लोकसभा चुनाव के पहले चरण की वोटिंग को चंद घंटे ही बचे हैं, जब यह आलेख लिखा जा रहा है. इसके साथ ही पूरे देश में रामनवमी की धूम भी मची रही. बंगाल में भी रामनवमी की शोभायात्राएं निकलीं, लेकिन यहां थोड़ा अंतर था. पहला अंतर तो यही था कि कोलकाता में हाईकोर्ट के आदेश के बाद ये यात्रा निकली, दूसरे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का सोशल मीडिया पर वह संदेश भी खूब वायरल हुआ, जिसमें उन्होंने लोगों से इस मौके पर शांति और अमन कायम रखने का आह्वान किया था. लोगों ने इसी के साथ कुछ समय पहले बीते ईद की उनकी शुभकामना को जोड़ कर उनकी आलोचना भी की, जिसमें उन्होंने केवल और केवल बधाई दी थी. कई ने मुख्यमंत्री पर एक समुदाय विशेष को दंगा उकसाने का आरोप लगाने का संकेत करने वाला भी बताया. रामनवमी की शोभायात्रा पर मुर्शिदाबाद में जो हिंसा हुई, उससे भी ममता सरकार की कड़ी आलोचना हो रही है. 


रामनवमी की शोभायात्रा


हमें थोड़ा पीछे जाकर देखने की जरूरत है. बंगाल में राम को माननेवाले हैं, लेकिन राम की इस व्यापक स्तर पर पूजा नहीं होती है.  बंगाल मुख्यतः औऱ मूलतः शक्तिपूजा का गढ़ है. यहां काली, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती की पूजा मुख्य तौर पर होती है. यहां पूजा होती थी, सारे त्योहार मनाए जाते थे, लेकिन बीते दस-बारह वर्षों से यह चलन कुछ खास तौर पर हावी हो गया है. मुख्यमंत्री का जो संदेश है, वह पिछले साल को ध्यान में रखकर दिया गया होगा. पिछले के पिछले साल जब रामनवमी थी, तो उसी समय रमजान भी चल रहा था और शहरी इलाकों को छोड़कर अगर गांगेय इलाके या सीमांत क्षेत्रों में चले जाएं, तो चौबीस परगना वगैरह में यह शिकायत आयी कि जब उनका इफ्तार का समय था, तो बहुत तेज आवाज में डीजे बजाकर कुछ डिस्टर्बेंस पैदा की गयी. यह ट्रेंड देखा गया जैसा कि समुदाय-विशेष का आरोप है. उनके मुताबिक गाने भी कोई धार्मिक नहीं थे, बल्कि भड़काऊ थे। उसी तरह, यह भी आरोप है कि जो सरकारी शब्दों में जिन्हें अल्पसंख्यक हैं, गिरिजाघर या मस्जिद हैं, वहां इस तरह के मामले देखने को मिले कि भगवा झंडा उन पर लगाए गए. यह सत्तापक्ष का और समुदाय-विशेष का भी आरोप है. 


तृणमूल कांग्रेस व मुसलमान


इसका एक और पक्ष यह है कि टीएमसी का कोर वोटबैंक मुसलमान है. दो एम-महिला और मुसलमान-में एक मुसलमान ही है. इससे पहले दुर्गा-विसर्जन के समय भी कुछ उत्पात हुआ था और उस वक्त भी मुख्यमंत्री ने जो रुख अपनाया था, उसकी काफी आलोचना हुई थी. उस समय भी वह काफी विवादों में आयी थीं. इसे वैसे एक तरफ से नहीं देखनी चाहिए. जहां तक हिंसा की बात है, तो इस बार उस तरह की हिंसा की घटनाएं नहीं हुई हैं, कम हुई हैं. उसी तरह एक और घटना 17 अप्रैल को रामनवमी के दिन ही हुई है. चुनाव आयोग ने राज्यपाल के उत्तरी बंगाल के कुछ हिस्सों में जाने पर रोक लगा दी है. सवाल यह है कि बंगाल के राज्यपाल इतने एक्टिव क्यों हैं, और बंगाल ही नहीं, जो भी विपक्ष-शासित राज्य हैं, वहां के राज्यपाल अति-सक्रिय हैं. बंगाल हो, केरल हो या इस तरह के जो भी राज्य हैं, उन पर लगातार इस तरह के आरोप लगते हैं. कुछ राज्यपाल इस्तीफा दे रहे हैं और चुनाव लड़ जा रहे हैं. तो, राजनीतिक प्रश्न यह भी है. जहां तक टीएमसी और मुख्यमंत्री के संदेश का सवाल है, तो उनका मानना है कि हिंदुत्ववादी संगठन और उनके लोग उग्रता भड़का रहे हैं, वह थोड़ी सी इस तरह की बाधा उत्पन्न करते हैं. 


चुनावी हिंसा और केंद्रीय बल


बंगाल को एक तरह से छावनी बना दिया गया है. उसका कारण यह है कि भ्रष्टाचार की जो घटनाएं हैं, चुनावी हिंसा को लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से जो फटकार मिली है, कई सामाजिक कार्यकर्ता, जो टीएमसी के समर्थक थे, जैसे अपर्णा सेन, उन्होंने भी हिंसा की आलोचना की थी और ममता बनर्जी को जिम्मेदार ठहराया. कहा कि उनको जिम्मेदारी लेनी होगी. इसका दूसरा पक्ष है, जो राज्य सरकार का मानना है, वह मानते हैं कि केंद्र ने उनको लक्षित किया है औऱ उनको घेरने के लिए केंद्र ने ऐसा कुछ किया है. हालांकि, इस बात से इनकार तो नहीं किया जा सकता कि पिछली बार जिस तरह से हिंसा हुई, चाहे वह विधानसभा का चुनाव हो या पंचायत चुनाव हो, जिसमें आखिरी दिन ही दो अंकों में हत्याओं का आंकड़ा पहुंच गया, उसको देखते हुए ही इतनी भारी संख्या में केंद्रीय बल तैनात किए गए हैं, बंगाल को एक तरह से छावनी में बदल दिया गया है. बंगाल काफी संवेदनशील है और यहां चुनावी हिंसा का एक इतिहास भी रहा है. 


हालांकि, बंगाल में कभी धार्मिक दंगे नहीं हुए. यहां चाहे कम्युनिस्ट रहे हों या फिर टीएमसी की सरकार हो, यहां आजादी के बाद धार्मिक दंगे नहीं हुए हों. एक सवाल तो यह भी उठता है कि जब किसी राज्य का मुख्यमंत्री कहीं जा रहा हो या जा रही हो, तो उनके सामने आकर धार्मिक नारे लगाने वाले लोग कौन हैं? इस कोण से भी सोचना चाहिए. बंगाल में जो सत्तापक्ष है, वह लगातार केंद्र पर आरोप लगाता रहा है कि उसको फंड नहीं दिए गए. केंद्र ने अपना पक्ष लगातार रखा है कि भ्रष्टाचार है, काम नहीं होता है. तो, दोनों का अपना पक्ष है. वैसे, अगर निष्पक्ष तौर पर देखें तो यह तो दिखता है कि गैर-भाजपा शासित राज्यों में ही सारी केंद्रीय एजेंसियां वहीं इतनी सक्रिय क्यों हैं? हालांकि, एजेंसियों का कहना है कि वे अपना काम कर रहे हैं और वे गलत करेंगे तो फिर उसके लिए अदालते हैं, लेकिन केंद्रीय एजेंसियों पर हमला तो किसी तरह जायज नहीं कहा जा सकता है. इससे तो संघीय ढांचा और प्रजातंत्र ही हिल जाएगा.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]