बीजेपी ने तो रविवार को तेलंगाना में अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का समापन करने के साथ ही हैदराबाद को "भाग्य नगर" बनाने की एक नई यात्रा की शुरुआत कर दी है. लेकिन उधर,पश्चिम बंगाल में राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को सियासी तौर पर आगबबूला होने का फिर से एक और मौका दे दिया है. हालांकि राज्यपाल ने संविधान में मिली शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए ही ये कदम उठाया है.


लेकिन ममता के बारे में तो ये आम धारणा है कि वे जमीन से जुड़ी खांटी राजनीतिज्ञ हैं,जो राज्यपाल के फैसलों पर भी सवाल उठाने से कोई गुरेज नहीं करतीं. शायद इसीलिए कहते हैं कि आज़ादी के 75 बरस बाद बंगाल में गवर्नर बनाम सीएम के बीच चल रही खींचतान का जो नजारा आज देखने को मिल रहा है, उसे बहुतेरे लोग सियासी सर्कस भी कह सकते हैं लेकिन असहमति जताने का अधिकार भी हमें भारत के संविधान से बने लोकतंत्र ने ही दिया है. ये अलग बात है कि इस अधिकार का इस्तेमाल कब,कहां, कैसे और किस चतुराई के साथ करना है.ये भी जान लीजिए कि जिसे इस विद्या का इल्म हो गया तो लोकतंत्र भले ही उनकी मुट्ठी में न रहे लेकिन वो बाकियों के कुर्तों में लगे जेबों की साइज के नाप का अंदाजा लगाकर ही आगे की रणनीति तय करते हैं.


राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच टकराव होने का मामला उस बिल से जुड़ा हुआ है,जिसमें  ममता ने राज्य के मुख्यमंत्री को यूनिवर्सिटी का चांसलर यानी कुलाधिपति नियुक्त करने वाले बिल को विधानसभा से पास करवाकर राज्यपाल के पास भेजा था. लेकिन राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने ये ऐतराज जताते हुए ममता सरकार को ये बिल वापस भेज दिया है कि ये आधा-अधूरा है,जिसे संविधान के दायरे में रहते हुए लागू नहीं किया जा सकता. ज़ाहिर है कि ममता इस पर भड़केंगी भी और अपनी सियासत भी करेंगीं ही लेकिन लोकतंत्र तो संविधान के स्थापित मापदंड पर ही चलता है और वो सत्ता में बैठी किसी भी पार्टी की जागीर कभी नहीं बन सकता.कोई ऐसा करने की हिमाकत करने की कोशिश भी करता है,तो फिर उसे देश की सर्वोच्च अदालत से जो फ़टकार पड़ती है,वो देश की आम जनता के दिलो-दिमाग में ये भरोसा भी पैदा कर देती है कि न्यायपालिका की सक्रियता के कारण ही लोकतंत्र अभी भी जिंदा है.


दरअसल, बीती 26 मई को हमने इसी कालम में लिखा था कि "मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और राज्यपाल जगदीप धनखड़ के बीच एक बार फिर से आरपार की तकरार होने की नौबत आ गई है. राज्यपाल की शक्तियां कम करने को या फिर कहा जाए कि उनकी शक्तियां छीनने के मकसद से ममता कैबिनेट ने एक बड़ा फैसला लिया है. इसके मुताबिक राज्य सरकार के सभी विश्वविद्यालयों के चांसलर यानी कुलाधिपति अब राज्यपाल नहीं बल्कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी होंगी. इससे संबंधित विधेयक जल्द ही विधानसभा में लाया जायेगा." उसी विधेयक को ममता सरकार ने 14 जून को विधानसभा से पास करवाकर उसे राज्यपाल के पास भेज दिया था.


हालांकि ये नहीं कह सकते कि ममता बनर्जी इतनी अनजान हों कि पहली बार में ही राज्यपाल इसे अपनी मंजूरी दे देंगे लेकिन संवैधानिक पद पर बैठे लोगों से भी सियासी लड़ाई लड़ना उनकी पुरानी फ़ितरत में शुमार है. राजभवन से रविवार को मीडिया के लिए जारी बयान में कहा गया है कि विधानसभा सचिवालय से राज्यपाल के विचार के लिए कई विधेयक भेजे गए. इनमें राज्य के विश्वविद्यालयों के चांसलर सीएम को बनाने का विधेयक भी शामिल है. राज्यपाल ने इस बिल को वापस भेज दिया है और साथ ही अपनी टिप्पणी में उन्होंने लिखा है कि " यह विधेयक अधूरे इनपुट के साथ भेजा गया, जो कि अनुचित है."


ममता सरकार द्वारा इस बिल को लाने के पीछे की कहानी भी समझनी होगी. सरकार ने आरोप लगाया था कि राज्यपाल धनखड़ ने राज्य सरकार की सहमति के बिना कई कुलपतियों की नियुक्ति कर दी है. इसलिए राज्यपाल की शक्तियां कम करने के मकसद से ही उसने ये बड़ा कदम उठाया.


लेकिन इसके उलट बीती 15 जनवरी को ट्वीट कर राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने ममता सरकार पर गंभीर आरोप लगाए थे. धनखड़ ने अपने ट्वीट में कहा था कि "24 विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को बिना चांसलर की मंजूरी लिए अवैध रूप से नियुक्त कर दिया गया. कोलकाता विश्वविद्यालय की वाइस चांसलर सोनाली चक्रवर्ती को बिना किसी चयन के पूरे 4 साल का दूसरा कार्यकाल दे दिया गया है. राज्यपाल ने कार्रवाई की चेतावनी देते हुए अपने ट्वीट में लिखा था कि कानूनों की अवहेलना करते हुए 24 विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति की गई. ऐसा विशिष्ट आदेशों की अवहेलना करते हुए या कुलाधिपति-नियुक्ति प्राधिकारी के अनुमोदन के बिना किया गया है. इन नियुक्तियों के लिए कोई कानूनी मंजूरी नहीं ली गई है और अगर जल्द ही इन्हें वापस नहीं लिया जाता तो मजबूरन कार्रवाई की जाएगी."


बस, उसके बाद से ही आरपार की लड़ाई शुरु हो गई और ममता ने ठान लिया कि वे अब राज्य के विश्विद्यालयों का चांसलर बनने का हक राज्यपाल से छीन लेंगी.लेकिन पहली बॉल वापस ममता के पाले में ही फेंककर राज्यपाल ने संदेश दिया है कि ये उतना आसान भी नहीं है.ज़ाहिर है कि राज्यपाल की मंजूरी मिले बगैर कोई भी राज्य सरकार विधानसभा से पारित हुए विधेयक को कानून की शक्ल नहीं दे सकती और वही इस मामले में भी हुआ है.


अब ममता सरकार के पास सबसे बड़ा विकल्प यही है कि वो राज्यपाल की ओर से दिए गए सुझावों पर विचार करते हुए एक संशोधन बिल पारित करके उसे दोबारा राज्यपाल के पास भेज सकती है.लेकिन इसमें सबसे बड़ा पेंच ये है कि क्या ममता सरकार राज्यपाल के सुझावों को इतनी आसानी से मान लेंगी? इसलिये कि ये दो संस्थाओं के बीच अपने अहम के टकराव का मामला है.तो फिर ममता इसे कानूनी जामा पहनाने के लिये आखिर क्या करेंगी?


तो उनके पास एक और  रास्ता ये बचता है,जिसका संकेत वे पहले ही दे चुकी हैं कि अगर राज्यपाल इस बिल को मंजूरी देने में आनाकानी करते हैं तो इस बिल को लागू करने के लिए एक अध्यादेश लाया जा सकता है. लेकिन वो सरकार के लिए स्थायी समाधान नहीं होगा. इसलिए कि सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्यों की,अध्यादेश लाना तब मजबूरी बन जाता है जबकि संसद या उस विधानसभा का सत्र न चल रहा हो.और,फिर सत्र शुरु होने के छह हफ्ते के भीतर ही उसकी मियाद भी खत्म हो जाती है.


हालांकि अब अगर विधानसभा वही बिल बगैर किसी संशोधन के दोबारा पास करके उसे गवर्नर के पास भेजती है, तब राज्यपाल के पास अपनी सहमति देने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा.लेकिन एक रास्ता राज्यपाल के पास और भी है कि अगर वे चाहें, तो इसे राष्ट्रपति की सहमति के लिए उनके पास भेजने का तर्क देते हुए लटका भी सकते हैं. वैसे तो तमिलनाडु सरकार ने बीते अप्रैल में इसी तरह के बिल को विधानसभा से पास कराकर राज्यपाल के पास भेजा था और उनकी मंजूरी मिलने के बाद अब वहां ये एक कानून की शक्ल ले चुका है.लेकिन देखना ये है कि बंगाल के सियासी अखाड़े में संविधान के नाम पर चल रही इस कुश्ती का नतीजा कब और क्या निकलता है?


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)