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वाम मोर्चे से TMC तक खून से रंगा है बंगाल का चुनावी इतिहास, पंचायत चुनाव में भी हिंसा का है राजनीतिक कारण

पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव की घोषणा हुई और शुक्रवार यानी 9 जून से नामांकन भी शुरू हो गया. इसके साथ ही चुनावी हिंसा का भी आगाज हुआ और पहले ही दिन कांग्रेस के एक कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई. कई अन्य झड़पों में डेढ़ दर्जन लोग घायल हो गए. हिंसा बंगाल के लिए चुनावी सीजन में बेहद आम बात हो जाती है. 2018 में हुए पंचायत चुनाव के दौरान भी इसी तरह की हिंसा बंगाल ने देखी जिसमें 50 से अधिक लोगों की जान गई. भीषण गर्मी झेल रहे बंगाल के लोगों को मानसून से पहले शायद फिर एक खूनी बारिश देखनी पड़े, जिसका सिलसिला वाम मोर्चे के शासनकाल से शुरू हुआ और आज ममता बनर्जी के तीसरे कार्यकाल में भी बदस्तूर जारी है. 

राजनीतिक हिंसा का रहा है इतिहास

बंगाल में 'पॉलिटिकल वॉयलेंस' का इतिहास बाकी जगहों के मुकाबले थोड़ा पुराना है. अगर कहें तो भारतीय क्रांतिकारी भी जो कानपुर से आते थे, वे भी बंगाल से ही बम बनाना सीख कर जाते थे. आजादी के बाद भी बंगाल में जो हिंसा हुई है, वह तो वाम मोर्चे के समय से जारी है. हिंसा के पीछे जो वजहें हैं, उसमें एक तो लंबे समय से बेरोजगारी का दंश है, एजुकेशन का जो स्तर है, वह बदला नहीं है, बढ़ा नहीं है. जहां भी ये दोनों कारण मौजूद होंगे, वहां का यूथ तो हिंसा की तरफ काफी आसानी से आकर्षित हो सकता है.

अब इसमें राजनीतिक समझ या विचारधारा का बहुत लेनदेन नहीं है, न ही किसी लक्ष्य को लेकर हो रही हिंसा है, बल्कि ये तो सीधी सी बात है कि पैसा देकर जो भी उनका इस्तेमाल कर लेता है, उससे वे इस्तेमाल हो जाते हैं. अब उनका इस्तेमाल कौन सी पार्टी किस तरह करती है, ये निर्भर करता है. हिंसा को लेकर तो बंगाल में हरेक पार्टी का एजेंडा और सोच एक ही है. जहां तक केंद्रीय बलों की मांग है, तो बंगाल में वो भी कोई नयी बात नहीं है. बीजेपी ने भी मांग की है. पश्चिम बंगाल के बीजेपी  अध्यक्ष सुकांत मजूमदार ने भी पत्र लिखा है और अब अधीर रंजन चौधरी जो कांग्रेस के हैं, उन्होंने भी पत्र लिखा है. 

हिंसा से जुड़ी एक और बात है. पूरे बंगाल में हिंसा हो, ऐसा भी नहीं है. कुछ पॉकेट्स हैं जो हिंसा का अधिक शिकार होते हैं, जैसे मुर्शिदाबाद है या आप दक्षिण बंगाल के इलाके ले लीजिए. जहां भी दो तरह की जनसंख्या है, वहां हिंसा की घटनाएं दुहराई जाती है. इसका कारण ये है कि जो भी पार्टी सत्ता में आती है, वह सत्ता से हटना ही नहीं चाहती है, किसी भी कीमत पर सत्ता चाहने की वजह से ही यह सूरत पैदा हुई है. बंगाल में पहली सरकार कांग्रेस की थी. उसके बाद जो नक्सलबाड़ी आंदोलन हुआ, किसानों का आंदोलन हुआ, उसके साथ ही यह आरोप भी लगता रहा है कि जो भी पार्टी सत्ता में रही है, उन्होंने अपने कैडर की भी हत्या करवाई है. हिंसा का स्वरूप बदला होगा, तकनीक बदली होगी, नए हथियार होंगे, लेकिन ये पैटर्न तो लंबे समय से चलता आ रहा है, वह नहीं बदला है. 

केवल राज्य का मसला नहीं, केंद्र का भी हाथ

बंगाल में लंबे समय तक इंडस्ट्री नहीं आ रही है. सिंगुर और नंदीग्राम मे जो हुआ, वह भी देखना पड़ेगा. जूट मिलें जो थीं, वो बंद हो गयीं. बाकी राज्यों के मुकाबले यहां एजुकेशन भले ठीक हो, लेकिन उसका स्तर ठीक नहीं है. एजुकेशन का जो स्टैंडर्ड होना चाहिए, वह देखिए आप रैंकिंग में कहां हैं, स्कूल ड्रॉप आउट है, स्कूलों की शिक्षा का स्तर देखिए. अब जहां से नवजागरण की शुरुआत हुई, वहां से तो कुछ और अपेक्षाएं थीं. कई अर्थशास्त्री हुए जो यहीं से गए हैं. वह लेकिन इतिहास था, अब इतिहास को लेकर कितने दिनों तक आप झूलते रहेंगे. इसके अलावा केवल राज्य का मामला नहीं है. केंद्र सरकार का भी इसमें बहुत योगदान मानना पड़ेगा. राज्य केवल दोषी नहीं है, संघीय ढांचे में केंद्र भी दोषी है. कांग्रेस के समय भी रही होगी. अब लेकिन थोड़ा अधिक है. हरेक राज्य से जहां नॉन-बीजेपी सरकार है, वहां समस्या है. बंगाल है, तेलंगाना है. उसके अलावा शिक्षा में जिस तरह के बदलाव हो रहे हैं, वह भी बहुत ठीक नहीं है. 

बंगाल में सांप्रदायिकता का ज्यादा असर नहीं

जहां तक सांप्रदायिकता की बात है, तो बंगाल में कई समुदाय के लोग एक पाड़ा (मुहल्ला) में साथ रहते हैं. यहां ऐसा नहीं है कि छुआछूत नहीं है या बिल्कुल खत्म है, लेकिन हां वह सामाजिक स्तर पर नहीं दिखती. यहां जैेसे ऑनर किलिंग आप नहीं देखेंगे, आप यह नहीं देखेंगे कि घोड़ी चढ़ने के लिए किसी दलित लड़के पर हमला हो गया. उसी तरह सांप्रदायिकता भी यहां वैसी नहीं है.

हां, पॉलिटिकल लड़ाई झगड़ा या मारपीट होती है, लेकिन हिंदू-मुस्लिम का वैसा लफड़ा नहीं है. बंगाल में अगर इतिहास की बात करें तो नोआखाली के दंगों के बाद जब आजादी के तुरंत बाद दंगे हुए तो बाकी तमाम समय में हिंदू-मुस्लिम के बीच कोई मनमुटाव या झगड़ा नहीं है. चुनाव होने के बाद यहां भले झगड़ा होता है, लेकिन वह भी पॉलिटिकल अधिक होता है. यहां दो-तीन साल पहले भले गुजरात से आ रहे एक बंगाली मुसलमान की राष्ट्रगान के लिए पिटाई की गयी या कोलकाता में ट्रेन में एक कपल की पिटाई बुजुर्गों ने की, लेकिन उसके बाद बंगाल के समाज ने रिटैलिएट भी किया.

यहां का समाज सांप्रदायिकता को उस तरह से नहीं स्वीकारता है. बंगाल को अगर इस हिंसा से बचाना है, तो शिक्षा और रोजगार का प्रसार करना होगा. लोगों को सोचना होगा कि लिंचिंग या हिंसा में कौन से बच्चे हैं, किसी नेता का बेटा या बेटी तो नहीं होता. जिन्हें अलगाववादी बोलते हैं, उनके परिवार के लोग भी नहीं होते, तो इसलिए कामकाजी बनाना जरूरी है. हर समाज के खाली लोग, बेरोजगार लोग ही हिंसा की तरफ जुड़ते हैं. 

जहां तक पंचायत चुनाव का सवाल है तो फिलहाल टीएमसी का दबदबा दिखता है, हालांकि जो चीजें हिंसा से संबंधित कही जा रही हैं, जो दावे किए जा रहे हैं, वे पूरी तरह निराधार नहीं हैं. राज्य सरकार के प्रति लोगों में नाराजगी भी है, लेकिन सत्ता के अपने फायदे भी होते ही हैं. सबसे बड़ी बात ये है कि निर्विरोध चुने जाने का एक मसला है, बंगाल में. पिछली बार पंचायत चुनाव में सबसे अधिक लोग निर्विरोध चुने गए थे. वह जरूर देखने की बात है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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