रामनवमी के मौके पर बिहार के सासाराम और बिहार शरीफ में भारी हिंसा हुई. इसके बाद जहां राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे सुनियोजित तरीके से की गई हिंसा करार दिया तो वहीं बिहार दौरे पर आए गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि दंगाइयों को उल्टा लटकाएंगे. बिहार में दंगा को लेकर ओवैसी ने भी राज्य सरकार की कार्यशैली पर सवाल खड़े किए हैं. ऐसे में नीतीश कुमार जी की छवि तो जरूर इन दंगा की घटनाओं से प्रभावित होगी. चूंकि नीतीश कुमार की जो यूएसपी था वो सुशासन ही माना जाता था. लेकिन इस बार रामनवमी पर विभिन्न शहरों में जो हिंसात्मक घटनाएं हुई हैं. उसमें सासाराम और नालांदा के अलावा नवगछिया में, मुजफ्फरपुर में भी छिटपुट घटनाएं हुई हैं. रामनवमी तो था ही लेकिन नवरात्र के मूर्ति विसर्जन के दौरान भी घटनाएं हुई हैं. आम तौर पर हम सब जानते हैं कि नीतीश कुमार के पास ही पिछले 18 वर्षों से गृह विभाग की जिम्मेवारी है. ऐसे में पुलिस-प्रशासन की कमान उन्हीं के हाथ में हमेशा से रही है.
आम तौर पर यह देखा जाता था कि आज से पहले यानी कि इस बार जो घटनाएं हुई हैं उससे पहले चाहे ईद हो, मुहर्रम हो, दिवाली हो या फिर छठ महापर्व हो, रामनवमी या दशहरा का जुलूस हो इन सभी मौकों पर पुलिस का जो डिप्लॉयमेंट होता था या पैरामिलिट्री फोर्स की जो तैनाती होती थी वो काफी सख्ती से होता था. चूंकि हम जानते हैं कि बिहार में छठ पूजा एक लोक आस्था का महापर्व है लेकिन इस मौके पर भी कुछ साल पहले नारियल घाट दानापुर में भगदड़ की घटना हुई थी और उसके बाद सरकार ने यह तय किया था कि वो चाहे हिंदू का पर्व हो या मुसलमान का कोई पर्व-त्योहार हो सभी में प्रशासन पूरी तरह से सतर्क रहेगा और पुलिस की तैनाती में कहीं कोई कोताही नहीं होगी.
कानून व्यवस्था के मुख्यमंत्री सीधे तौर पर जिम्मेवार
लेकिन इस बार पता नहीं सरकार की ओर से कमी रही या फिर स्थानीय प्रशासन ने सरकार को रिपोर्ट देने में कोई कोताही बरती या फिर मुख्यमंत्री के स्तर पर चूक हुई. चूंकि सीधे तौर गृह मंत्रालय का कार्यभार तो मुख्यमंत्री जी के जिम्मे है, तो पुलिस-प्रशासन को देखना उन्हीं का काम है और उसके लिए वे सीधे तौर पर जिम्मेवारी हैं. वो ये नहीं कह सकते हैं कि मैंने यह निर्देश दिया और नहीं हुआ. चूंकि मुख्यमंत्री के तौर पर और गृह मंत्री के नाते वो जो निर्देश देंगे वही होगा. चूंकि जिलों में एसपी से लेकर डीएम तक की जो तैनाती होती है वो इन्हीं के निर्देश पर होती है. इसमें किसी दूसरे मंत्रियों का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है. ऐसे में कहीं न कहीं इस बार तो मुख्यमंत्री की जो सुशासन की छवि रही है वो धूमिल हुई है. भाजपा और अन्य विपक्षी नेताओं का यह आरोप भी है कि मुख्यमंत्री ने कोताही बरती है. सासाराम में कुछ घटनाएं तो बिल्कुल डीएम कार्यालय के समक्ष घटित हुईं और कुछ महत्वपूर्ण इलाकों में घटी और वो पहले से संवेदनशील इलाका माना जाता था.
आम तौर पर सासाराम बहुत शांत शहर माना जाता रहा है. लेकिन कुछ इलाकों को पहले से चिन्हित किया गया था जो संवेदनशील थे और वहां पर जो पुलिस का डिप्लॉयमेंट था वो होमगार्ड के जवानों के हाथ में सौंप दी गई थी. सवाल यह उठता है कि क्या मुख्यमंत्री को पहले से इसकी भनक नहीं थी, क्या उन्हें खुफिया विभाग ने इसे लेकर जानकारी नहीं दी थी. क्या उनके सूचना तंत्र ने उन्हें इसके बारे में नहीं बताया और अगर बताया तो फिर जानबूझकर ढिलाई बरती गई तो ये सारे सवाल मुख्यमंत्री की छवि से जुड़े हैं. नालांदा उनका गृह जिला है और वहां पर जिस तरह से घटनाएं हुईं, मंदिर से लेकर मस्जिद तक जो उपद्रव हुआ, आगजनी हुई. आम लोग इससे दहशत में आए और कुछ मुट्ठी भर उपद्रवी दिन में कई बार सड़कों पर उतर आए. इसमें ऐसा लगता है कि अगर कोई घटना घट गई, या अचानक घटी और पुलिस वहां नहीं थी तो यह अलग मुद्दा हो सकता है. लेकिन एक घटना के बाद कुछ घंटे के अंतराल पर फिर दूसरी बार वहीं पर घटना होती है तो यह तो सीधे तौर पर प्रशासन की विफलता मानी जाएगी और इसके लिए आप सीधे तौर पर सरकार को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं, स्थानीय प्रशासन को लापरवाह बता सकते हैं.
दंगाइयों पर कार्रवाई में हुई देरी
दूसरी बात यह भी है कि दंगाईयों की धर-पकड़ तब शुरू होती है जब पूरे दिन या रात तक वे सड़कों पर रहे लेकिन यह काम तो पहले भी हो सकता था. पुलिस थोड़ा और सक्रिय हो जाती. चूंकि आम तौर यह माना जाता है कि रामनवमी के मौके पर जुलूस निकलने वाला हो तो यह पहले से प्रशासन के संज्ञान में होता है. जुलूस का रूट तय किया जाता है कि वो कहां से निकलेगी और किन चौक-चौराहों या स्थानों से गुजरेगी. प्रशासन यह भी नहीं कह सकती है कि उसे इसकी जानकारी नहीं थी...तो ये सारे चीजें ऐसी हैं कि जो सरकार को कटघरे में खड़ा करती है. मुख्यमंत्री जी जोकि अपने सुशासन और बेहतर कानून-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जाने जाते थे उस छवि पर इससे कहीं न कहीं दाग तो लग गया है. भाजपा ने तो यह भी आरोप लगाया है कि जब तक वे भाजपा के साथ रहे तब तक वे दबाव में रहते थे. उन्हें लगता था कि प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त और कानून व्यवस्था को बना कर रखनी है. लेकिन अभी वो जिन लोगों के साथ हैं वहां पर इसे लेकर कोई प्राथमिकता नहीं है. भाजपा ने यह भी कहा है कि राजद के लोग अराजकता के लिए जाने जाते हैं.
इसमें दूसरी बात यह भी उभर कर आ रही जिसमें सत्ताधारी दल को, मुख्यमंत्री को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी होगी कि तुष्टीकरण की जो नीति पिछले कुछ दिनों से अपनाई जा रही है ये जब आप बिहार की खबरों पर नजर रखेंगे तो आपको साफ तौर पर दिखाई भी देगा. जिस तरह से से शिक्षा मंत्री ने रामचरितमानस को लेकर बयान दिया है, जिस तरह से राजद के प्रदेश अध्यक्ष ने अयोध्या को नफरती भूमि बताया, अब्दुल बारी सिद्दीकी को भारत में रहने से डर लगता है और वो बिहार सरकार में पूर्व मंत्री भी रहे हैं और राजद के एक बड़े मुस्लिम चेहरा हैं और बड़े नेता भी हैं बिहार के, जदयू के जो एमएलसी है रसूल गुलाम बलियावी उन्होंने जिस तरह से कहा कि हर शहर को कर्बला बना देंगे की बात कही...तो इन सब बातों से माहौल पहले से ही तल्ख था.
राजनीतिक बयानों से भड़क हिंसा
लोगों में इन बातों को लेकर उत्तेजना थी. इन बयानों से लोगों की भावनाएं कहीं न कहीं आहत हुईं थी और इन्हीं सब के परिणाम के रूप में मुझे लगता है कि रामनवमी जुलूस के दौरान या नवरात्री के दौरान ये घटनाएं सामने आई हैं...तो सरकार को इन सारे पक्षों पर विचार करना चाहिए. अपनी नीतियों की समीक्षा करनी चाहिए. प्रशासनिक तंत्र कहां पर विफल रहा. मुझे लगता है कि प्रशासन का जो मशीनरी है उसकी भी विफलता की समीक्षा की जरूरत है और नीतिगत तौर पर सरकार को दो चीजें तो सुनिश्चित करनी ही पड़ेगी कि आम लोगों की जान-माल की हिफाजत हो और दूसरा की यह उन्मादी वातावरण नहीं बनने दें. मुझे लगता है कि पिछले कुछ महीनों में जो बयानबाजी हुई और इसके पीछे की जो वोटों की राजनीति है, ध्रुवीकरण है ये सारी चीजें हैं. संभव है कि सरकार की तरफ से जो कुछ कहा गया या मंत्रियों की तरफ जो बयान दिए गये भाजपा उसका लाभ उठाने की चक्कर में है.
चूंकि वोट तो सबको चाहिए और हम सब जानते हैं कि 2024 में लोकसभा का चुनाव है और 2025 बिहार विधानसभा का चुनावी साल है...तो ऐसे में जो वोटों के ध्रुवीकरण का प्रयास हो रहा दोनों तरफ से इससे भी माहौल बिगड़ा है...तो जो सवाल है कि इससे मुख्यमंत्री की छवि खराब होने की तो एक बात है कि इससे पहले बिहार में दंगा की इनके शासनकाल में एक साथ इतनी घटनाएं नहीं हुईं थीं और अगर कहीं कुछ हुआ भी तो प्रशासन इतना सतर्क रही की उस पर जल्द रोक लगा दी गई लेकिन इस बार ऐसा देखने को नहीं मिला है....तो इसलिए मुख्यमंत्री जी को ही इस पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी होगी.
मुझे लगता है कि इसका चुनाव पर भी असर निश्चित तौर पर होगा. चूंकि चुनाव में तो मतदाता ही भाग लेते हैं. वे आम नागरिक ही होते हैं...तो उनकी भावनाएं, उनकी प्रतिक्रिया ये सब इस तरह की घटना से प्रभावित होती है. वे इसे लेकर किस तरफ वोट करेंगे, उनकी गोलबंदी किस तरह से होगी, ध्रुवीकरण किस तरह से होगा तो निश्चित तौर पर इसका असर चुनाव पर होगा. हम ये देखते हैं कि जब किसी एक समुदाय को लेकर तुष्टिकरण की राजनीति होती है तो दूसरा तबका प्रतिक्रियावादी हो जाता है और इससे फिर एक दूसरा ध्रुव भी बनने लगता है तो चाहे वो तुष्टिकरण किसी के लिए भी तो इसका असर तो चुनाव में दिखेगा.
[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]