प्रकृति का अपना एक तंत्र है जिसके भीतर रहकर वह खुद ही शुद्धीकरण का कार्य करती है. गंदगी ढोती नदियों के पास खुद को साफ करने का तरीका है, तो जंगल रूपी फेंफड़े से धरती सांस लेती है. जंगल वातावरण में फैले कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण कर जीवनदायिनी ऑक्सीजन उपलब्ध कराते हैं. इस आधार पर कहें तो वेटलैंड्स अर्थात नम-क्षेत्र  धरती के लिए गुर्दे का काम करते हैं. जिस प्रकार हमारे शरीर में रक्त को शुद्ध करने का कार्य किडनी द्वारा किया जाता है, ठीक उसी प्रकार वेटलैंड का तंत्र जल-चक्र द्वारा जल को शुद्ध करता है और प्रदूषित अवयवों को निकाल देता है. संतुलित जल चक्र में वेटलैंड्स की भूमिका काफी महत्वपूर्ण  है. जल संग्रहण, भूजल स्तर को बनाए रखने और पानी की सफाई तक में इसकी भूमिका है.


वेटलैंड्स हैं पर्यावरण-चक्र का महती उपादान


बाढ़ का पानी अपने में समेटकर  ये वेटलैंड्स फ्लड वाटर हार्वेस्टिंग (बाढ़ के पानी का संग्रहण) का काम करते हैं और इंसानी आबादी को बाढ़ से बचाने में मददगार है. मौसम परिवर्तन की घटनाएं जैसे बाढ़ और सूखे से निपटने में कई वेटलैंड्स सहायक हैं. इसके अलावा जंगल के बाद प्राकृतिक कार्बन का दूसरा सबसे बड़ा संग्राहक है, यानी वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड की एक बड़ी मात्र सोख लेता है. यानी  वेटलैंड ना सिर्फ प्राकृतिक संतुलन की एक कड़ी है बल्कि मानवजनित जलवायु संकट से बचाव का एक महत्वपूर्ण साधन भी है. वैसी भूमि जो पानी से सराबोर हो, आसान भाषा में समझें तो जमीन का वह हिस्सा जहां पानी और भूमि का मिलन हो सालभर या साल के कुछ महीने जहां पानी भरा रहता है, उसे वेटलैंड कहते हैं. सामान्यतः ताल, झील, जोहड़, पइन, पोखर, जलाशय, दलदल नमभूमि या वेटलैंड हैं, जो बरसात में पूर्ण रूप से जलाप्लावित हो जाते हैं. कुछ तो सालों भर पानी से भरे रहते हैं, वहीं कुछ बाकी महीने सूखे रहते हैं .


वेटलैंड का जलस्तर परिवर्तित होता रहता है. वैसे तो वेटलैंड के लिए कोई एक हिंदी का शब्द पर्याप्त नहीं है, जिसमें  प्राकृतिक और कृत्रिम, स्थायी अथवा अस्थायी, पूर्णकालिक या अल्पकालिक, स्थिर तथा बहने वाला, मीठा और क्षारीय, साफ और मटमैला सभी प्रकार के जल वाले स्थल, बाढ़ के मैदान, दलदली वन (मार्स), दलदली झाड़ियां (स्वाम्प), दलदली जलाप्लावित घास (पिटलैंड), ज्वारीय वन (मैन्ग्रोव) आदि वेटलैंड के अन्तर्गत आते हैं. यहां तक कि समुद्री जल, जहां भाटा-जल की गहराई छः मीटर से अधिक नहीं हो, भी वेटलैंड ही है.



शहरीकरण ने छीन ली प्रकृति


देश में शहरीकरण की आंधी आने के पूर्व हर गांव के पास अपना पोखर और उसके पास कुछ पेड़ और मंदिर होते थे. यहां तक कि भारत के कई शहरों के इलाके तालाब के नाम पर रहे मसलन मध्यभारत के शहर जबलपुर में 52 तालाब थे - अधारताल, रानीताल, चेरीताल, हनुमानताल, फूटाताल, मढाताल, हाथीताल, सूपाताल, देवताल, कोलाताल, बघाताल, ठाकुरताल, गुलौआ ताल, माढोताल, मठाताल, सुआताल, खम्बताल, गोकलपुर तालाब, शाहीतालाब, महानद्दा तालाब, उखरी तालाब, कदम तलैया, भानतलैया इत्यादि तो भोपाल को झीलों की नगरी कहा जाता था. वहीं बिहार के चंपारण में 'मन' की एक समृद्ध श्रृंखला रही है जिसकी संख्या 1907 के चंपारण गजेटियर के मुताबिक 43 तक थी; कई किलोमीटर तक लम्बाई में फैले झील को चंपारण में मन कहा जाता है! उत्तरी बिहार के शहरों जैसे मुजफ्फरपुर और मोतिहारी के मोतीझील तो दरभंगा की पहचान वहां के तालाब ही रहे हैं. दरभंगा यानी मिथिलांचल के बारे में तो कहावत ही है, 'पग-पग पोखरि, माछ-मखान....' यहां तक कि अगर गंगा के उतर बसे बिहार को सेटेलाइट की आंखों से देखें तो वेटलैंड ही वेटलैंड दिखेगा. 


शहरों और गांवों से वेटलैंड खत्म


स्थिति की गंभीरता को देखा जाये तो हमारे देश के गाँवों और शहरों की किडनी यानी नम भूमि क्षेत्र हमेशा- हमेशा के लिए समाप्त हो चुके हैं जिसके साथ लगभग खत्म हो गए हैं तालाब के किनारे वाले जामुन के पेड़ जिनके बीज तालाबों को शुद्ध करते थे. चंपारण का सरेया मन तो खैर इसी जामुन के बीज से साफ़ और पौष्टिक पानी के लिए ऐतिहासिक काल से नामचीन रहा है. उस इलाके के पंछी तो वहां की देशी मछलियाँ अपनी पहचान के लिए संघर्षरत हैं. देश का 4.63 प्रतिशत भूभाग वेटलैंड यानी नमभूमि के अंतर्गत आता है, जिसमें 7,57,060 वेटलैंड्स शामिल हैं. नमभूमि या वेटलैंड का मतलब उस स्थान से है जहां पूरे वर्ष या किसी विशेष मौसम में पानी मौजूद रहता है. इससे जमीन के पानी की जरूरत पूरी होती है. तेजी से होता शहरीकरण, खेती के बढ़ते रकबे और प्रदूषण को इसके क्षरण का जिम्मेदार माना जाता है. वेटलैंड पर विश्व समुदाय का पहला ध्यान करीब 53 साल पहले रामसर सम्मेलन के बहाने ही 2 फरवरी को आया था. 1971 में पहली बार यहीं इन्हें चिह्नित कर संरक्षित करने की पहल की गई थी. फिलहाल दुनिया के करीब 172  देश इसके भागीदार हैं और दुनिया भर के करीब 2500 से ज्यादा वेटलैंड इसकी सूची में दर्ज हैं, जिसमे भारत के मात्र 42 वेटलैंड ही अब तक मानदंडो के अनुरूप शामिल हो पाए हैं.


चढ़ गये औद्योगिक क्रांति की भेंट


औद्योगिक क्रांति के बाद विश्वभर के 87 प्रतिशत वेटलैंड्स मानव विकास की भेट चढ़ चुके हैं. पिछले छः दशक में यानी  1970 के बाद तो मानवीय गतिविधि वेटलैंड पर कहर बन टूट पड़ी है और दुनिया के 35 प्रतिशत वेटलैंड्स खत्म हो गए. भारत में स्थिति और भी भयावह है, पिछले चार दशक में देश के करीब एक तिहाई जैव-विविधता से भरे वेटलैंड्स शहरीकरण और कृषि भूमि के विस्तार में गुम हो गए. शहर से निकले कचरे के पहाड़ ने अनेको जल स्रोत को पाट दिया वही कई जलस्रोत अपशिष्ट जल के भरने की वजह से तबाह हो गए. इन्हें बचाने और इनकी उपयोगिता और महत्त्व जन–जन तक पहुँचाने के लिये हर साल 2 फरवरी को वेटलैंड दिवस मनाया जाता है. रामसर एक ऐसी सन्धि या समझौता है जिसमें अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व के वेटलैंड को चिह्नित किया जाता है. इसकी सूची में शामिल होने के बाद इसके संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता है. इसके लिये ऐसे वेटलैंड का चयन किया जाता है जो ख़ासतौर पर जल प्रवाही हो, पशु–पक्षियों के प्राकृतिक आवास हों, जैव विविधता की अधिक सम्भावनाएँ हों तथा इसका विस्तृत क्षेत्र हो.


रामसर सूची से बंधती है आस


रामसर सूची में शामिल सदस्य देशों को उनकी वेटलैंड क्षेत्र को सहेजने के लिये समय–समय पर प्रोत्साहित किया जाता है तथा उनके संरक्षण के लिये तकनीकी सहयोग और इनके टिकाऊ और लगातार सदुपयोग करने के विभिन्न उपक्रम की जानकारी भी दी जाती है. विश्व स्तर पर वेटलैंड को सहेजे जाने के लिये तमाम कोशिशें की जा रही हैं लेकिन हमारे यहां अब भी इनके संरक्षण को लेकर इच्छाशक्ति में कमी देखी जाती है. हमारे यहाँ कई प्रदेशों में इस तरह के महत्त्वपूर्ण वेटलैंड स्थित हैं. इनमें से कई चाहे रामसर सूची में शामिल नहीं हो लेकिन इससे उनका महत्त्व कम नहीं हो जाता. आज हम देखते हैं कि जागरूकता के अभाव में पर्यावरणीय महत्त्व के इन वेटलैंड क्षेत्रों में अवैध गतिविधियाँ जैसे पक्षियों का शिकार, खनन, मछलियों का शिकार, प्रदूषण, कीटनाशक जैसे खतरनाक रसायनों का इस्तेमाल, ईंट भट्टों का धंधा और इन्हें समतल बनाकर खेती या अवैध निर्माण करके इन्हें नष्ट किया जा रहा है. ऐसा करके हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम कर रहे हैं. आज के विकसित व आधुनिक युग में हमें स्वीकार करना चाहिए कि इस धरती पर सिर्फ हमारा ही अधिकार नहीं है अपितु इसके विभिन्न भागों मे विद्यमान करोडों प्रजातियों का भी इस पर उतना ही अधिकार है जितना हमारा. धरती पर हमारे अस्तित्व को बचाए रखने में समस्त प्रकार की जैव विविधता को बनाए रखना अपरिहार्य है. भू-जल क्षेत्र का मिलन स्थल होने के कारण यहाँ वन्य प्राणी प्रजातियों व वनस्पतियों की प्रचुरता होने से वेटलैंड समृ़द्ध पारिस्थतिकीय तंत्र है. 


आज हम अपने स्वार्थ में नम भूमि क्षेत्रों को संकुचित करते जा रहे हैं तो साल 2024 के वर्ल्ड वेटलैंड डे का थीम नम भूमि क्षेत्र में मानव कल्याण बेमानी प्रतीत हो रहा है, क्योंकि जब नम भूमि क्षेत्र ही नहीं रहेंगे तो मानव कल्याण कहां से हो पाएगा?


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]