निदा फाजली का एक शेर है. वो लिखते हैं कि हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना...जब मैंने भी पहली बार कालीचरण महाराज को शिव तांडव स्त्रोत गाते हुए सुना तो मंत्रमुग्ध हो गया. इतने मुश्किल तांडव स्रोत 'जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले' को कितनी सहजता और कितनी खूबसूरती से गा रहे थे. लेकिन फिर उनको रायपुर में आयोजित धर्मसंसद में सुना. और जब सुना तो निदा फाजली का शेर भी समझ में आया और ये भी समझ में आया कि असली कालीचरण तो यही है, जिसे महज मंत्र याद हैं, उसकी सिद्धि की बात, संत होने की बात तो उसे पता ही नहीं है.
यति नरसिंहानंद को पहले भी बोलते सुना है. पहले से ही पता है कि वो संत नहीं है. लेकिन कालीचरण को तो संत कहा जाता था. संन्यासी की श्रेणी में रखा जाता था. अब उसने ऐसा बयान दे दिया है कि संत-महंत जैसी उपाधियां जिसे हासिल करने में दशकों बीत जाते हैं, उससे छीन लेनी चाहिए. कालीचरण ने महात्मा गांधी और एक धर्म विशेष को लेकर क्या कहा है, उसे अलग से बताने की जरूरत नहीं है. पिछले एक-दो दिन में आपने खूब सुना और देखा होगा. लेकिन ये बात शायद अनपढ़ होने की वजह से नहीं कही गई है. ये बात कुपढ़ होने की वजह से ही कही गई है. अनपढ़ शख्स ऐसा नहीं कहता. कुपढ़ शख्स ऐसा ही कहता है. और तभी तो तुलसीदास ने 16वीं शताब्दी में ही अपनी कृति रामचरित मानस में ऐसे लोगों के लिए लिखा है, जो आज शब्दश: चरितार्थ होता नजर आ रहा है. रामचरितमानस के उत्तरकांड में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं...
मारग सोई जा कहुं जोई भावा। पंडित सोई जो गाल बजावा।।
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुं संत कहइ सब कोई।।
यानी जिसको जो अच्छा लगता है, वही सही रास्ता है. जो गाल बजाता है, यानी अनर्गल प्रलाप करता है, वही पंडित है. जो झूठ बोलता है और दंभ करता है, सब लोग उसे ही संत कहते हैं. कालीचरण के संदर्भ में तुलसीदास की ये चौपाइयां सब कुछ बयान कर देती हैं. तुलसीदास यहीं नहीं रुकते हैं. उन्होंने और भी लिखा है. वो लिखते हैं कि
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी।।
जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला।।
यानी जो निराचारी है, जो वेदमार्ग से विरत है, कलयुग में वही ज्ञानी है और वही वैरागी है. जिसके नाखून बड़े-बड़े हैं, जिसकी लंबी-लंबी जटाएं हैं, कलयुग में वही प्रसिद्ध तपस्वी है. कालीचरण को संत की उपाधि से खारिज करने के लिए और भी उदाहरण थे, जो दिए जा सकते थे. लेकिन वो खुद को संत कहता है, तो उसके लिए उदाहरण भी तो उन्हीं वेद-पुराण-रामचरितमानस से ही लेकर आने पड़ेंगे. और रामचरितमानस में ऐसे असंतों की परिभाषा तो बताई ही गई है.
हालांकि ऐसा नहीं है कि तुलसीदास ने संत की परिभाषा नहीं लिखी है. वो भी लिखा है गोस्वामी तुलसीदास ने. वो लिखते हैं कि-
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू।।
जो सहि दु:ख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा।।
यानी कि साधु वो है, जिसका चरित्र कपास के समान है. जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है. संत खुद दुख सहकर दूसरों के दोष को ढकता है और इसी वजह से वो वंदनीय है और उसका यश है. वायुपुराण में भी ऋषि शब्द की विवेचना की गई है. लिखा है कि-
ऋषित्येव गतौ धातु: श्रुतौ सत्ये तपस्यथ्।
एतत् संनियतस्तस्मिन् ब्रह्ममणा स ऋषि स्मृत:॥
यानी कि गति, श्रुति, सत्य और तपस, जिसमें निहित हैं, वहीं ऋषि है. और कालीचरण या उस धर्म संसद में मौजूद तमाम कथित संतों के भाषण से ऐसा कुछ भी नजर नहीं आया कि उन्हें संत कहा जा सके. एक शख्स के प्रति वितृष्णा, देश जिसे महात्मा मानता है उसके प्रति घृणा, एक धर्म विशेष के प्रति नफरत किसी संत का स्वभाव नहीं हो सकता. संत का स्वभाव तो वो है, जिसे इस धर्म संसद के आयोजक राज्य गौ सेवा आयोग के अध्यक्ष और दूधाधारी मठ के महंत रामसुंदर दास ने दिखाया है. उन्होंने धर्मसंसद में मौजूद लोगों की सहमति-असहमति की परवाह न करते हुए खुद को अलग कर लिया और फिर उनके प्रति जो सम्मान लोगों ने दिखाया, उसे अलग से बताने की जरूरत नहीं है. बाकी अब आप खुद तय करिए कि संत कौन है, महंत कौन है और क्यों कालीचरण जैसे लोगों से संत की उपाधि छीन लेनी चाहिए.
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