चुनावों के दौरान बिहार की राजनीति अपनी नाकारात्मक जातीय राजनीति की (कु)ख्याति को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित-प्रसारित होती है, मगर आंकड़े कुछ और ही बानगी प्रस्तुत करते हैं. बिहार के मतदाताओं ने कई मौकों पर यह जताया है कि वे जातीय बंधन तथा जातीय समीकरण को तोड़कर  मुद्दे व प्रभावी व्यक्तित्व के पैमाने पर भी मतदान करते हैं. यही कारण है कि अन्य राज्यों से आने वाले प्रत्याशियों ने भी बिहार के रास्ते चुनावी वैतरणी पार की है. अन्य राज्यों में शायद ही इतनी बड़ी संख्या में बाहरी राज्यों से आने वाले प्रत्याशियों ने जीत हासिल की होगी.


रोचक तथ्य यह भी है कि इसमें जातीय समीकरणों की खुलेयाम वकालत करने वाले क्षेत्रीय दलों के निशान पर भी  अन्य राज्यों के प्रत्याशियों ने चुनावी सफलता अर्जित की. कई मौकों पर बिहार के उम्मीदवारों को भी वैसी सीटों से जनता का आशीर्वाद प्राप्त हुआ जहां उनका जातीय आधार कमजोर था या फिर न के बराबर था.


बिहार बताता रहा है जाति को धता 


जातीय समीकरण को धता बताते हुए चुनावी सफलता अर्जित करने वाले प्रमुख नामों में जार्ज फर्नाडिस, मधु लिमये, जेबी कृपलानी, राम सुन्दर दास, कर्पूरी ठाकुर, श्री कृष्ण सिंह जैसे नाम हैं.  जार्ज फर्नाडिस बिहार की क्षेत्रीय राजनीति  में पिछले कुछ दशक पूर्व तक सक्रिय  थे. मूलतः वे कर्नाटक, मैंगलोर के मैंग्लोरिन-कैथोलिक परिवार से थे. मुजफ्फरपुर और नालंदा से लोकसभा चुनाव जीतने वाले जॉर्ज के सम्प्रदाय का बिहार की राजनीति में हस्तक्षेप न के बारबार है. इसके बाद भी जार्ज बिहार में क्षेत्रीय पार्टी का दर्जा रखने वाले जनता दल यूनाइटेड के शीर्ष नेता तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे.


इस तरह का उदाहरण किसी अन्य राज्य के क्षेत्रीय दलों में देखने को नहीं  मिलता है कि क्षेत्रीय पार्टी का अध्यक्ष कोई बाहरी हो. जार्ज की तरह ही मूलतः मध्यप्रदेश के बाशिंदा शरद यादव भी जनता दल यूनाइटेड  के  राष्ट्रीय अध्यक्ष और मधेपुरा से सांसद रहे. हालांकि, शरद यादव बाहरी जरूर थे मगर उनकी जाति बिहार में संख्या के आधार पर सबसे बड़ी जाति है और मधेपुरा लोकसभा यादव बहुल क्षेत्र है. शरद 1991 से 2019 के दौरान मधेपुरा से 8 बार चुनाव लड़े और 4 बार जीत दर्ज की.



कई नेताओं ने तोड़ी जाति की बंदिशें


मूलतः पुणे के रहनेवाले व प्रखर समाजवादी  नेता  मधु लिमये मुंगेर व बांका लोकसभा क्षेत्र से कुल छह  बार चुनावी दंगल में उतरे और चार बार उन्हें बिहारी जनता ने जीत का आशीर्वाद दिया. पहली बार वे यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी के सिम्बल पर 1964 में मुंगेर से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे. लिमये ने 1977 में जनता पार्टी की टिकट पर बांका से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. जबकि 1950 के दशक में गोवा मुक्ति आंदोलन में प्रखर नेतृत्वकर्ता के तौर पर सामने आने के बाद भी वर्ष 1957 में  लिमये को  मुंबई में बांद्रा क्षेत्र से अपने राज्य की जनता ने आशीर्वाद प्रदान नहीं किया था. जेबी कृपलानी भी बिहार के रास्ते लोकसभा में जाने में कामयाब रहे.  वे सन् 1947 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे थे, जब भारत को आजादी मिली. पहली बार वह सन 1952 में भागलपुर से प्रजा सोसलिस्ट पार्टी के सिम्बल पर  लोकसभा चुनाव जीते.


बाहरी के साथ बिहारी उम्मीदवार भी जीते 


 बाहरी उम्मीदवारों के अलावा बिहार के भी कई ऐसे राजनेता रहे जिन्होंने जातीय समीकरण व जातीय ताकत को धता बताते हुए चुनावी जीत  हासिल की. बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह आज़ादी के बाद पहले विधानसभा चुनाव में मुंगेर के खड़गपुर क्षेत्र से विधानसभा पहुंचे थे. खड़गपुर क्षेत्र में श्रीकृष्ण सिंह की जाति की बहुलता नहीं था. श्रीकृष्ण सिंह की तरह ही बिहार के दो अन्य मुख्यमंत्री रामसुंदर दास और  भारत रत्न से सम्मानित कर्पूरी ठाकुर ने भी बिना अपनी जातीय ताकत के चुनावी जीत हासिल किया.


रामसुंदर दास 1977 में सोनपुर से विधायक निर्वाचित हुए थे. जनता पार्टी के रामसुंदर दास रविदास जाति से आने के बाद भी 1977 में सामान्य क्षेत्र से रामेश्वर प्रसाद राय को हराया था. वहीं कर्पूरी ठाकुर  बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे. 1952 में पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद उन्होंने कई चुनावों में जीत अर्जित की, जबकि आंकड़ें गवाह हैं की अपने जातीय संख्या बल पर कर्पूरी ठाकुर का  चुनाव जीतना  बिहार के किसी भी क्षेत्र से मुश्किल होता.  कर्पूरी ठाकुर का जन्म नाई जाति में हुआ था. इसी तरह बिहार के पूर्णिया से अजित सरकार लगातार चार बार विधायक बने. माकपा नेता अजित सरकार बंगाली थे इसके बाद भी पूर्णिया विधानसभा से बार-बार विधयाक बने.


जाति के बंधन काट दो 


 इसके अलावा निखिल कुमार चौधरी बिहार के कटिहार निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हुए 13वीं , 14वीं और 15वीं लोकसभा के सदस्य थे.  इन्होंने भी जातीय समीकरण को ख़ारिज करते हुुए चुनावी सफलता अर्जित की. निखिल चौधरी भूमिहार जाति से आते हैं और  कटिहार में निखिल चौधरी को हिंदुओं के प्रबल पैरोकार के तौर पर जाना जाता है. ये भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ते थे.


अभी निवर्तमान सांसदों की बात करें जहानाबाद लोकसभा क्षेत्र  से जदयू के चंदेश्वर चंद्रवंशी सांसद हैं. चंदेश्वर चंद्रवंशी कहार जाति से आते हैं. जहानाबाद में इनकी जाति की संख्या बल कहीं से भी चुनावी राजनीति हार_जीत को प्रभावित करने वाली नहीं है. इसके बाद भी चंदेश्वर 2019 के लोस चुनाव में मोदी लहर में चुनावी वैतरणी पार करने में कामयाब रहे. 2024 के लोस चुनाव के लिए भी एनडीए गठबंधन से जदयू के सिंबल पर मैदान में हैं. 


जाहिर है, आंकड़े गवाही दे रहे हैं कि जातीय ताने-बाने को लेकर जिस बिहार को दागदार किया जाता रहा है उसकी असल कहानी कुछ और भी है. राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों के सिम्बल पर अन्य राज्यों भी उम्मीदवारों को जीताया जाता रहा है मगर बिहार एक एकमात्र राज्य है जहां क्षेत्रीय दलों से अन्य राज्य के लोग लोकसभा पहुंचने में कामयाब होते रहे हैं. वहीं बिहार के उम्मीदवारों ने भी जातीय समीकरण को कई बार धता बताया है.



[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]