जो अपराधियों के साथ भेदभाव किए बगैर उन्हें सजा दिला सके.
राजनीतिक संरक्षण और पुलिस की मिलीभगत
अपराधी की शिनाख्त होने के बावजूद किसी को घर से उठाकर मुठभेड़ में मार गिराना न्याय नहीं, प्रतिशोध है. अपराधी कौन है, कौन नहीं- यह तय करना सरकार या पुलिस का नहीं अदालत का काम है. विकास दुबे का अपने गांव से भाग निकलने से लेकर उज्जैन के महाकाल मंदिर तक पहुंचने का पूरा घटनाक्रम राजनीतिक संरक्षण और पुलिसिया मिलीभगत का जीता-जागता उदाहरण है. यह स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए कि विकास दुबे जैसे तत्व खादी, खाकी और अपराधी इन तीनों के अपवित्र गठबंधन का परिणाम होते हैं. जब तक यह गठबंधन नहीं टूटेगा, तब तक सिस्टम में घुसे अपराध के वायरस का अंत नहीं होगा.
चलिए, एक विकास दुबे को तो आपने ऑन द स्पॉट सजा दे दी, लेकिन जो छुटभैये उसी के जैसा अपराधी बनने की पाइपलाइन में पड़े हैं, उनको रोकने की हिम्मत है किसी में? क्या योगी सरकार विकास दुबे या उसके जैसे अन्य अपराधियों के राजनीतिक, प्रशासनिक और व्यापारिक सम्पर्कों को सबक सिखाने के लिए अब भी किसी न्यायिक प्रक्रिया का सहारा लेगी या उनसे एनकाउंटर करने वाली स्टाइल में ही निपटेगी?
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