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एक स्त्रीदेह में कितने अतुल सुभाष...कब सुनेगी दुनिया इनकी अरदास?

वैसे तो मनुष्य सामाजिक प्राणी है और समाज के परे मनुष्य दानव या देवता की श्रेणी में आता है. मगर मनुष्य के अंदर जब समाज में रहते हुए पाशविक प्रवृत्ति बढ़ जाती है, तब इसका असर सम्पूर्ण मानव जाति के वर्तमान और भविष्य पर पड़ता है. पिछले दस दिनों में हुए दो वारदात अखबारों की सुर्खियां तो बनी फिर पानी के भाप की तरह उड़ गईं! दोनों ही घटनाएं हैदराबाद की हैं. एक घटना में पति ने गर्भवती पत्नी के पेट पर बैठकर मुंह पर तकिया रख कर हत्या कर दी थी. प्रहार इतना जोरदार था कि बच्चा गर्भनाल समेत बाहर आ गया और मौके पर दोनों की मौत हो गयी. दूसरी घटना में पूर्व सैनिक और वर्तमान गार्ड पति ने अपनी पत्नी की हत्या की फिर छोटे-छोटे टुकड़े कर उन्हें कुकर में उबाल कर पास के झील में फेंक आया. लड़की के माता-पिता की शिकायत के बाद पति को धर दबोचा गया.

पत्नियों के साथ बहुतेरी अजीब घटनाएं

ऐसी अनगिनत घटनाएं तो नृशंसता के चरम को लिए हुए हैं, मगर बहुत सी घटनाएं ऐसी भी हैं जो तर्क विहीन होते हुए भी महिलाओं को भावनात्मक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करती नज़र आती ही रहती हैं. हाल में यूपी के आगरा के परिवार परामर्श केंद्र में एक अजीबो-गरीब मामला सामने आया जिसमें शादी के अगले दिन पति ने यह कह कर पत्नी को छोड़ दिया कि उसके पेट में ‘स्ट्रेच मार्क्स’ हैं जो अमूमन प्रेग्नेंसी के बाद आते हैं.

पूरी जांच-पड़ताल के बाद ही पत्नी को स्वीकारने की शर्त रखी है, जबकि डॉक्टर के अनुसार भी पेट के स्ट्रेच मार्क्स का एक मात्र कारण गर्भ नहीं होता है. पीड़िता गर्भाशय के फेबरोसिस से पीड़ित है जिसका एक ऑपरेशन हो चुका था और इसे वर पक्ष को बताया भी जा चुका था, परंतु पति का कहना है ऑपरेशन और स्ट्रेच मार्क्स में फ़र्क होता है और वह पत्नी को स्वीकारने को तैयार नहीं.

मंद बौद्धिक क्षमता और पुरुष के वर्चस्व की यह पराकाष्ठा ही तो है. कल अगर मेडिकल जांच में पीड़िता ‘सती सावित्री’ निकाल कर आती है तो क्या लड़की की भावनात्मक ग्राह्यता इतनी होगी कि वह अपने पति और ससुराल को सामान्य रूप से स्वीकार कर आम वैवाहिक और पारिवारिक जीवन जी पाए? या समाज और कानून के सामने की अपनी अग्नि परीक्षा की कड़वाहट और आत्म स्वाभिमान उसे सामान्य जीवन जीने नहीं देगी?

दुर्घटनाओं का सामान्यीकरण नहीं है ठीक

ऐसी घटनाएं ना तो पहली हैं और ना ही आखिरी! हमारे मन मस्तिष्क ने ऐसी घटनाओं को अब सामान्य तरीके से ग्रहण करना शुरू कर दिया है. आम घटनाओं की तरह ही इसे अब पढ़ा और समझा जाने लगा है. स्त्री के प्रति हिंसात्मक रवैये को लेकर सहजता अब इतनी ज्यादा बढ़ गयी है कि दरिंदगी की विभीषिका लिए हुए घटनाओं को भी, जिसमें बलात्कार और जघन्य हत्या, गैंग-रेप और हत्या तक हैं उसमें भी न्यायालय तक ऐसी घटनाओं को ‘रेयर ऑफ द रेयरेस्ट’ नहीं मान रहा है!

भारत के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ स्टैटिस्टिक्स ऐण्ड प्रोग्राम इंप्लिमेंटेशन) द्वारा जारी एक रिपोर्ट, विमेन ऐण्ड मेन इन इंडिया 2022 ने एनसीआरबी डाटा का अध्ययन करके महिलाओं पर विभिन्न प्रकार के उत्पीड़न के कुछ आंकड़े दिए थे. 2016 से 2021 के बीच जुटाए गए आंकड़ों के रिपोर्ट के अनुसार देश में महिलाओं के विरुद्ध अपराध की 22.8 लाख घटनाएं दर्ज की गईं और इनमें से 7 लाख घटनाएं घरेलू हिंसा से संबंधित थीं. यानी 30 प्रतिशत मामले पति और उसके परिवार द्वारा हिंसा के थे.

30 फीसदी मामले पारिवारिक हिंसा के

ये आलम सरकारी आंकड़ों का है. दूर दराज गांवों में ऐसे कई निर्मम हत्याओं के मामले हैं जो पुलिस तक पहुंचाए भी नहीं जाते. गरीब इलाकों में या तो कुछ ले-देकर लड़की के पक्ष को चुप कर दिया जाता है या लड़की पक्ष घर परिवार के दूसरे लड़कियों के विवाह में आशंकित अड़चनों के भय से केस दर्ज करा किसी कानूनी पचड़े से बचते नज़र आते हैं. इस में अभी मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक प्रताड़ना के आंकड़ें शामिल नहीं है. भारत में पति पत्नी के रिश्ते को जन्म जन्मांतर के संबंध माना जाता है. इहलोक से लेकर परलोक तक की यात्रा के साथी के रूप में जीवन साथी को देखा और समझा जाता है. फिर ये ऐसा कौन सा  कुत्सित भाव है जो सामाजिक, धार्मिक और मानवीय मूल्यों को तिरस्कृत करके मानव की परिभाषा से इतर होकर स्वयं को पशु श्रेणी में रख देता है?

बढ़ रहा तलाक, टूट रहे परिवार

हमारे संस्कृति में नारी को दो कुलों के सम्मान के रूप में देखने की परंपरा रही है. परंतु हाल के कुछ दशकों  में बदले हुए परिवेश, सोच और वरीयता ही हैं जो इस रिश्ते  की बलि ले रहे. नेशनल फैमिली एंड हेल्थ सर्वे के मुताबिक पिछले पांच सालों में तलाक के मामलों में 35 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गयी है. यूनाइटेड नेशंस की तरफ से जारी रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार भारत में तलाक के मामले पिछले कुछ सालों में लगभग दोगुने हो चुके हैं.  साल 2005 में जहां ये दर 0.6 प्रतिशत थी, वो 2019 में बढ़कर 1.1 प्रतिशत तक पहुंच गयी है.

ऐसा नहीं है कि पुरुष समाज एक तरफा आक्रामक है और सिर्फ वही कारण हैं. अतुल सुभाष जैसे पीड़ित पुरुष भी हैं जो हर प्रकार की हिंसा के शिकार हो रहे हैं और इनकी अनदेखी भी फिर वही इतिहास दुहराएगी जो सबसे पहली स्त्री के प्रति हिंसात्मक और अमानवीय घटना पर उस समय के समाज के चुप्पी की होगी. अतुल सुभाष मामले में जैसा पूरा देश आंदोलित हुआ और इस दुर्घटना को लेकर सजग और मुखर हुआ वैसे अगर स्त्री के प्रति शुरुआती दुर्घटनाओं को लेकर हुए होते तो शायद समाज में ऐसी स्थिति आई ही नहीं होती. अब तो स्त्रियों के भी कई वीभत्स रूप दिखाई देने लगे हैं जो समस्या के समाधान नहीं बल्कि उसके विकराल स्वरूप को बढ़ते हुए नज़र आ रहे हैं. स्त्री मन का भय जो शनैः शनैः इतना प्रबल हो गया है कि वो कई दफ़े अब वैवाहिक जीवन के तिल सरीखे विषयों को भी ताड़ बनाने में लग गया है.

कल को उसके साथ कोई भी हिंसात्मक घटना हो सकती है, इस भय से वह कई बार थोड़ा भी एडजस्ट करने को तैयार नहीं होती है. स्त्री के प्रतिकार को भी हर समय अनुचित नहीं ठहराया जा सकता है मगर आज भी हम उसके अनगिनत दुर्दशा पर नगण्य ऐसी घटनाओं की मिट्टी डाल दे रहें जहां स्त्री दोषी होती है. फिर अधिकांश स्त्रियाँ जो वास्तव में आज भी स्त्रीत्व के गुण को लिए है, मातृत्व  और वात्सल्य स्वरूप के साथ पारिवारिक धुरी के नींव को मजबूती देने में विश्वास रखती हैं, वो भी इस आंधी में बह जा रही हैं.

‘पापा की परी’ ; ‘बेटी को और पढ़ाओ’ जैसे कटाक्ष स्त्री को और भी प्रतिशोधात्मक, प्रतिरात्मक और स्वयं के लिए सुरक्षात्मक रवैया अपनाने को मजबूर कर दे रही जिसका परिणाम पारिवारिक मूल्यों के दोहन के अलावा कुछ भी नहीं! पति पत्नी के रिश्ते में कड़वाहट, वैमनस्यता की कोई जगह नहीं होनी चाहिए. यह कटुता इतनी ना बढ़ जाए कि हत्या जैसे कुकर्म अपनाने पड़े वरना वर्तमान और भावी पीढ़ी विवाह जैसे सामाजिक और धार्मिक मान्यता पर से विश्वास खो देगी.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.] 

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