ये संभव है कि आप भी उसी सोच का हिस्सा हों कि वीरेंद्र सहवाग की बल्लेबाजी की तकनीक सही नहीं थी. ये भी संभव है कि आपको वीरेंद्र सहवाग की बल्लेबाजी का अंदाज कभी पसंद ना आया हो. ये भी संभव है कि आपको वीरेंद्र सहवाग एक लापरवाह बल्लेबाज लगते हों, लेकिन अपने डेढ़ दशक के करियर में वीरेंद्र सहवाग को कभी भी इन बातों से कोई फर्क ही नहीं पड़ा.
उन्होंने जिस अंदाज से बल्लेबाजी करना सीखा था, जिस अंदाज से बल्लेबाजी करना सोचा था वो वही अंदाज लेकर अंतर्राष्ट्रीय मैचों में भी मैदान पर उतरे. उनके लिए हाथ में बल्ला रन बनाने का हथियार और मैदान में उतरना जीत की चाहत. उनके आलोचक रिकॉर्ड बुक के कई ऐसे मैच गिना सकते हैं जिसमें वो गलत शॉट खेलकर आउट होकर पवेलियन लौट गए लेकिन उनकी काबिलियत को समझने वालों के पास सिर्फ एक वाक्य है कि वीरेंद्र सहवाग जिस जिन बल्लेबाजी में चलते थे उस दिन उनकी टीम को कोई हरा नहीं सकता था.
एक ऐसा वक्त आया जब वीरेंद्र सहवाग को खेल के सभी फॉर्मेट में सबसे आक्रामक बल्लेबाज माना जाता था. ये बात सर विवियन रिचर्ड्स जैसे धुरंधर बल्लेबाज ने कही थी. दरअसल सारी बातों का निचोड़ ये है कि वीरेंद्र सहवाग अपने समय से दस साल आगे की क्रिकेट खेल रहे थे. जो क्रिकेट इस वक्त खेली जा रही है. जिसकी दीवानी दुनिया है.
याद कीजिए मुल्तान का तिहरा शतक
2004 की पाकिस्तान सीरीज ने वीरेंद्र सहवाग को ‘मुल्तान का सुल्तान’ बनाया. जिसकी चर्चा हजारों बार हो चुकी है. संक्षेप में बस इस बात को याद कीजिए कि उन्होंने छक्के के साथ अपना तिहरा शतक पूरा किया था. इसके बाद 309 रनों की उनकी पारी को याद कीजिए. वो हमेशा टीम के लिए खेले, अपने शतक या दोहरे शतक की परवाह किए बिना. दिसंबर 2008 का चेन्नई में इंग्लैंड के खिलाफ खेला गया टेस्ट मैच भी लगे हाथ याद कीजिए. उस टेस्ट मैच की चौथी पारी में भारत के सामने जीत के लिए 387 रनों का लक्ष्य था.
वीरेंद्र सहवाग ने जिस अंदाज में बेखौफ बल्लेबाजी की वही जीत की वजह बन गई. सहवाग ने उस मैच में 68 गेंद पर 83 रन बनाए थे. इसके बाद सचिन तेंडुलकर और युवराज सिंह ने शानदार बल्लेबाजी कर टीम इंडिया को ऐतिहासिक जीत दिलाई. ऐसी पारियों को याद करने बैठेंगे तो फेहरिस्त काफी लंबी हो जाएगी इसलिए इस प्रसंग को भी इस निचोड़ के साथ खत्म करते हैं कि वीरेंद्र सहवाग टेस्ट क्रिकेट में भी क्रीज पर डेरा डालने की बजाए उसी अंदाज और उसी सकारात्मकता के साथ बल्लेबाजी करते थे जैसे वनडे में करते थे.
दस साल आगे की क्रिकेट खेल गए सहवाग
आज के दौर में सबसे खतरनाक बल्लेबाजों के नाम सोचिए- दक्षिण अफ्रीका के एबी डीविलियर्स, ऑस्ट्रेलिया के ग्लेन मैक्सवेल या फिर भारत के हार्दिक पांड्या जैसे कुछ नाम दिमाग में तुरंत आते हैं. अब जरा अपने आप से पूछिए, इन बल्लेबाजों की खासियत क्या है, ये तो कतई नहीं कि एक ओवर में दो-तीन चौका लगाने के बाद हाथ को रोक देना. इनकी खासियत है कि एक ओवर में जितने ज्यादा से ज्यादा रन बटोरे जा सकते हों बटोर लिए जाएं.
इस कोशिश में ये बल्लेबाज आउट भी होते हैं लेकिन जिस दिन ये बल्लेबाज चलते हैं वो दिन इनका अपना होता है. उस दिन इन्हें कोई रोक नहीं सकता है. यही काम वीरेंद्र सहवाग दस साल पहले किया करते थे. बस परेशानी ये थी कि उस वक्त का क्रिकेट इस की इजाजत नहीं देता था.
आज विराट कोहली कप्तानी संभालने के बाद अपनी टीम को समझाते हैं कि हर कोई व्यक्तिगत उपलब्धियों की बजाए टीम की जीत पर फोकस करे. सहवाग यही काम दस साल पहले कर रहे थे. अगर उन्होंने अपने शतकों की परवाह की होती तो निश्चित तौर पर अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में उनके शतकों की संख्या 50 के करीब होती जो अभी 38 है. सहवाग को पता था कि मैच की टिकट खरीद कर पैसे खर्च मैदान पहुंचने वाले क्रिकेट की तकनीक देखने नहीं आते, आने वाले समय में तो और भी नहीं आएंगे. यही वजह है कि उन्होंने हमेशा रन बनाने के लिए बल्लेबाजी की अपनी तकनीक का लोहा मनवाने के लिए नहीं.