मई 2014 में यूपीए की करारी हार के बाद विपक्ष के हाथ से जो तोते उड़े थे, वे अब भी पकड़ में नहीं आ रहे हैं. कोशिशें बार-बार विफल हो रही हैं, जैसे कि नोटबंदी के विरोध में कांग्रेस ने पिछले 25 दिसंबर को विपक्षी दलों की जो साझा बैठक बुलाई थी, उसमें सीपीएम, एनसीपी, जेडीयू समेत कई बीजेपी विरोधी दल शामिल नहीं हुए थे.
इसी तरह राष्ट्रपति चुनाव से पहले 22 जून को सोनिया गांधी की अगुवाई में 17 पार्टियों के 30 दिग्गज महागठबंधनी तस्वीर के एक ही चौखटे में समाते जरूर नजर आए थे, लेकिन ये लोग समय रहते राष्ट्रपति पद का संयुक्त उम्मीदवार ही नहीं तय कर पाए. आज हालत यह है कि संयुक्त विपक्ष का एक विश्वसनीय चेहरा और संभावित महागठबंधन की ओर से पीएम पद की उम्मीदवारी का सामर्थ्य रखने वाले नीतीश कुमार की एनडीए में ‘घर वापसी’ हो जाने से विपक्षी एकजुटता की ‘लालटेन’ ही बुझती नजर आ रही है.
इस लालटेन को फिर से जलाने के लिए कभी एनडीए के संयोजक रहे और अब जेडीयू से बगावत कर बैठे शरद यादव ने बीती 17 अगस्त को साझा विरासत बचाओ उर्फ विपक्ष बचाओ सम्मेलन दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में आयोजित किया. इस मंच पर 17 राजनीतिक दलों के नुमाइंदे दिखे. कांग्रेस, सीपीएम, सीपीआई, एसपी, बीएसपी, एनसीपी, आरजेडी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, जनता दल (सेक्यूलर) और आरएलडी समेत कई अन्य छोटी-मोटी पार्टियों के नेताओं ने देश की साझा विरासत को बचाने की कसमें खाईं. लेकिन सवाल वही रह जाता है कि राज्यों में एक दूसरे के धुरविरोधी दलों को राष्ट्रीय पटल पर कौन-सा फेवीकोल जोड़ कर रखेगा?
विपक्षी एकता का मामला भी क्रिकेट के खेल जैसा है. जरूरी नहीं है कि खिलाड़ियों की पिछली पारियों के प्रदर्शन के आधार पर टीम की जीत-हार सुनिश्चित हो जाए. जनता परिवार ने 1977 में चट्टानी कांग्रेस को उखाड़ फेंका था और वीपी सिंह-देवीलाल ने 1989 में प्रचंड बहुमत वाले राजीव गांधी को धूल में मिला दिया था. लेकिन इंटरनेट और चुनावी इवेंट्स के इस युग में राजनीतिक दलों और मतदाताओं की तुलना पुराने रुझानों से नहीं की जा सकती.
ये नहीं कहा जा सकता कि इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी या जयललिता की तरह विपक्ष फीनिक्स पक्षी बन कर खड़ा हो जाएगा. आज मुकाबला नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली बीजपी के ऐसे बुल्डोज़र से है, जिसने नैतिकता-अनैतिकता की सारी लकीरें गड्डमगड्ड कर दी हैं. सक्रियता भी ऐसी कि जहां सत्ता पक्ष भारी बहुमत वाली सरकार होने के बावजूद पहले ही दिन से 2019 के आम चुनाव की तैयारियों में जुट गया था, वहीं विपक्ष को सवा तीन साल बाद भी सूझ नहीं रहा है कि वह मोदी नाम की आंधी का मुकाबला कैसे करे, उन्हें घेरने के मुख्य मुद्दे क्या हों और संयुक्त विपक्ष का चेहरा कौन बने! विपक्ष यह देख कर भी आश्चर्यचकित है कि देश की जनता बेचैन है लेकिन पीएम नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता घटने का नाम नहीं ले रही!
हाल में हुआ एक सर्वे बता रहा है कि नरेंद्र मोदी को अब भी 80% लोग पीएम पद पर देखना चाहते हैं. साफ है कि पिछले तीन सालों में विपक्ष ने किसी भी राज्य में बीजेपी के खिलाफ साझा कार्यक्रम बनाने और एकमत नेतृत्व की कोई नजीर पेश नहीं की है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और वाम दल, यूपी में सपा और बसपा, महाराष्ट्र में कांग्रेस और एनसीपी, पंजाब में कांग्रेस और आप, गुजरात में कांग्रेस और एनसीपी, केरल में कांग्रेस और वामदल, आंध्र प्रदेश में वायएसआर कांग्रेस और कांग्रेस आदि ने किसी मुद्दे पर आपसी वैमनस्य भूलकर केंद्र सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ साझा आंदोलन नहीं चलाया.
बिहार में आरजेडी और जेडीयू के बीच हुए भीषण घटनाक्रम से तो सभी वाकिफ हैं. ऐसे में देश का मतदाता यह सोच-सोच कर हैरान है कि उनकी तकलीफों को आवाज देने वाले विपक्षी दल राज्यों में आपसी सरफुटौव्वल छोड़ कर जनता के ज्वलंत मुद्दों को लेकर सड़कों पर क्यों नहीं उतर रहे! धरना-प्रदर्शन, जेल भरो और चक्का जाम आंदोलन कहां बिला गए!
विपक्ष के सामने यह चुनौती भी है कि बीजेपी के ‘न्यू इंडिया’ और ‘संकल्प से सिद्धि तक’ जैसे नए नारों के मुकाबले जनता के सामने कौन से सिक्के उछाले जाएं. इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ जैसे एक ही नारे से सत्ता में वापसी कर ली थी. लेकिन विपक्ष ‘मोदी हटाओ’ के नारे के दम पर यह कारनामा करना चाहता है जो संभव नहीं लगता. इसका कारण यह है कि जनता त्रस्त तो है लेकिन इतनी पागल नहीं है कि मृतप्राय पड़े विपक्ष के हाथों में खुद को सौंप दे.
आज करोड़ों बेरोजगार, आत्महत्या कर रहे किसान, नोटबंदी से तबाह व्यापारी-वर्ग और सामाजिक-धार्मिक विद्वेष का शिकार बनाए जा रहे दलित-मुसलमान विपक्ष की तरफ आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं, लेकिन वहां उन्हें शून्य ही नजर आता है. विपक्षी दलों के सामने आज आरटीआई के दायरे में खुद को लाकर हीरो बन जाने का नायाब अवसर हैं, लेकिन आर्थिक लेन-देन में ईमानदार समझे जाने वाले वामदल तक आरटीआई के मामले में कांग्रेस और बीजेपी से मिल गए हैं!
जेपी के शिष्य शरद यादव ने विपक्ष को एकजुट करने की पहल जरूर की है लेकिन उनकी छवि वामपंथी दिग्गज हरकिशन सिंह सुरजीत जैसी नहीं है, जो बीजेपी के खिलाफ जनता दल, वाम दल और कांग्रेस को भानुमती के कुनबे की तरह जोड़ कर रखते थे. वह लोकनायक जयप्रकाश नारायण या डॉ. लोहिया भी नहीं हैं, जिनके पीछे कोटि-कोटि जनता का नैतिक बल था. शरद यादव तो जॉर्ज और जेडीयू ही नहीं संभाल पाए! इसके बावजूद अगर उनकी कोशिश कोई रंग लाती है तो देश के लोकतंत्र के लिए यह पथ्यकर ही सिद्ध होगा.
राष्ट्रीय स्तर पर बिग ब्रदर की भूमिका कांग्रेस खो चुकी है इसलिए राहुल गांधी की कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में कही यह बात अतिशयोक्ति लग सकती है कि- “अगर हम मिल जाएं तो मोदी जी और बीजेपी कहीं दिखाई नहीं देंगे.” लेकिन इसने टॉनिक का काम अवश्य किया है.
ऐसे में जबकि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह कांग्रेस-मुक्त भारत के साथ-साथ अब विपक्ष-मुक्त भारत की मुहिम में जुट गए हैं, अस्तित्व का संकट विपक्ष के लिए फेवीकोल का काम करेगा. इसी भय का नतीजा है कि आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव 27 अगस्त को पटना में विपक्ष की महारैली करने जा रहे हैं और शरद यादव ने तय किया है कि विपक्षी दल अब से हर माह हर राज्य में कम से कम एक सम्मेलन अवश्य किया करेंगे.
यह भी चर्चा है कि यूपी की फूलपुर लोकसभा सीट पर होने जा रहे उप-चुनाव के लिए मायावती संयुक्त विपक्ष की उम्मीदवार बन सकती हैं. इन पहलकदमियों से बिहार का महगठबंधन मॉडल असफल रहने के बावजूद विपक्षी खेमे में आशा का संचार अवश्य होगा और विपक्ष-मुक्त भारत की आशंका पहले से थोड़ी कम होगी.
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