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संदेशखालि की घटना को लेकर तू-तू मैं-मैं, महिला सुरक्षा का मुद्दा गौण, आरोप-प्रत्यारोप में जुटे राजनीतिक दल

आज़ादी के साढ़े सात दशक बाद भी भारत में महिला सुरक्षा सुनिश्चित करना सबसे बड़ी चुनौती है. हर दिन घर, दफ़्तर से लेकर सड़क पर महिलाओं के ख़िलाफ़ तमाम तरह की अपराध की घटना हो रही हैं. इनमें बड़े पैमाने पर यौन शोषण और बलात्कार की घटना भी शामिल हैं. तमाम सख़्त क़ानून होने के साथ ही सरकारी और राजनीतिक दावों के बावजूद अभी भी देश में महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न की समस्या विकराल रूप में मौजूद है.

दरअसल भारत में हमेशा से ही महिला सुरक्षा जैसा गंभीर और संवेदनशील मसला भी बाक़ी मुद्दों की तरह राजनीति का शिकार होता आया है. महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध, बलात्कार और यौन उत्पीड़न ऐसा मसला है, जिस पर सामाजिक और राजनीतिक बिरादरी के साथ ही मीडिया का सुर एक होना चाहिए. विडंबना है कि ऐसा होता नहीं है और कहीं भी इस तरह की कोई घटना सामने आती है, धीरे-धीरे महिला सुरक्षा का विमर्श पीछे चला जाता है और राजनीतिक स्वार्थ हावी हो जाता है. यौन उत्पीड़न जैसी घिनौनी हरकत पर भी राजनीति करने का कोई मौक़ा तमाम राजनीतिक दल छोड़ते नहीं है.

यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ एक सुर क्यों नहीं?

महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न और बलात्कार जैसी घटनाओं पर भी राजनीतिक तौर से सेलेक्टिव अप्रोच अपनाने की परिपाटी बनती दिख रही है. इस सेलेक्टिव अप्रोच को अपनाने में राजनीति स्वार्थ के तहत धर्म, जाति और वोट बैंक को भी आधार बनाया जाने लगा है. मेरी सरकार, मेरी पार्टी, तुम्हारी सरकार, तुम्हारी पार्टी..जैसी कसौटी पर महिला सुरक्षा से जुड़ी घटनाओं को कसा जा रहा है और उसके मुताबिक़ ही राजनीतिक दलों की ओर से दिलचस्पी ली जा रही है. हालात इतने बिगड़ गए हैं कि मीडिया की मुख्यधारा में भी महिला सुरक्षा से जुड़ी घटनाओं को कवरेज और महत्व राजनीतिक नफ़ा-नुक़सान से तय होने लगा है. पश्चिम बंगाल के संदेशखालि की घटना में भी कुछ ऐसा ही होता दिख रहा है.

यौन उत्पीड़न को लेकर संदेशखालि है सुर्ख़ियों में

हम सब जानते हैं कि इन दिनों महिलाओं के साथ उत्पीड़न और यौन शोषण को लेकर पश्चिम बंगाल का संदेशखालि गाँव सुर्ख़ियों में है. संदेशखालि गाँव उत्तर 24 परगना जिले के बशीरहाट उप मंडल में पड़ता है. यहाँ की कुछ महिलाओं ने तृणमूल कांग्रेस के स्थानीय नेता शेख शाहजहाँ और उसके समर्थकों पर यौन उत्पीड़न करने और ज़मीन हड़पने का आरोप लगाया है.

टीएमसी नेता और कार्यकर्ताओं पर आरोप

तमाम आरोप बेहद ही संगीन हैं. संदेशखालि की कुछ महिलाओं का आरोप है कि तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता घर-घर जाकर सुंदर लड़की या महिला की खोज करते थे. पसंद आने पर उठाकर पार्टी कार्यालय ले जाते थे. उन महिलाओं और लड़कियों को तब तक साथ रखते थे, जब तक संतुष्ट नहीं हो जाते थे.

आरोप लगाने वाली महिलाओं का कहना है कि यौन उत्पीड़न और ज़मीन हड़पने के मामले में संदेशखालि से जिला परिषद सदस्य शेख शाहजहाँ के साथ ही उसका कथित साथी और तृणमूल के अन्य नेता उत्तम सरदार अैर शिवप्रसाद हजारा भी शामिल है. इन महिलाओं ने अपने दर्द को साझा करते हुए यह भी बताया कि शेख शाहजहाँ का भय इतना अधिक था कि वे लोग पहले अपनी आवाज़ नहीं उठा रही थीं.

इस साल की शुरूआत में 5 जनवरी को प्रवर्तन निदेशालय की टीम करोड़ों रुपये के राशन वितरण घोटाले से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में तृणमूल कांग्रेस नेता शाहजहां शेख के संदेशखालि स्थित आवास पर छापेमारी की कार्रवाई करने गयी थी. उस दौरान शाहजहाँ के समर्थकों ने ईडी की टीम पर हमला भी किया था और वहाँ से भागने को मजबूर भी कर दिया था. इस घटना के बाद से शाहजहाँ फ़रार है.

संदेशखालि की महिलाओं का कहना है कि शाहजहां के फरार होने के बाद ही वे लोग उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत कर पायीं. मामला महिलाओं की सुरक्षा और दोषियों पर कार्रवाई से संबंधित है, लेकिन अब इस मामले में राजनीति हावी हो गयी है. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार है. प्रदेश में 2011 से ममता बनर्जी के रूप में महिला मुख्यमंत्री हैं. उसके बावजूद संदेशखालि की महिलाओं के साथ इस तरह की घटना की ख़बर सामने आयी है. वो भी ममता बनर्जी की पार्टी से जुड़े लोगों पर आरोप है.

संदेशखालि की घटना पर राजनीति उफान पर

अब पश्चिम बंगाल में तमाम विपक्षी पार्टियाँ, बीजेपी, कांग्रेस और वाम दल संदेशखालि की घटना को लेकर ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस को घेरने की कोशिश में जुटे हैं. इन दलों का कहना है कि तृणमूल कांग्रेस के साथ ही पूरा सरकारी तंत्र... शाहजहाँ और उसके साथियों का बचाव करने में जुटा है. दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस के नेता दावा कर रहे हैं कि विपक्षी पार्टियों ने आगामी लोक सभा चुनाव में लाभ लेने के लिए ग़लत तरीक़े से शाहजहाँ को फँसाया है.

आरोप के मुताबिक़ यौन उत्पीड़न कई सालों से जारी था, लेकिन अब जाकर तमाम पार्टियों के साथ ही पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सी.वी.आंनद बोस, राष्ट्रीय महिला आयोग से लेकर राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की सक्रियता दिख रही है. राज्यपाल सी.वी.आंनद बोस ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को रिपोर्ट सौंपी है, जिसमें कहा गया है कि संदेशखालि में उपद्रवी तत्वों से कानून व्यवस्था संभालने के ज़िम्मेदार लोगों की साँठ-गाँठ है.

ममता बनर्जी का अलग सुर, बीजेपी का अलग राग

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कहना है कि ज़िम्मेदार लोगों को सलाखों के पीछे डाल दिया गया है. प्रदेश सरकार हालात पर नज़र बनाए हुई है और तमाम ज़रूरी कदम उठा रही है. प्रदेश सरकार ने संदेशखालि की घटनाओं की जांच के लिए भारतीय पुलिस सेवा सीनियरअधिकारियों की अगुवाई में 10 सदस्यीय टीम का गठन किया है. इस बीच मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बीजेपी और आरएसस पर संदेशखालि में सांप्रदायिक माहौल को बिगाड़ने का आरोप लगाया है. उनका आरोप है कि क्षेत्र में अशांति फैलाने के लिए एक भयानक साज़िश रची जा रही है. ममता बनर्जी ने 15 फरवरी को विधान सभा में जानकारी दी कि अशांत संदेशखालि क्षेत्र में 17 लोगों को गिरफ्तार किया गया है. उन्होंने यह भी आश्वासन दिया है कि किसी भी तरह की गैरकानूनी गतिविधि में शामिल किसी भी शख़्स को नहीं छोड़ा जाएगा.

इस बीच पश्चिम बंगाल की पुलिस का दावा कुछ और ही है. बशीरघाट पुलिस का कहना है कि संदेशखालि के लोगों से 4 शिकायतें मिली हैं, जिनमें से किसी में भी बलात्कार या यौन उत्पीड़न की किसी घटना का ज़िक्र नहीं है. राज्य महिला आयोग ने संदेशखालि का दौरा कर स्थानीय महिलाओं के साथ बातचीत के आधार पर मुख्यमंत्री कार्यालय को रिपोर्ट सौंप दी है.

राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने भी संदेशखालि में महिलाओं के उत्पीड़न किए जाने के बारे में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को रिपोर्ट सौंपी है. आयोग ने पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफ़ारिश की है. आयोग के चेयरमैन की ज़िम्मेदारी संभाल रहे अरुण हलदर ने यह जानकारी दी है.

यौन शोषण से अधिक महत्वपूर्ण हिन्दू-मुस्लिम मुद्दा

केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी का भी संदेशखालि पर बयान आया है. हालाँकि उनका बयान महिला सुरक्षा को लेकर कम हिन्दू-मुस्लिम को लेकर अधिक था. उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में कब तक तृणमूल कांग्रेस की राज्य प्रायोजित हिंसा से हिंदुओं की बलि चढ़ती रहेगी और हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार होता रहेगा.

कुल मिलाकर संदेशखालि का मामला महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे से हटकर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप में तब्दील हो चुका है. महिला सुरक्षा की जगह सांप्रदायिक आधार पर पार्टियों की निष्ठा का मामला बन चुका है. ध्यान महिलाओं की शिकायतों पर होना चाहिए. ध्यान महिलाओं के ख़िलाफ़ हुए अपराध पर होना चाहिए. दोषियों पर सख़्त से सख़्त कार्रवाई पर होना चाहिए. लेकिन संदेशखालि में हो कुछ और रहा है.

यौन उत्पीड़न के मसले पर भी राजनीतिक ध्रुवीकरण

संदेशखालि की घटना को लेकर पश्चिम बंगाल में राजनीतिक ध्रुवीकरण हो चुका है. एक पक्ष ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस है और दूसरा पक्ष बीजेपी, कांग्रेस और वाम दल है. दोनों ही ओर से अपने-अपने राजनीतिक हितों पर फोकस किया जा रहा है.

ममता बनर्जी की कोशिश है उनकी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर जो आरोप लगाया जा रहा है, उससे कैसे ध्यान भटकाया जाए. यह विडंबना ही है कि टीएमसी का एक अदना सा नेता शेख शाहजहाँ इतने दिनों से फ़रार है और पश्चिम बंगाल की पुलिस उसे खोज नहीं पा रही है, जबकि उस पर महिलाओं से यौन उत्पीड़न जैसे संगीन आरोप हैं. संदेशखालि में पिछले कई दिनों से विरोध प्रदर्शन जारी रहा. यहाँ बड़ी संख्या में महिलाएं प्रदर्शन कर रही हैं. महिलाएं टीएमसी नेता शेख शाहजहाँ की गिरफ्तारी की मांग कर रही हैं.

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी संदेशखालि क्यों नहीं गयीं?

ममता बनर्जी का राजनीतिक उफान संघर्षों से तय हुआ है. सच्चाई क्या है, अगर उसे थोड़ी देर के लिए नज़र-अंदाज़ भी कर दें, तो चूंकि मामला महिलाओं की सुरक्षा से जुड़ा था..ममता बनर्जी को चाहिए था कि बतौर मुख्यमंत्री उन्हें तुरंत संदेशखालि जाकर ज़मीनी हालात का जाइज़ा लेना चाहिए था. वहाँ की महिलाओं से ख़ुद उन्हें बात करनी चाहिए थी.

राजधानी कोलकाता से संदेशखालि महज़ 70-75 किलोमीटर की दूरी पर है. ममता बनर्जी की पार्टी नेता और कार्यकर्ताओं पर आरोप लगा है. अगर मुख्यमंत्री के तौर पर ममता बनर्जी मामला सामने आने के तुरंत बाद ऐसा करतीं, तो महिला सुरक्षा को लेकर प्रदेश सरकार की संवेदनशीलता ही ज़ाहिर होती. हालाँकि ऐसा नहीं किया गया, बल्कि इसके विपरीत उन्होंने भी पूरे प्रकरण को बीजेपी और आरएसएस की तरफ़ से मामले को सांप्रदायिक रंग देने के नापाक मंसूबे की ओर ही मोड़ दिया. बतौर सरकार की मुखिया होने के नाते संदेशखालि की महिलाओं में सुरक्षा का भाव जगाना ममता बनर्जी की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए थी.

स्मृति ईरानी सिर्फ़ बयान देने तक ही सीमित

दूसरी ओर बीजेपी की ओर से भी पूरी कोशिश की गयी कि पूरे मामले को महिला सुरक्षा के बजाए हिन्दू-मुस्लिम में बदल दिया जाए. बीजेपी की नेता और केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी के बयान से इसे अच्छी तरह से समझा जा सकता है. बीजेपी ने आनन-फानन में संदेशखालि का दौरा करने के लिए पार्टी सांसदों की छह सदस्यीय समिति का गठन कर दिया. इसमें केंद्रीय मंत्री प्रतिमा भौमिक और अन्नपूर्णा देवी को भी रखा गया. हालाँकि 16 फरवरी को पश्चिम बंगाल की पुलिस ने धारा 144 का हवाला देकर बीजेपी की इस टीम को संदेशखालि जाने से रोक दिया गया.

स्मृति ईरानी महिला और बाल विकास मंत्री हैं. यौन शोषण की इतनी बड़ी घटना सामने आती है, इसके बावजूद वे हालात का जाइज़ा लेने के लिए संदेशखालि नहीं जाती है. दिल्ली में इस घटना से जोड़ते हुए हिन्दू-मुस्लिम को लेकर बयान ज़रूर देती है. बीजेपी की टीम को तो पश्चिम बंगाल की पुलिस ने रोक दिया था, लेकिन स्मृति ईरानी चाहतीं, तो महिला और बाल विकास मंत्री होने के नाते उन्हें संदेशखालि जाने से कोई रोक नहीं पाता.

राजस्थान में भी सामूहिक गैंगरेप का मामला

इसी तरह से कुछ दिन पहले सामूहिक गैंगरेप की एक घटना राजस्थान के सिरोही में सामने आयी है. सिरोही थाने में दर्ज मामले  के मुताबिक़ आंगनबाड़ी में काम देने के नाम पर 10 से 15 लोगों ने 15 से 20 महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया. इस घटना में सिरोही नगर परिषद के सभापति महेंद्र मेवाड़ा और आयुक्त महेंद्र चौधरी को मुख्य आरोपी बताया गया है.

यह मामला भी बेहद संगीन है. हालाँकि इस मामले में बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व से कोई टीम का गठन नहीं किया गया और न ही केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी की ओर से कोई बयान आया. न यहाँ राष्ट्रीय महिला आयोगी की टीम गयी और न ही बीजेपी के नेताओं की ओर से कोई धरना-प्रदर्शन किया गया. राजस्थान में सरकार बीजेपी की है. लेकिन सवाल उठता है कि राज्य बदलते ही बीजेपी का रवैया महिला सुरक्षा को लेकर क्यों बदल गया.

राजनीतिक दलों का सेलेक्टिव अप्रोच ख़तरनाक

पश्चिम बंगाल के संदेशखालि से लेकर राजस्थान के सिरोही तक.. कोई दोषी है या नहीं है, वो जाँच के बाद पता चलेगा. लेकिन सामूहिक बलात्कार के आरोप से जुड़ा इतना बड़ा मामला आने के बाद राजस्थान को लेकर बीजेपी की चुप्पी से सवाल को ज़रूर खड़ा होता कि क्या महिला सुरक्षा का मुद्दा भी राज्य और विरोधी पार्टी को देखकर ही तय होता है.

दरअसल यह बीजेपी या तृणमूल कांग्रेस तक सीमित मामला है ही नहीं. महिला सुरक्षा जैसे मसले पर भी तमाम राजनीतिक दलों की रणनीति घटना वाले प्रदेश में किसकी सरकार है, इससे तय होती है. सैद्धांतिक तौर से हर दल और नेता इससे इंकार करें, लेकिन वास्तविकता यही है. व्यवहार में यही दिखता है. तमाम सियासी दलों को  महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न की घटनाओं को भी अब राजनीतिक चश्मे और दलगत स्वार्थ के नज़रिये से देखने की आदत हो गयी है.

मणिपुर जैसी घटना पर भी ख़ामोशी की राजनीति

मणिपुर में पिछले साल महिलाओं के साथ किस तरह से बर्बरतापूर्ण हरकत हुई..इसे पूरी दुनिया ने देखा. वो तो महज़ एक घटना थी, जिसका वीडियो जुलाई 2023 में वायरल हुआ था. वीडियो वायरल होने के कारण ही मणिपुर के बाहर के लोग उस घिनौनी हरकत के बारे में  जान पाए. मई 2023 में हिंसा के व्यापक रूप लेने के बाद मणिपुर में महिलाओं के ख़िलाफ यौन शोषण की बाक़ी कितनी घटनाएं हुई हैं, उसका अंदाज़ा लगाना आम लोगों के लिए मुश्किल है. इसके बावजूद केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री ने इतने महीनों में एक बार भी नहीं सोचा कि मणिपुर जाकर वहाँ की पीड़ित महिलाओं का दु:ख-दर्द जान लें. मणिपुर बीजेपी शासित राज्य है. इस कारण ही शायद वहां से जुड़ी यौन उत्पीड़न और बलात्कार की घटनाओं का महत्व महिला सुरक्षा के लिहाज़ से बीजेपी के लिए अधिक नहीं था. तभी न तो बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं ने मणिपुर के मुख्यमंत्री के इस्तीफ़े की माँग की और न ही प्रदेश सरकार की जवाबदेही तय करने के लिए केंद्रीय स्तर पर राष्ट्रीय महिला आयोग की ओर से कोई कोशिश की गयी.

राजनीतिक स्वार्थ से तय होती दलों की रणनीति

यह सब तो दो-चार उदाहरण हैं, जिनके बारे में लोगों को याद है. देश में ऐसी ही महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न से जुड़ी अनगिनत घटनाएं हैं, जिनमें राजनीतिक दलों की दिलचस्पी पार्टी हित के आधार पर बढ़ी है या कम रही है. महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन शौषण की कोई भी घटना सिर्फ़ महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध की नज़र से ही देखा जाना चाहिए. लेकिन भारत में जिस तरह से राजनीति हावी है, उसका असर ऐसी घटनाओं के मामले में भी देखा जाने लगा है. ऐसी घटनाओं में भी आरोपी के धर्म, जाति और राजनीतिक आस्था पर अधिक चर्चा होने लगी है.

तुम्हारी सरकार, मेरी सरकार का विमर्श घातक

तुम्हारी सरकार में होगा, तो महत्व वाला मुद्दा है, लेकिन मेरी सरकार में होगा, तो ख़ामोशी वाला मुद्दा है. महिला के ख़िलाफ यौन उत्पीड़न के मामले में भी राजनीतिक वातावरण इस तरह का बना दिया गया है. नेता, कार्यकर्ता के साथ ही अब तो ऐसे मसले पर आम लोगों की राय में भी धर्म, जाति और राजनीतिक आस्था के आधार पर बँटवारा साफ दिखने लगा है. मणिपुर के मामले में सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर जिस तरह से आम लोगों की प्रतिक्रिया आ रही थी, उससे इस प्रवृत्ति का अनुमान लगाना आसान है. संदेशखालि को लेकर भी कमोबेश ऐसा ही माहौल है.

महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के आँकड़े चिंताजनक

महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न और शोषण को रोकने के लिए तमाम क़ानून बने हुए हैं. इसके बावजूद महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध कम होने की बजाए बढ़ रहे हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो या'नी एनसीआरबी के आँकड़े भी चीख-चीखकर यही कहते हैं. उसमें भी यह तथ्य है कि यौन उत्पीड़न की कई सारी घटनाएं तो पुलिस रिकॉर्ड का हिस्सा बन ही नहीं पाती. एनसीआरबी ने दिसंबर, 2023 में अपराध से जुड़ी रिपोर्ट जारी की थी, उसके मुताबिक़ वर्ष 2022 में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध में 2021 की तुलना में 4 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ था. इसमें पति और रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता, अपहरण, हमले और बलात्कार के मामले शामिल हैं. प्रति लाख महिला जनसंख्या पर अपराध दर 2021 में 64.5 से बढ़कर 2022 में 66.4 हो गई.

किसी भी दल की सरकार हो, अपराध हो रहा है

वर्ष 2022 में पूरे देश में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध से जुड़े 4,15, 256 केस दर्ज हुए थे. इनमें 7.1% रेप से जुड़े थे. 2022 में रेप के 31, 516 मामले दर्ज हुए थे. रेप का सबसे अधिक केस राजस्थान में दर्ज हुआ था. उसके बाद उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और हरियाणा का नंबर आता है. रेप या गैंगरेप के साथ मर्डर की कैटेगरी में 62 केस के साथ उत्तर प्रदेश पहले पायदान पर था. 41 केस के साथ मध्य प्रदेश दूसरे नंबर पर था. महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के मामले में टॉप 5 राज्यों में राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश शामिल हैं. वहीं शहर की बात करें, तो जयपुर, दिल्ली, इंदौर, लखनऊ और कानपुर आते हैं.

यौन शोषण का दंश झेलने को मजबूर महिलाएं

एनसीआरबी के आँकड़ों को मानें, तो भारत में हर दिन 66 रेप के मामले होते हैं. याद रखिए यह वो संख्या है, जिसकी शिकायत पुलिस में होती है. इसके अलावा भारत में कई ऐसे मामले हैं, जो पुलिस थाने तक पहुँच ही नहीं पाती है. रेप के अलावा देश में महिलाओं और लड़कियों को अलग-अलग तरीक़ो से यौन शोषण भी झेलने को मज़बूर होना पड़ता है. उनकी संख्या का तो अंदाजा ही लगाना मुश्किल है.

कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अभी भी बड़ी समस्या

दफ़्तर, कारख़ाना और बाक़ी काम की जगह पर महिलाओं के साथ यौन शोषण की घटनाएं बहुत ही आम है. कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए क़ानून भी बना है. कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 में सैद्धांतिक स्तर पर वो सारे प्रावधान हैं, जिनसे महज़ सैद्धांतिक तौर से ऐसी घटनाएं नहीं हो, यह सुनिश्चित हो पाता है. इस क़ानून को ही हम आम शब्दों में Posh Act के नाम से जानते हैं.

इस क़ानून के होने के बावजूद व्यवहार में आज भी कार्यस्थल पर लड़कियों और महिलाओं को बड़े पैमाने पर यौन शोषण का शिकार होना पड़ रहा है. इस क़ानून के तहत पूरी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि व्यवहार में इसकी शिकायत करने वाली पीड़िता को न्याय और संरक्षण मिलने में या तो लंबा वक़्त लग जाता है या फिर आरोपी बचने में कामयाब हो जाता है.

राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और नया दृष्टिकोण

महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध, यौन शोषण के ख़िलाफ़ क़ानून की कमी नहीं है. उसके बाबजूद यह समस्या विकला होती जा रही है. इसके लिए कई कारण ज़िम्मेदार हैं. उनमें से एक प्रमुख कारण राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी भी है. इस समस्या को लेकर नये दृष्टिकोण से सोचने की ज़रूरत है. यौन अपराध, यौन शोषण या उत्पीड़न जैसे मामले को जाति, धर्म या राजनीतिक आस्था के नज़रिये से देखने की जो परिपाटी बनते जा रही है, वो बेहद ही ख़तरनाक और घातक है. ऐसे संगीन मामलों में सरकारी और राजनीतिक दोनों स्तर पर संवेदनात्मक तौर से एक सुर होना चाहिए. वोट बैंक, जाति या धर्म को आधार बनाकर इस तरह के मामले को महत्व देने की जो राजनीतिक प्रवृत्ति है, उस पर पूरी तरह से अंकुश लगना चाहिए.

यौन शोषण के ख़िलाफ़ 'मोदी की गारंटी' जैसी गारंटी क्यों नहीं?

राजनीतिक इच्छाशक्ति के तहत जब तक यौन शोषण के हर मामले को सिर्फ़ और सिर्फ़ महिलाओं के ख़िलाफ़ हुए अपराध के नज़रिये से नहीं देखा जाएगा, तब तक इस समस्या या चुनौती से निपटना आसान नहीं होगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार 'मोदी की गारंटी' के नारे को हर जगह प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं. महिलाओं को यौन शोषण से मुक्ति के मामले में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गारंटी देने का वादा करना चाहिए. उन्हें हर मंच से इस गारंटी को दोहराना चाहिए. उन्हें देशवासियों के साथ ही अपनी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी बार-बार यह संदेश देना चाहिए कि यौन शोषण से जुड़ी कोई भी घटना हो, किसी भी प्रदेश में घटना हो..किसी भी धर्म या जाति से जुड़ा मामला हो...उस पर कोई राजनीति नहीं होगी और उस घटना को सिर्फ़ और सिर्फ़ महिलाओं के ख़िलाफ अपराध के नज़रिये से ही देखा जाएगा.

महिलाओं को यौन शोषण से मुक्ति की गारंटी का संकल्प तमाम राजनीतिक दलों को भी लेना चाहिए. विपक्षी दलों के शीर्ष नेताओं को भी कुछ इसी तरह का संदेश देशवासियों के साथ-साथ अपने-अपने दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं को देना चाहिए. व्यवहार में यह लागू भी होना चाहिए. चाहे राहुल गाँधी हों, या ममता बनर्जी या फिर कोई और नेता..अपनी-अपनी पार्टी की रणनीति में इस बात को ज़रूर शामिल करें. महिलाओं के साथ यौन शोषण राजनीतिक का मसला कतई नहीं है. यह किसी भी सभ्य समाज पर कलंक है.

आम लोगों को भी नज़रिया बदलने की ज़रूरत

इसके साथ ही देश के आम लोगों को भी इस तरह की घटनाओं में धर्म, जाति या राजनीतिक आस्था का एंगल खोजने से बचने की ज़रूरत है. देश के आम लोग इस मसले पर जितने संवेदनशील रहेंगे, राजनीतिक दलों के लिए भी मज़बूरी बनेगी कि महिलाओं के साथ यौन शोषण के मामले में सियासी स्वार्थ को दरकिनार रखा जाए.

देश के हर नागरिक को अपने दिमाग में यह बात बिठाने की ज़रूरत है कि महिलाओं या लड़कियों के साथ यौन शोषण को किसी भी तरह से जस्टिफाई नहीं किया जा सकता है. न धर्म के आधार पर, न जाति के आधार पर, न राजनीतिक संबद्धता के आधार पर..इस पहलू में अपवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं है. अगर देश के आम लोग इस तरह से सोचने और समझने लगेंगे, तभी यौन शोषण के दंश को जड़ से मिटाने को लेकर राजनीतिक इच्छाशक्ति का वास्तविक और व्यावहारिक माहौल विकसित हो पाएगा.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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