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BLOG: बुर्का पहनना या न पहनना, औरत की च्वाइस का मामला है

वैसे यह सिर्फ स्त्री विरोधी मामला नहीं है. प्रतीकों को लेकर जिस प्रकार राजनीति की जा रही है, उसका मामला भी है. कई महीने पहले बम हमलों के बाद श्रीलंका में सार्वजनिक स्थलों पर नकाब पहनने पर बैन लगा दिया गया था.

BLOG:  जिसे मेडिसिन की दुनिया में फियर साइकोसिस या पैरानोया कहा जाता है, वह खूब कायम किया जा रहा है. पिछले दिनों खबर आई कि फिरोजाबाद के एक कॉलेज में लड़कियों को बुर्का पहनकर आने से रोका गया. हालांकि बाद में कॉलेज प्रशासन ने इससे इनकार भी किया. दूसरी तरफ यह खबर भी आई कि रांची के एक कॉलेज में टॉपर को ग्रैजुएशन सेरेमनी में सिर्फ इसलिए डिग्री नहीं दी गई क्योंकि वह बुर्का पहनकर आई थी. तर्क यह दिया गया कि वह तयशुदा ड्रेस कोड को फॉलो नहीं कर रही थी. बुर्का पहनने या न पहनने से पढ़ाई या डिग्री का क्या ताल्लुक है, यह समझ से परे है. लेकिन कॉलेज प्रशासन के नियम हैं तो हैं! बुर्के को लेकर सबकी अपनी-अपनी राय है. आधुनिकतावादी कहते हैं, यह स्त्रियों पर अत्याचार है. उन्हें पीछे की ओर धकेलने की साजिश है. बुर्का, घूंघट, दोनों एक से हैं. हम घूंघट का विरोध करते हैं, तो बुर्के का भी करना होगा. जाहिर सी बात है, स्त्रियों को पर्दे में रखने का क्या तर्क है. कोई चेहरा न देख ले, देह के एक अंश पर किसी की नजर न दौड़ जाए. बुर्का उन्हें ढंकने-मूंदने की कोशिश है. औरत को अपनी संपत्ति मानने का पर्याय. इस प्रकार कपड़े के एक टुकड़े को रिग्रेसिव माना जाता है. यूं ऐसा कोई समाज नहीं, जहां की तमाम परंपराएं प्रगति विरोधी नहीं हैँ. शॉर्ट स्कर्ट या फ्रॉक पहनने वालों को सलवार कमीज या साड़ियों जैसी पोशाक भी संकीर्ण और रूढ़िवादी लग सकती हैं. वहां भी यह तर्क दिया जा सकता है कि कई-कई मीटर कपड़े शरीर ढंकने के लिए क्यों जरूरी हैं. जिस तरह सलवार कमीज पहनने वालों को जबरन शॉर्ट स्कर्ट नहीं पहनाया जा सकता, उसी तरह बुर्का पहनने वालों को जबरन उसे उतारने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता. जिस तरह किसी को जबरन बुर्का या घूंघट नहीं पहनाया जा सकता, उसी तरह जबरन उन्हें उतारने के लिए बाध्य भी नहीं किया जा सकता. यह दोनों ही एक जैसे गलत हैं. फिर यह स्त्री की अपनी आजादी का सवाल है. वह जो परिधान पहनना चाहे, पहने. न उसे जींस पहनने से रोका जाना चाहिए, न ही बुर्का पहनने से. एक दूसरा तर्क भी है. बुर्के को अमेरिकी एंथ्रोपोलॉजिस्ट और फेमिनिस्ट हना पापनेक ने कई साल पहले ‘पोर्टेबल सेक्लूजन’ कहा था. सेक्लूजन यानी तनहाई. उनकी बाद की पीढ़ी की एंथ्रोपोलॉजिस्ट लीला अबू लुगोद इसे कुछ इस तरह स्पष्ट करती हैं कि बुर्का दरअसल मोबाइल होम्स की तरह काम करता है. वह पब्लिक प्लेसेज़ में और अजनबी पुरुषों के बीच औरतों को आजादी से विचरण करने का मौका देता है. फिर मुस्लिम समाज में औरतें सिर्फ बुका नहीं पहनतीं. हर समुदाय में, हर स्थान पर नकाब के अलग-अलग रूप प्रचलित हैं. इसके अलावा इसका यह मतलब भी नहीं कि इससे औरतों की एजेंसी खत्म होती है. दरअसल एजेंसी, च्वाइस और पर्सनहुड जैसे शब्दों के मायने भी हर समाज में अलग-अलग होते हैं. हर समाज का अपना तौर-तरीका होता है. हर तौर-तरीके पर सवाल खड़े करने से पहले यह भी सोचना होगा कि इसका विरोध किधर से किया जा रहा है. औरतें खुद इसका विरोध कर रही हैं या उनकी एवज में पुरुष ही फैसला कर रहे हैं. वैसे यह सिर्फ स्त्री विरोधी मामला नहीं है. प्रतीकों को लेकर जिस प्रकार राजनीति की जा रही है, उसका मामला भी है. कई महीने पहले बम हमलों के बाद श्रीलंका में सार्वजनिक स्थलों पर नकाब पहनने पर बैन लगा दिया गया था. इसके बाद शिवसेना ने अपने यहां भी बुर्का बैन की अपील की थी. इस प्रकार की पहल से फियर साइकोसिस पैदा किया जा रहा है. लोगों में एक खास समुदाय के प्रति भय कायम किया जा रहा है. ताकि वे यह न समझ पाएं कि क्या वास्तविक है और क्या अवास्तविक. वे बुर्के और टोपी जैसे प्रतीकों से डरने लगें. यह डर दुनिया भर में कायम है. विश्व स्तर पर एक दुश्मन की जरूरत हमेशा रहती है. सालों तक कम्युनिज्म एक दुश्मन माना जाता था. सोवियत संघ के विघटन के बाद शीतयुद्ध खत्म हुआ तो अमेरिका के लिए एक नए शत्रु के प्रति आभासी भय उत्पन्न करना जरूरी था. चूंकि वह कम्युनिज्म के नाम पर दुनिया के देशों को भयभीत नहीं कर सकता था. ऐसे में उसने इस्लाम के डर का नया दैत्य खड़ा किया. तालिबान एक बड़े शत्रु के तौर पर सामने आया. इस तरह अमेरिका के लिए ‘बिग ब्रदर’ बने रहना आसान हो गया. ऐसे हालात में दक्षिणपंथ ने अपने पैर पसारे हैं. एक धर्म वालों को राजनीति तौर पर गोलबंद करने के लिए दूसरे धर्म से डराया जा रहा है. उन्हें समझाया जा रहा है कि एकजुट नहीं हुए तो खत्म हो जाओगे. फिलिस्तीनी कल्चरल थ्योरिस्ट एडवर्ड डब्ल्यू सइद इसे अदरिंग कहते हैं. अदरिंग यानी धर्म, लिंग, सामाजिक-आर्थिक स्थिति के कारण लोगों के प्रति पूर्वाग्रह रखना. अदरिंग की इस प्रक्रिया से लोगों को डराया जाता है. अपने मादरे वतन में रहने का डर. अपने खान-पान को लेकर डर. अपने पहनने-ओढ़ने के तरीके पर डर. भीड़ की हिंसा के शिकार होने का डर. बुर्के को लेकर यही आग्रह काम कर रहा है. औरतों की आजादी की दलील, अदरिंग की अवधारणा से उत्पन्न हुई है. बाकी, बुर्का पहनना, या न पहनना, औरत का अपना अधिकार है. यह ठीक उसी तरह है कि मेरी थाली में क्या परोसा जाएगा- मेरी अलमारी में कौन सी किताब होगी- मेरे शरीर पर कैसा कपड़ा होगा, यह तय करने का अधिकार मेरा अपना है. यह किसी के लिए खतरा नहीं हो सकता. न ही किसी की आजादी के लिए खतरनाक हो सकता है. (नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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